राम स्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार रचना यदि जीवन का अर्थ विस्तार करती है तो आलोचक रचना का अर्थ विस्तार करता है | दूसरे शब्दों में जीवन के अंतर्द्वंद्व को देखने-पहचानने में आलोचना दीपक की भूमिका अदा करती है। आलोचना रचनात्मक संकेतों को सामाजिक अनुभवों के आलोक में ‘डी-कोड’ करती है। इस तरह जहाँ रचनाकार की रचनाशीलता विराम लेती है वहीं से आलोचक का काम प्रारम्भ होता है। किसी भी साहित्य की आलोचना अपने समय और समाज की सापेक्षता एवं प्रसंगानुकूलता में ही संभव होती है, तभी आलोचना की सार्थकता और साथ ही साथ रचना की मूल्यवत्ता प्रमाणित होती है और इस प्रसंगानुकूलता और सापेक्षता की तलाश में अलोचना की सामाजिकता का प्रश्न उभरता है। इस प्रकार आलोचना परखे हुए को बार-बार परखती है और जीवन-संबंधों के विकल्पों की तलाश में साहित्य और आलोचना की सह-यात्रा जारी रहती है। आलोचना का संबंध एक साथ इतिहास बोध और सामाजिक विमर्श दोनों से होता है | आलोचना का इतिहास में परिवर्तन की दिशा और संवेदना की पहचान करने, उसका विश्लेषण करने, उस परिवर्तन के कारणों की पहचान करने और उसे अपने तत्कालीन समाज से जोड़ने की दृष्टि से व्यापक महत्व है| सामाजिक विमर्श के रूप में आलोचना के मूल्य सामाजिक मूल्य से भी संबंधित होते है | आलोचक जब इतिहास के साथ ही समाज, राजनीति, धर्म, नैतिकता और अर्थव्यवस्था के प्रश्नों से टकराता है तो इस टकराहट में वह साहित्य के मूल्य भी निर्मित करता है | मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर साहित्य का विश्लेषण करने में आलोचना का महत्व समझ में आता है| आलोचना से सहृदय को साहित्य के प्रमाणिक अनुशीलन की सुविधा प्राप्त होती है | सहृदय की रस ग्रहण क्षमता का परिष्कार करने के लिए उसकी संवेदनाओं को जागृत करने में आलोचना का अहम महत्त्व है | इससे कृतिकार को उत्साह, विचारों की प्रौढ़ता, रचनागत विचारों और शिल्प एवं भाषा के परिमार्जन की प्रेरणा मिलती है जबकि पाठक के बोध-वृति का परिष्कार भी होता है |
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