Wednesday, 23 April 2025

मध्यकालीन आर्यभाषा अपभ्रंश

अपभ्रंश मध्यकालीन आर्यभाषा की तीसरी अवस्था है | अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है-भ्रष्ट, विकृत, अशुद्ध या संस्काररहित | सर्वप्रथम जो शब्द भाषा के सामान्य मानदंड या मानक रूप से विकृत या अशुद्ध होते थे, उनके लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग होता था | भाषा विशेष के सन्दर्भ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग प्रायः छठी शती ईस्वी में प्राकृत वैयाकरण चंड ने सर्वप्रथम किया है | कुछ विद्वानों ने इसे देश-भाषा या देशी भाषा कहा है | वाग्भट्ट और आचार्य हेमचन्द्र ने इसे ग्राम-भाषा कहा है | सातवीं से ग्यारहवीं शती के अंत तक यह साहित्य-भाषा, देश-भाषा   और राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई | नाथों, सिद्धों और जैनियों का विपुल साहित्य इसी भाषा में रचा गया | स्वयंभू अपभ्रंश भाषा के आदि कवि माने जाते हैं | जसहर चारिउ, णायकुमार चारिउ, करकंड चारिउ, भविस्यत्त कहा और पाहुड़ दोहा आदि अपभ्रंश में रचित महान कृतियाँ हैं |

अपभ्रंश की ध्वनिगत विशेषताएँ

1.       ह्रस्व स्वर-अ इ उ  

दीर्घ स्वर-आ ई ऊ ए ओ

2.       ऐ और औ अपभ्रंश में नहीं मिलते है |

3.       ऋ के स्थान पर अ इ उ ए और रि हो गया

       जैसे- कृष्ण> कण्ह (अ)

कृत>किय (इ)

पृच्छ>पुच्छ (उ)

गृह> गेह (ए)

ऋण> रिण (रि)

4.       कई शब्दों में अकारण अनुनासिकता आ गई | जैसे पंखि(पक्षि), मंजार(मार्जार), वंक(वक्र)|

5.       अपभ्रंश को उकार बहुला भाषा कहा गया है-जैसे- मनु, कारणु, अंगु |

6.       व्यंजन संयोग को सरल करने के लिए प्रायः संयुक्त व्यंजनों के बीच कोई स्वर लाया गया

जैसे- आर्य>आरिय

क्रिया>किरिया

वर्ष>वरिस

7.       कई शब्दों में स्वरलोप की प्रवृति पाई जाती है

जैसे- अरण्य>रण्ण

अहं>हउं  

8.       अपभ्रंश में ङ ञ न श और ष ध्वनियाँ नहीं हैं | लेकिन ‘ण’ का बहुप्रयोग अपभ्रंश की विशेषता है |

9.       अपभ्रंश चवर्ग स्पर्श-संघर्षी थे तो कवर्ग कोमलतालव्य |

10.    न का ण, य का ज और श-ष का स हो गया |

जैसे- णयर(नगर), जइ (यदि), केस(केश)

11.    शब्द के मध्य में आने वाले क, ग, च, ज, त, द का अ या य हो गया |

जैसे- वचन>वयण

कोकिल> कोअल

 नगर> णयर

12.    अन्त्य व्यंजन(हलन्त) के लोप की प्रवृति पाई जाती है|

जैसे- जगत्>जग

पश्चात्>पच्छा

13.    आदि व्यंजन को सुरक्षित करने की प्रवृति दिखाई पड़ती है | पर कहीं- कहीं आदि व्यंजन के महाप्राणीकरण(ज्वल>झल्ण) और अल्पप्राणीकरण(क्षुधित>खुहिय) की प्रवृति भी दिखाई देती है |

 

व्याकरणिक विशेषता

1.       अपभ्रंश में दो लिंग (स्त्रीलिंग और पुलिंग) और दो ही वचन मिलते हैं | लेकिन पुलिंग की प्रधानता होती है |

2.       विभक्तियों के ह्रास की जो प्रवृति ‘पालि’ से प्रारंभ हुई थी, वह अपभ्रंश में बढ़ जाती है   | अपभ्रंश में केवल तीन कारक समूह हैं:

()  कर्त्ता-कर्म-संबोधन  (ख) करण-अधिकरण (ग) सम्प्रदान-संबंध-आपादान

3.       अपभ्रंश के अधिकांश कर्त्ता, कर्म और संबंध कारक में विभक्तियों का प्रयोग होता ही नहीं है | इन्हें लुप्तविभक्तिक पद कहते हैं, जिनका निर्देश हेमचंद्राचार्य ने किया है | विभक्तियों की कमी को परसर्गों द्वारा पूरा किया गया | करण का परसर्ग ‘सहुँ’, सम्प्रदान के लिए ‘रेसि’ और ‘केहि’, आपादान के लिए ‘होन्तउ और होन्त’, संबंध के लिए ‘केरअ-केर-केरा’ और अधिकरण के लिए ‘मज्झी-मज्झे’ का प्रयोग होता है|

4.       संस्कृत में संज्ञा के 24 रूप और प्राकृत में 12 रूप थे, लेकिन अपभ्रंश एसा केवल 6 रूप ही प्रचालन में रह गए थे |

5.       अपभ्रंश में सर्वनामों के विभिन्न रूप पाए जाते हैं |

6.       अपभ्रंश में काल-रचना में तिडन्त रूपों के स्थान पर कृदन्त का व्यवहार अधिक होता है | वर्तमान काल और भविष्यत काल में तिडन्त रूप मिलता है, लेकिन भूतकाल में कृदन्त का प्रयोग होता है |

7.       धातु रूपों का सरलीकरण और एकीकरण अपभ्रंश की विशेषता है | इसमें परस्मै पद रूप नहीं मिलते हैं|

8.       अपभ्रंश में तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था | जैसे-कबंध, गगन, चरण, पंचम | लेकिन तद्भव शब्दों की संख्या अधिक है | मुसलमानों के संपर्क में आने से अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग होने लगा- आल-माल(माल-मत्ता), सुल्ताण, रूमाल| 

No comments:

Post a Comment