Thursday, 12 June 2025

ब्रजभाषा का विकास...आरंभिक अवस्था

ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से ‘ब्रजभाषा’ शौरसेनी अपभ्रंश से निःसृत भाषा है| ब्रज का अर्थ है ‘गोस्थली’, वह क्षेत्र, जहाँ गायें रहती है | उस ब्रज प्रदेश में प्रचलित भाषा को ब्रजभाषा कहा गया | यह मथुरा, अलीगढ, आगरा, बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं, बरेली, भरतपुर, धौलपुर,करौली और जयपुर के पूर्वी भाग में बोली जाती है | लल्लूजीलाल के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र "ब्रजभाषा वह भाषा है, जो ब्रज, जिला ग्वालियर, भरतपुर, बटेश्वर, भदावर, अंतर्वेद तथा बुंदेलखंड में बोली जाती है। इसमें (ब्रज) शब्द मथुरा क्षेत्र का वाचक है।' लल्लूजीलाल ने यह भी लिखा है कि ब्रज और ग्वालियर की ब्रजभाषा शुद्ध एवं परिनिष्ठित है।

ब्रजभाषा बोलने वालों की संख्या लगभग 4 करोड़ का आसपास है | ब्रजभाषा का नामकरण अठारहवीं शताब्दी में हुआ | इसके पूर्व यह ‘पिंगल’ या ‘भाखा’ नामों से प्रसिद्ध थी|

काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा की विकास परंपरा में सबसे हस्ताक्षर महाकवि सूरदास हैं, जिनके पदों आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्यिक रचना’ माना है | यहाँ हम सूरदास को केंद्र में रखकर ब्रजभाषा की विकास परंपरा तीन चरणों में विभाजित कर सकते हैं:-

                                                        I.            सूरदास पूर्व ब्रजभाषा

                                                      II.            सूरदास कालीन ब्रजभाषा

                                                    III.            सूरदास के बाद ब्रजभाषा

सूरदास के पूर्व आरंभिक काल में ब्रजभाषा में काव्य-रचना के छिटपुट उदाहरण ही मिलते हैं | इन छिटपुट काव्य-रचनाओं के दो रूप हैं-एक प्राकृत पैंगलम एवं रासो ग्रंथों जैसे पिंगल कृतियों में मिलता है और दूसरा रूप उक्ति-व्यक्ति प्रकरण और उक्ति रत्नाकर जैसी रचनाओं में मिलता हैं, जिसके कुछ नमूने इसप्रकार हैं:-

(1)     अक्खर, अग्गे, अग्गि, अज्जु आदि में द्वित्व व्यंजन बाद में आखर, आगे, आग और आज हो गया |

(2)     नअण झंपिओ (प्राकृत पैंगलम)

(3)     पृथ्वीराज रासो के प्रामाणिक अंशों की भाषा भी ब्रजभाषा मानी जाती है-एत्तुलो(इतना), गड्डो(गड्ढा), घट्टो(घाट)

(4)     उक्ति-व्यक्ति प्रकरण में भी ब्रजभाषा के प्रभाव दिखाई देते हैं- जैसे- कुंभार हांडो घउइ

धीरे-धीरे ब्रजभाषा में निरंतर और स्वतंत्र साहित्य मिलने लगता है | लेकिन ब्रजभाषा में सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल कृत ‘प्रद्युम्न चरित्र’ है, जिसकी भाषा लोकभाषा के काफी निकट है, जैसे-की मझं पुरिष विद्रोही नारि |

इसके बाद सर्वश्रेष्ठ कवि विष्णु दास आते है, जिनकी ‘रुक्मिणी मंगल’ की भाषा इसप्रकार है-

                     मोहन महलन करत निवास |

                     कनक मंदिर में केलि करत है और कोउ नहीं पास |

मानों बालक सूरदास कविता लिखने का अभ्यास कर रहे हों |

गुरुग्रंथ साहब के कवियों की भाषा में भी ब्रजभाषा के नमूने देखे जा सकते हैं | कबीर आदि संतों की वाणी तो ब्रजभाषा में भी मुखर हुई है, जैसे-

                           माधो भरम कैसेहू न बिलाई | ताते द्वैत दरसै आई||

सूरदास पूर्व काव्यभाषा के लक्षण:-

        I.            अक्षर के अंत में ‘अ’ का उच्चारण होता था, जैसे संस्कृत में होता था | बाद की ब्रजभाषा में यह मूक हो गया |

      II.            ब्रजभाषा के स्वरों में अनुनासिकता आ गई थी, इसके लिए चंद्र बिंदु का प्रयोग आवश्यक होने लगा| जैसे कहँ, महँ |

    III.            बहुत से शब्दों में ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ पाया जाता है, जो बाद की ब्रजभाषा में नहीं हैं-वयण,नयण, निरंजण, गण|

    IV.            ऐ और औ का बाहुल्य ब्रजभाषा की विशेषता है| परन्तु इस युग में ऐसे प्रयोग तीन तरह के थे- एक अवहट्ट की तरह, जैसे-चाल्यउ, करउ, धरइं| दूसरे ए, ओ वाले-गयो, मिल्यो और तीसरे ऐ, और औ वाले |

      V.            कर्ता परसर्ग ‘ने’ का प्रयोग यदा-कदा मिलने लगता है | शेष परसर्गों में स्थिरता आ गई-सम, सउ, तौं ते, लागि, को, के, की, माँझि

सर्वनामों में हउ, हौं, मउ, मैं |

    VI.            सहायक क्रिया में ह्वै, है, ह्वैं, भयो, भये, भई विकास की दिशा का संकेत करते हैं |

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