मोदी सरकार ने देश में सभी चुनाव एक साथ करवाने के लिए बनी रामनाथ कोविंद कमिटी की रिपोर्ट ने मुहर लगा दी है| इसके बाद देश में 'एक देश, एक चुनाव' की राह से संशय दूर हो गया है| पीएम मोदी ने ट्वीट किया कि ये हमारे लोकतंत्र को अधिक जीवंत, सहभागी बनाने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम है। पिछले दिनों गृह मंत्री अमित शाह ने भी साफ किया था कि मोदी सरकार के इसी कार्यकाल में देश का यह सबसे बड़ा चुनाव सुधार लागू हो जाएगा| बता दें कि बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में भी इसका वादा किया था | हाल ही में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भी पीएम मोदी ने अपने भाषण में भी एक देश एक चुनाव का जिक्र किया था | मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में 'वन नेशन, वन इलेक्शन' पर राजनीतिक दलों के बीच आपसी संवाद के जरिए इस मुद्दे पर एक समझौते का प्रयास किया था, क्योंकि बार-बार चुनाव होने से विकास की रफ्तार बाधित होती है | इसके पहले मोदी सरकार ने अक्टूबर २०१७ में अपने वेबपोर्टल ‘My Gov’ पर इस मुद्दे पर जनता से अपने-अपने विचार भेजने की अपील की थी| इसके बाद पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी, जिसे जिम्मेदारी दी गई थी क कि वह देश मे एक साथ चुनाव करवाने की संभावनाओं पर रिपोर्ट दे| समिति ने अपनी रिपोर्ट इस साल मार्च में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी थी |
पहले चरण में लोकसभा के साथ सभी
राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने, इसके बाद 100 दिनों के भीतर दूसरे चरण में
स्थानीय निकाय चुनाव कराने, पूरे देश मे सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची बनाने
और सभी के लिए मतदाता पहचान पत्र भी एक ही जैसा रखने की सिफारिश की है | इन
सिफारिशों के लागू होने का निरीक्षण करने के लिए एक 'कार्यान्वयन समूह' के गठन का प्रस्ताव दिया है।
कमिटी ने त्रिशंकु सदन या अविश्वास
प्रस्ताव की स्थिति में बहुमत खोने पर, चाहे लोकसभा में हो या किसी राज्य विधानसभा में, नए चुनाव कराने का
प्रस्ताव किया है, लेकिन
नए सदन का कार्यकाल केवल अगले निर्धारित आम चुनाव तक ही रखने का प्रस्ताव है, ताकि
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव को एक साथ कराये जाने की प्रक्रिया बनी रहे | हालांकि
इसके लिए आगे का सफर आसान नही होने वाला है। इसके लिए संविधान संशोधन और राज्यों की
मंजूरी भी जरूरी है, जिसके
बाद ही इसे लागू किया जाएगा|
आजादी के बाद तकरीबन 15 साल तक
विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ चले लेकिन बाद में कुछ राज्यों में
राजनीतिक अस्थिरता की वजह से एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला और कुछ सरकारें अपना
कार्यकाल खत्म होने से पहले गिर गईं| यही नहीं केंद्र में भी कई बार सरकारें अपने
5 वर्ष की अवधि को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सकीं | इसका परिणाम यह हुआ कि न
केवल लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव करवाना संभव नहीं सका बल्कि केवल सभी राज्यों
के चुनाव भी एक साथ नहीं होने की बाध्यता हो गई | लेकिन अब बार-बार होने वाले
चुनावों में आर्थिक और मानवीय संसाधनों के बढ़ते व्यय एवं विकास की प्रक्रिया में
उत्पन्न होने वाली बाधाओं को देखते हुए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ
करवाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है |
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ
कराने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क आर्थिक और मानव संसाधनों की बचत का है | सेंटर
फॉर मीडिया स्टटडी (सीएमएस) की स्टडी के अनुसार
1998 से लेकर 2019 के बीच लगभग 20 साल की अवधि में चुनाव खर्च में 6 से 7 गुना की
बढ़ोतरी हुई| 1998 में चुनाव खर्च करीब 9 हजार करोड़ रुपये था जो अब बढ़कर 55 से
60 हजार करोड़ रुपये हो गया है| 2024 में बढ़कर लगभग 1 लाख करोड़ रुपये खर्च होने
का अनुमान है| इसके साथ ही बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी
कर्मचारियों के चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से न केवल विकास और शिक्षा को
अधिकतम नुकसान होता है बल्कि सुरक्षा बलों को भी बार-बार चुनाव कार्य में लगाए
जाने देश की सुरक्षा के लिए भारी खतरा का सामना करना पड़ता है | एक साथ चुनाव होने
से राजनीतिक दलों को भी दो अलग-अलग चुनावों की तुलना में हर स्तर पर दोहरे खर्च के
बजाय कम पैसे खर्च करने होंगे| सबसे अहम यह कि चुनाव कार्य के लिए बार-बार सुरक्षा
बलों की अनावश्यक तैनाती से बचा जा सकेगा, जिनका उपयोग बेहतर आंतरिक और बाह्य
सुरक्षा के लिए किया जा सकेगा |
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ
कराने के दूसरा सबसे प्रबल तर्क यह है कि इससे चुनावों में आम लोगों की भागीदारी
बढ़ सकती है| देश
में बहुत से लोग हैं जो रोजगार या अन्य वजहों से अपने वोटर कार्ड वाले पते पर नहीं
रहते, वे अलग-अलग
चुनाव होने की स्थिति में बार-बार मतदान करने नहीं जाते| एक साथ चुनाव होने पर पूरे देश में एक
मतदाता सूची होगी जो लोकसभा और विधानसभा के लिए अलग-अलग होती हैं| तीसरा तर्क यह
है कि चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू रहने के दौरान विकास संबंधित कई निर्णय बाधित
हो जाते है | इसके साथ ही प्रशासनिक मिशनरी के चुनाव कार्यों में व्यस्त होने और शासन
तंत्र के प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाने से सामान्य और पहले से चले आ रहे विकास
कार्य भी प्रभावित होते है|
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ
कराने के विरुद्ध सबसे प्रबल तर्क यह दिया जाता है कि अगर देशभर में एक साथ चुनाव
हो, तो राज्यों के मुद्दों
और हितों की अनदेखी हो सकती है| सारा ध्यान लोकसभा के चुनाव पर होगा | यही नहीं वोट
देते समय ज्यादातर लोगों द्वारा एक ही पार्टी को वोट कर सकते हैं | कई बार मतदाता
राज्य में किसी क्षेत्रीय पार्टी के मुद्दों के साथ जाता है जबकि केंद्र में किसी
मजबूत राष्ट्रीय पार्टी के मुद्दों को तरजीह देते हुए उसके पक्ष में मतदान करते है
| इससे मतदाताओं में भ्रम भी पैदा हो सकता है| इससे बड़े राजनीतिक दलों को ज्यादा
फायदा होने की उम्मीद है और छोटे क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में पद जायेगा|
इसके बावजूद लोकसभा और विधानसभा दोनों का
चुनाव एक साथ कराना निःसंदेह राष्ट्रीय हित में होगा। अब तक का अनुभव यही रहा है
कि सरकारें जातीय, सामुदायिक, धार्मिक, क्षेत्रीय समीकरणों को देखते हुए राष्ट्रीय हित में नीतियाँ बनाने और
उनके कार्यान्वयन से बचती रही हैं। हो सकता है नई व्यवस्था से निजात मिले | लेकिन
इसपर अमल करने से पूर्व संसद और संसद से बाहर गहन विचार विमर्श की जरुरत है |
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