रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद को तर्कसंगत नहीं माना है | रामानुज के अनुसार माया एक वास्तविक दैवीय शक्ति है | यह ईश्वरीय शक्ति है जिसका स्वरुप रहस्यमय है | ईश्वर अपनी जिस रहस्यमयी शक्ति से जगत की सृष्टि करता है, वह मनुष्य की समझ से परे है और इसलिए इस शक्ति को माया कहा गया है | चूकि यह शक्ति वास्तविक है, अतः यह जगत भी वास्तविक है |
रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद को सात
प्रमुख दोषों से युक्त माना है | अर्थात् यह मायावाद सात प्रकार से असिद्ध है |
इन्हें सप्त-अनुपपत्ति कहा गया है | ये सात आक्षेप इस प्रकार है:-
1.
आश्रयानुपपत्ति- रामानुज का प्रश्न है
कि आखिर माया का आश्रय क्या है | यदि ब्रह्म को माया का आश्रय माना जाय तो फिर
इससे ब्रह्म का शुद्ध ज्ञानस्वरूप होने और उसकी अद्वैतवादी अवधारणा का खंडन होगा |
ब्रह्म को माया का आश्रय मानने पर ब्रह्म
के साथ-साथ माया की भी सत्ता माननी पड़ेगी | पुनः माया का आश्रय जीव भी नहीं हो
सकता है क्योंकि जीव स्वयं अविद्याजन्य है |
इस आक्षेप के
उत्तर में शंकर के अनुयायियों का कहना है कि यद्यपि ब्रह्म ही माया का आश्रय है
लेकिन वह स्वयं माया से प्रभावित नहीं होता है | जिसप्रकार जादूगर अपनी जादुई
शक्ति से स्वयं प्रभावित नहीं होता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपनी इस माया शक्ति
से प्रभावित नहीं होता है |
2.
तिरोधानुपपत्ति-यदि ब्रह्म शुद्ध
स्वप्रकाश व ज्ञानस्वरूप है तो फिर माया उसे आच्छादित या तिरोहित नहीं कर सकती |
अतः या तो ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है या फिर अज्ञान या माया उसे आच्छादित नहीं कर सकती
|
शंकर के
अनुयायियों का कहना है कि जिसप्रकार मेघ कुछ देर के लिए सूर्य को आच्छादित कर लेता
है | उसी प्रकार ब्रह्म भी अज्ञान से ढक जाता है लेकिन उससे ब्रह्म के वास्तविक स्वरुप
पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता |
3.
स्वरूपानुपपत्ति-रामानुज का प्रश्न है
कि माया का स्वरुप क्या है ? माया के चार स्वरुप संभव है-सत्, असत्, सद्सत्(सत्-असत्),
न सत् न असत् | यदि माया सत् स्वरुप है, तो फिर इसका खंडन नहीं हो सकता | यदि असत्
है तो जगत प्रपंच का ब्रह्म पर आरोप नहीं हो सकता है | पुनः इसे सद्सत् भी नहीं माना
जा सकता है क्योंकि ऐसा मानना आत्मव्यघाति दोष होगा | इसे सद्सत् से परे मानना
चिंतन प्रक्रिया से विमुख होने के समान होगा | स्पष्ट है कि माया का स्वरुप नहीं
बताया जा सकता है |
शंकर के
अनुयायियों का कहना है कि माया भाव रूप है | यहाँ माया को भाव रूप कहने का
तात्पर्य केवल इतना ही है कि वह अभाव मात्र नहीं है | माया भाव रूप होते हुए भी
अपनी सत्ता के लिए ब्रह्म पर आश्रित है |
4. अनिर्वचनीयानुपपत्ति-शंकर माया को
अनिर्वचनीय मानते है | रामानुज के अनुसार माया को अनिर्वचनीय कहना भी उसके सन्दर्भ
में व्यक्त करने के समान है | पुनः विश्व के सभी पदार्थ या तो सत् हैं या असत् है
| इन दो कोटियों से परे अनिर्वचनीयता को मानना तर्कशास्त्र के नियमों का उल्लंघन
करना है ( मध्यम परिहार का दोष) |
इसके जवाब में शंकर
के अनुयायियों का कहना है कि सत् और असत् से विलक्षण होने के कारण माया को
अनिर्वचनीय मानने में कोई दोष नहीं है | माया सत् नहीं है क्योंकि उसका खंडन
ब्रह्म के ज्ञान से हो जाता है | पुनः वह बंध्या-पुत्र की भांति असत् भी नहीं
क्योंकि इसकी प्रतीति होती है |
5. प्रमाणअनुपपत्ति- रामानुज के अनुसार
माया की सिद्धि का कोई प्रमाण नहीं है | प्रत्यक्ष प्रमाण से इसकी सिद्धि नहीं हो
सकती क्योंकि वह सत् और असत् से विलक्षण है | यह अनुमानगम्य भी नहीं है क्योंकि
माया का कोई हेतु नहीं है | पुनः शब्द प्रमाण से भी इसकी सिद्धि नहीं हो सकती,
क्योंकि शास्त्र इसे केवल ब्रह्म की लीला कहते है | कहने का आशय यह है कि मायावाद
अप्रमाणित है |
शंकर के
अनुयायियों के अनुसार माया का ज्ञान अर्थापत्ति प्रमाण से होता है |
6.
निवृत्यानुपपत्ति- रामानुज का कहना है
कि यदि माया भाव रूप है तो इसका विनाश तर्कतः संभव नहीं है | भावरूप सत्ता का नाश
ज्ञान से नहीं हो सकता |
शंकर के
अनुयायियों ने इसके जवाब में कहा कि माया को भाव रूप कहने का आशय सिर्फ इतना है कि
वह असत् रूप नहीं है | ब्रह्म ज्ञान से इसका निराकरण हो जाता है |
7.
निवर्तकअनुपपत्ति- रामानुज के अनुसार
माया का कोई निवर्तक( नष्ट करने वाला) नहीं है | अद्वैत वेदांती निर्गुण, निराकार,
निर्निवेष ब्रह्म के ज्ञान को माया का निवर्तक मानते हैं | रामानुज के अनुसार निर्गुण,
निराकार, निर्निवेष ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त ही नहीं किया जा सकता है |
अद्वैतवादियों
के अनुसार ब्रह्म ज्ञान ही माया का निवर्तक है | निर्गुण, निराकार, निर्निवेष
ब्रह्म के ज्ञान के लिए आत्मानुभूति आवश्यक है | यह ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय के भेद
पर आधारित नही है | यह ज्ञान अपरोक्षानुभूतिगम्य है |
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिस
अर्थ में शंकराचार्य ने माया का वर्णन किया है, उस अर्थ से भिन्न अर्थ में
रामानुजाचार्य माया का खंडन करते है | वे भाव, सत् और असत् के अर्थ को शंकराचार्य
दे द्वारा स्वीकृत अर्थ से भिन्न अर्थ लेकर मायावाद का खंडन करने का प्रयास करते
है | अतः रामानुजाचार्य द्वारा शंकर के मायावाद पर किया गया आक्षेप तार्किक रूप से
पूर्णतः संगत नहीं है |
मायावाद के द्वारा शंकराचार्य जहाँ एक
ओर एकमात्र पारमार्थिक तत्व के रूप में ब्रह्म की सत्ता को स्थापित करते हैं तो
दूसरी तरफ जगत की उत्पति, विनाश और विविधता की व्याख्या करते है | इसप्रकार
नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता, वास्तविकता-भ्रम इन सभी की व्याख्या मायावाद के
आधार पर की गई है |
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