Monday, 24 March 2025

शंकराचार्य का मायावाद


मायावाद, अद्वैतवाद का एक महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट सिद्धांत है | माया को अद्वैत वेदांत की तार्किक पूंजी कहा जाता है | माया ईश्वर की शक्ति है, जिसके द्वारा वह नाना रूपात्मक विश्व की रचना करता है |

माया की परिकल्पना क्यों की गई- ब्रह्म और जगत की सम्यक रूपेण व्याख्या करने के लिए और परम तत्व के एकत्व एवं जगत की विविधता की व्याख्या करने के लिए माया को लाया गया |  

शंकराचार्य के अनुसार पारमार्थिक दृष्टिकोण से ब्रह्म ही एकमात्र सत् है, ब्रह्म से भिन्न किसी की सत्ता नहीं है | दूसरी तरफ व्यावहारिक दृष्टिकोण से संसारी जीव है, जिसमें भेद है | ऐसी स्थिति में यह द्वंद्व उभरता है कि ब्रह्म के एकत्व और जीव-जगत की प्रपंचमय स्थिति के बीच किस प्रकार समन्वय स्थापित किया जाय ? शंकराचार्य इसकी व्याख्या और समाधान माया के माध्यम से करते है, जिसका ज्ञान अर्थापत्ति प्रमाण से होता है|

शंकर से दर्शन में माया और अविद्या दोनों एक ही है | लेकिन परवर्ती विचारकों ने इनके बीच भेद किया है | इनके अनुसार माया भाव रूप है जबकि अविद्या अभाव रूप है | माया ईश्वर से संबंधित है और अविद्या जीव से संबंधित है | भाव रूप का अर्थ है कि असत नहीं जबकि अभाव रूप का अर्थ बंध्या-पुत्र की तरह सदैव असत है |

माया के दो अर्थ किए गए हैं: आवरण और विक्षेप |

1.       माया ब्रहम के स्वरुप पर आवरण डाल देती है, उसे ढक देती है |

2.       माया ब्रह्म के ऊपर जगत को प्रक्षेपित कज उसे विक्षेपित कर देती है

माया की विशेषताएँ

1.       माया अचेतन है, जड़ रूप है |

2.       माया त्रिगुणात्मक है, अर्थात् वह सत्व, रज और तम से युक्त है किन्तु यह माया सांख्य दर्शन की त्रिगुणात्मक प्रकृति से भिन्न है | माया और प्रकृति में भिन्नता है :

क.      माया परतंत्र है, प्रकृति स्वतंत्र है |

ख.     माया मिथ्या है, प्रकृति सत् है|

ग.      माया द्वारा रचित विश्व भी मिथ्या है, जबकि प्रकृति का वास्तविक परिणाम विश्व है, अतः सत् है|

3.       माया सगुण ब्रह्म की शक्ति है | यद्यपि इसका संबंध ब्रह्म से है, परन्तु ब्रह्म इससे प्रभावित नहीं होता है, जैसे जादूगर अपनी जादू से प्रभावित नहीं होता |

4.       माया अनादि है परन्तु सांत है | ब्रह्म ज्ञान से इसका अंत होता है |

5.       माया अनिर्वचनीय है क्योंकि यह सत् और असत् से विलक्षण है |

6.       माया का आश्रय और विषय दोनों ब्रह्म है |

7.      माया भाव रूप है | यहाँ भावरूप का तात्त्पर्य सत् से नहीं है | भाव रूप कहने का आशय मात्र इतना ही है कि वह असत् नहीं है |

8.       माया अध्यास है | यह भ्रम मात्र है |

9.       माया ज्ञान निरस्या है | अधिष्ठान के ज्ञान से इसका बाध हो जाता है, जैसे रस्सी के ज्ञान से सर्प का बाध हो जाता है |

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