अपभ्रंश मध्यकालीन आर्यभाषा की तीसरी अवस्था है | अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है-भ्रष्ट, विकृत, अशुद्ध या संस्काररहित | सर्वप्रथम जो शब्द भाषा के सामान्य मानदंड या मानक रूप से विकृत या अशुद्ध होते थे, उनके लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग होता था | भाषा विशेष के सन्दर्भ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग प्रायः छठी शती ईस्वी में प्राकृत वैयाकरण चंड ने सर्वप्रथम किया है | कुछ विद्वानों ने इसे देश-भाषा या देशी भाषा कहा है | वाग्भट्ट और आचार्य हेमचन्द्र ने इसे ग्राम-भाषा कहा है | सातवीं से ग्यारहवीं शती के अंत तक यह साहित्य-भाषा, देश-भाषा और राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई | नाथों, सिद्धों और जैनियों का विपुल साहित्य इसी भाषा में रचा गया | स्वयंभू अपभ्रंश भाषा के आदि कवि माने जाते हैं | जसहर चारिउ, णायकुमार चारिउ, करकंड चारिउ, भविस्यत्त कहा और पाहुड़ दोहा आदि अपभ्रंश में रचित महान कृतियाँ हैं |
अपभ्रंश की ध्वनिगत विशेषताएँ
1. ह्रस्व
स्वर-अ इ उ ऍ ऒ
दीर्घ स्वर-आ ई ऊ ए ओ
2.
ऐ और औ अपभ्रंश में नहीं मिलते है |
3.
ऋ के स्थान पर अ इ उ ए और रि हो गया
जैसे-
कृष्ण> कण्ह (अ)
कृत>किय (इ)
पृच्छ>पुच्छ (उ)
गृह> गेह (ए)
ऋण> रिण (रि)
4.
कई शब्दों में अकारण अनुनासिकता आ गई |
जैसे पंखि(पक्षि), मंजार(मार्जार), वंक(वक्र)|
5.
अपभ्रंश को उकार बहुला भाषा कहा गया है-जैसे-
मनु, कारणु, अंगु |
6.
व्यंजन संयोग को सरल करने के लिए प्रायः
संयुक्त व्यंजनों के बीच कोई स्वर लाया गया
जैसे- आर्य>आरिय
क्रिया>किरिया
वर्ष>वरिस
7.
कई शब्दों में स्वरलोप की प्रवृति पाई जाती
है
जैसे- अरण्य>रण्ण
अहं>हउं
8.
अपभ्रंश में ङ ञ न श और ष ध्वनियाँ नहीं हैं | लेकिन ‘ण’ का बहुप्रयोग अपभ्रंश
की विशेषता है |
9.
अपभ्रंश चवर्ग स्पर्श-संघर्षी थे तो
कवर्ग कोमलतालव्य |
10.
न का ण, य का ज और श-ष का स हो गया |
जैसे- णयर(नगर), जइ (यदि), केस(केश)
11.
शब्द के मध्य में आने वाले क, ग, च, ज,
त, द का अ या य हो गया |
जैसे- वचन>वयण
कोकिल> कोअल
नगर>
णयर
12.
अन्त्य व्यंजन(हलन्त) के लोप की
प्रवृति पाई जाती है|
जैसे- जगत्>जग
पश्चात्>पच्छा
13. आदि
व्यंजन को सुरक्षित करने की प्रवृति दिखाई पड़ती है | पर कहीं- कहीं आदि व्यंजन के
महाप्राणीकरण(ज्वल>झल्ण) और अल्पप्राणीकरण(क्षुधित>खुहिय) की प्रवृति भी दिखाई
देती है |
व्याकरणिक विशेषता
1.
अपभ्रंश में दो लिंग (स्त्रीलिंग और पुलिंग)
और दो ही वचन मिलते हैं | लेकिन पुलिंग की प्रधानता होती है |
2. विभक्तियों
के ह्रास की जो प्रवृति ‘पालि’ से प्रारंभ हुई थी, वह अपभ्रंश में बढ़ जाती है | अपभ्रंश में केवल तीन कारक समूह हैं:
(क) कर्त्ता-कर्म-संबोधन
(ख) करण-अधिकरण (ग) सम्प्रदान-संबंध-आपादान
3. अपभ्रंश
के अधिकांश कर्त्ता, कर्म और संबंध कारक में विभक्तियों का प्रयोग होता ही नहीं है
| इन्हें लुप्तविभक्तिक पद कहते हैं, जिनका निर्देश हेमचंद्राचार्य ने किया है |
विभक्तियों की कमी को परसर्गों द्वारा पूरा किया गया | करण का परसर्ग ‘सहुँ’,
सम्प्रदान के लिए ‘रेसि’
और ‘केहि’, आपादान के लिए ‘होन्तउ और होन्त’, संबंध के लिए ‘केरअ-केर-केरा’ और
अधिकरण के लिए ‘मज्झी-मज्झे’ का प्रयोग होता है|
4. संस्कृत
में संज्ञा के 24 रूप और प्राकृत में 12 रूप थे, लेकिन अपभ्रंश एसा केवल 6 रूप ही
प्रचालन में रह गए थे |
5. अपभ्रंश
में सर्वनामों के विभिन्न रूप पाए जाते हैं |
6. अपभ्रंश
में काल-रचना में तिडन्त रूपों के स्थान पर कृदन्त का व्यवहार अधिक होता है |
वर्तमान काल और भविष्यत काल में तिडन्त रूप मिलता है, लेकिन भूतकाल में कृदन्त का
प्रयोग होता है |
7. धातु
रूपों का सरलीकरण और एकीकरण अपभ्रंश की विशेषता है | इसमें परस्मै पद रूप नहीं
मिलते हैं|
8. अपभ्रंश में तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था | जैसे-कबंध, गगन, चरण, पंचम | लेकिन तद्भव शब्दों की संख्या अधिक है | मुसलमानों के संपर्क में आने से अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग होने लगा- आल-माल(माल-मत्ता), सुल्ताण, रूमाल|
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