Monday, 24 March 2025

शंकर का जीव विचार..... ' जीवो ब्रह्मैव नापरः’

शंकराचार्य के अनुसार पारमार्थिक दृष्टिकोण से 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः’ अर्थात् ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत मिथ्या है | जीव ब्रह्म ही है, ब्रह्म से भिन्न नहीं है | जब आत्मा का प्रतिबिम्ब अविद्या पर पड़ता है तो जीव की उत्पति होती है | जीव आत्मा या ब्रह्म का व्यावहारिक रूप है | जब आत्मा शरीर, मन, बुद्धि आदि उपाधियों से युक्त होता है, सीमित होता है, तब वह जीव के रूप में दृष्टिगोचर होता है|  

जीव और आत्मा

·         जीव अनेक है | आत्मा एक है

·         जीव शरीरधारी है | आत्मा अशरीरधारी है |

·         जीव बंधन युक्त है | आत्मा बंधन मुक्त है

·         जीव व्यावहारिक सत्ता है | आत्मा पारमार्थिक सत्ता है |

·         जीव ज्ञाता, कर्त्ता और भोक्ता है | आत्मा कर्त्ता और भोक्ता नहीं है

जीव भिन्न-भिन्न शरीरों में अलग-अलग रूप में रहता है | जीव भौतिक और अभौतिक तत्वों का संगठन है| इसका भौतिक तत्व शरीर है जबकि अभौतिक तत्व चैतन्य है | यह चेतन तत्व निष्क्रिय दृष्टा या साक्षी है | साक्षी स्वयंप्रकाश है, स्वयंसिद्ध है | यह बिना किसी उपकरण के स्वतः अभिव्यक्त होता है | जीव का भौतिक तत्व अंतःकरण है, जो शरीर के रूप में अभिव्यक्त होता है | यह अविद्या का परिणाम है | इसी संदर्भ में यहाँ जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अंतःकरण से व्याप्त चैतन्य ही जीव है-अंतःकरण विशिष्टो जीवः| यह जीव न तो आत्मा है और न आत्मा से पृथक कोई स्वतंत्र सत्ता है | इसकी सत्ता आभासी है | शंकराचार्य के दर्शन में जीव और ब्रह्म के संबंध को स्पष्ट करने के लिए तीन सिद्धांतों का उल्लेख है-

·         प्रतिबिम्बवाद

·         अवच्छेद्वाद

·         आभासवाद

प्रतिबिम्बवाद-इसके अनुसार जिसप्रकार एक ही चन्द्रमा विभिन्न जलाशयों में अलग-अलग रूप में दृष्टिगोचर होता है | उसीप्रकार आत्मा या ब्रह्म वस्तुतः एक ही है, किन्तु वह नाना प्रकार के जीवों के रूप में प्रतिबिंबित होता है | इसकी आलोचना में यह कहा गया है कि यदि ब्रह्म निर्गुण और निराकार है तो फिर जीव में उसके प्रतिबिम्ब की व्याख्या नही की जा सकती है क्योंकि कोई सगुण और साकार वस्तु ही अपना प्रतिबिम्ब उत्पन्न कर सकती है |

अवच्छेद्वाद-इसके अनुसार जिसप्रकार एक ही आकाश कई स्थानों में सीमित रूप में अवलोकित होता है, जैसे-घटाकाश आदि, उसीप्रकार यद्यपि ब्रह्म एक ही है, किन्तु वह अविद्या और उपाधि भेद के कारण विभिन्न जीवों में सीमित रूप में दिखाई देता है | इसकी आलोचना में यह कहा गया है कि सर्वव्यापक तत्व को किसी भी प्रकार से सीमित नहीं किया जा सकता है इस सिद्धांत को मानने पर जीव की स्थिति रामानुजाचार्य के सदृश्य अर्थात् ब्रह्म के अंश के रूप में हो जाती है |

आभासवाद(विवर्तवाद)-इसके अनुसार वास्तव में जीव न तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है और न ही अवच्छेदित रूप रूप है | जीव ब्रह्म का विवर्त रूप है | दोनों तत्वतः एक ही है | जीव की ब्रह्म से पृथक अपनी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है | अविद्या के समाप्त होने पर दोनों के मध्य तादात्म्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है | अहं ब्रह्मास्मि, तत्तत्वमसि जैसे महावाक्य जीव और ब्रह्म की एकता को ही प्रतिपादित करते है |

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