काव्यांग-लक्षण विवेचन से मुक्तता
रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य की अभिव्यक्ति-पद्धति, साथ ही उनकी सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामंती पृष्ठभूमि, लगभग समान है। अंतर केवल इतना है कि रीतिबद्ध काव्य में काव्यांग-लक्षणों का स्पष्ट विवेचन किया जाता है और तत्पश्चात उन्हें स्पष्ट करने हेतु उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं; जबकि रीतिसिद्ध काव्य में इस प्रकार के लक्षण-निरूपण का अभाव होता है, परंतु काव्यांग-लक्षणों और काव्यशास्त्रीय नियमों का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया जाता है।
कुछ साहित्येतिहासकारों और आलोचकों ने इस आधार पर रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य के विभाजन को अनावश्यक माना है, क्योंकि दोनों में शास्त्रीय नियमों का पालन होता है। किंतु तथ्य यह है कि रीतिबद्ध काव्य में लक्षण विवेचन के बाद दिए गए उदाहरण उस लक्षण की शुद्ध अभिव्यक्ति के लिए बाध्य होते थे, जबकि रीतिसिद्ध कवि इस बौद्धिक बंधन से मुक्त थे। इसी कारण रीतिसिद्ध काव्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति की वह सहजता, ताजगी और स्वाभाविक प्रवाह मिलता है, जो रीतिबद्ध काव्य में प्रायः अनुपस्थित है।
बिहारी की सतसई रीतिसिद्ध काव्य का आदर्श उदाहरण है। उन्होंने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा, फिर भी उनके दोहों में काव्य-लक्षणों का अक्षरशः निर्वाह मिलता है—
अंग-अंग नग जगमगति दीपसिखा सी देह,
दिया बढ़ाये हूँ रहै, बड़ो उजेरो गेह। (उपमा, अत्युक्ति)
को घटी ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर,
अधर धरत हरि के परत ओठ दीठि पट जोति। (श्लेष)
इसी प्रकार मतिराम के यहाँ भी बिना किसी लक्षण-निरूपण के व्यंग्यार्थ का अद्भुत चमत्कार मिलता है—
जहाँ तहां रितुराज में, फूले किंशुक जाल,
मानहूँ मान मतंग के, अंकुश लोहू लाला। (उत्प्रेक्षा)
इन उदाहरणों में अलंकार स्पष्ट है, पर उसका लक्षणात्मक विश्लेषण नहीं किया गया है। यही लक्षण-निरूपण से मुक्तता रीतिसिद्ध कवियों को कल्पना के विस्तार और भाव-व्यंजना की स्वतंत्रता प्रदान करती है। फलस्वरूप, उनकी रचनाओं में नवीन और चमत्कारिक बिंब गढ़ने की क्षमता बनी रहती है, और उनकी अभिव्यक्ति तीखी, धारदार तथा प्रभावशाली हो जाती है।
श्रृंगारिकता
श्रृंगारिकता रीतिकालीन साहित्य की प्रमुख और जीवनदायिनी प्रवृत्ति है। यद्यपि इसका मूल आधार भक्तिकालीन कृष्ण-काव्य में निहित है, तथापि रीतिकाल के सामंती परिवेश ने इसे अधिक मुखरता, स्वतंत्रता और विशिष्ट रूप प्रदान किया। रीतिसिद्ध काव्य, रीतिबद्ध काव्य की भांति, काव्यशास्त्रीय नियमों में बँधा हुआ श्रृंगार-काव्य है। दरबारी संस्कृति, विलासप्रिय आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन और नैतिक बंधनों से अपेक्षाकृत मुक्त वातावरण ने इस प्रवृत्ति के विकास को बल दिया।
रीतिकालीन श्रृंगार में वियोग की अपेक्षा संयोग पर अधिक बल है, जिसके केंद्र में शारीरिक आकर्षण और भौतिक सुख की अनुभूति है। इस आकर्षण की अभिव्यक्ति रूप, भंगिमा, चेष्टा, तथा नायक-नायिका की विविध शारीरिक और मानसिक दशाओं के चित्रण के माध्यम से हुई। राधा-कृष्ण इस काव्य के प्रमुख आलंबन विभाव रहे, और आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट नायक-नायिका भेद तथा नख-शिख वर्णन इस प्रवृत्ति के अभिन्न अंग बने।
रीतिसिद्ध कवियों की विशेषता यह है कि वे श्रृंगार रस की प्रस्तुति में रसोद्दीपन परक चेष्टाओं का सजीव चित्र उकेरते हैं। वे नायक-नायिका की अंगिक और वाचिक चेष्टाओं के साथ-साथ उनकी आंतरिक मानसिक स्थितियों का भी चित्रण करते हैं। कभी-कभी वे संकेतों और सूक्ष्म व्यापारों द्वारा गहन अनुभूतियों को मूर्त रूप देते हैं—
"या अनुरागी चित्त की गति समुझै न कोय
ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग त्यों त्यों उज्जवल होय"
इस प्रकार की कविताओं में मादकता एक विशिष्ट गुण है। इसे बनाए रखने के लिए रीतिसिद्ध कवियों ने नायिकाओं के हाव-भाव, चेष्टाएँ, तथा ऋतुओं, बारहमासा, विहार, मद्यपान और क्रीड़ा आदि का विस्तृत चित्रण किया। बिहारी और मतिराम जैसे कवियों ने नायिका की सहज चेष्टाओं को ‘अनुभाव’ में बदलकर भावों को तीव्र बनाने की अद्वितीय कला प्रस्तुत की—
"बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
सौंह करै भौंहन हंसे, दैन कहै नटि जाय" — बिहारी
"श्रमजल कण झलकन लगे, अलकनि कलित कपोल
पलकनि रस छलकनि लगे, ललकन लोचन लोल" — मतिराम
रीतिसिद्ध श्रृंगार का एक पहलू यह भी है कि इसमें नारी की छवि सामंती दृष्टिकोण से निर्मित है—उसे प्रायः भोग्या रूप में चित्रित किया गया है, न कि पुरुष की अर्धांगिनी या स्वतंत्र चेतन इकाई के रूप में। परिणामस्वरूप, नारी के रूप और गुणों की अपेक्षा उसके शारीरिक गठन पर अधिक बल है।
इस प्रवृत्ति में विलासिता की प्रधानता के कारण प्रेम में एकनिष्ठता की जगह बहुअभिमुखता को स्थान मिला, जिससे प्रेम की उन्मुक्तता रसिकता के रूप में प्रकट हुई। फिर भी, रीतिसिद्ध श्रृंगार अंततः गार्हस्थ्य जीवन से जुड़ा है; अतः परकीया रूप की प्रधानता के बावजूद स्वकीया का सम्मान पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ और कुल-शील की छाया कहीं न कहीं विद्यमान रही।
प्रशस्ति गान की प्रवृत्ति
रीतिसिद्ध रचनाओं में कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा करना एक प्रमुख वर्ण्य विषय रहा है। यह प्रवृत्ति रीतिकाल की देन मात्र नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें आदि काल तक जाती हैं, जब चारण और भाट अपने संरक्षकों के वैभव और वीरता का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करते थे। भक्तिकाल में यह धारा कुछ समय के लिए मंद पड़ गई थी, किंतु रीतिकाल में भक्ति के क्षीण होते ही, श्रृंगार के साथ मिलकर प्रशस्ति गान पुनः मुख्य धारा में आ गया।
रीतिसिद्ध काव्य में प्रशस्ति गान को मुख्यतः तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –
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आश्रयदाता की वीरता
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राजसी वैभव
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राजविलास
1. आश्रयदाता की वीरता
कवि अपने आश्रयदाता और उनके पूर्वजों के पराक्रम का विस्तार से वर्णन करते हैं—उनके अद्वितीय साहस, अपार बल, शत्रुओं को परास्त करने की क्षमता और शत्रु पक्ष की दुर्बलता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है। युद्धभूमि के दृश्यों में सेना के साज-सामान, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की टापों से उड़ती धूल, तलवार-बर्छियों की चमक और वाण-वर्षा के प्रभाव का अतिरंजित चित्रण मिलता है। कहीं-कहीं तो शत्रु के भय से उनकी स्त्रियों की व्याकुल अवस्था का भी उल्लेख किया गया है। भूषण की शिवा बावनी इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें उन्होंने शिवाजी के साहस और उनकी सेना के पराक्रम को सजीव कर दिया है।
वीरता के चार रूप—दान, धर्म, दया और युद्ध—माने गए हैं। रीतिसिद्ध कवियों ने पराक्रम के साथ दानवीरता, क्षमाशीलता और धर्मनिष्ठा का भी विशेष रूप से चित्रण किया। दानशीलता में स्वर्ण-रत्न, आभूषण, हाथी-घोड़े आदि के भव्य उपहारों का वर्णन किया जाता था, ताकि आश्रयदाता की उदारता उजागर हो सके। धर्मवीरता में उनके धर्मपालन, शास्त्रज्ञान और धर्मरक्षा के लिए समर्पण का चित्रण होता था।
2. राजसी वैभव
कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के महलों, राजदरबार, बाग-बगीचों, सरोवरों और विलासपूर्ण जीवन का मनोहारी वर्णन किया। राजमहलों की भव्यता, राजवस्त्रों की शोभा, संपत्ति की प्रचुरता और राज्य की विशालता को बड़े मनोयोग से प्रस्तुत किया गया।
3. राजविलास
दरबार में होने वाले विविध मनोरंजन—जलक्रीड़ा, शतरंज, चौसर, पतंगबाजी, गजफा का खेल—तथा होली, वसंत आदि पर्वों के उत्सवों का भी यथासमय चित्रण किया गया। इन विवरणों में केवल यथार्थ ही नहीं, बल्कि कल्पना और अलंकार का भी भरपूर उपयोग हुआ, जिससे प्रशस्ति गान में भव्यता और रोचकता बढ़ जाती है।
संक्षेप में, रीतिसिद्ध काव्य में प्रशस्ति गान न केवल आश्रयदाता के पराक्रम और वैभव का बखान है, बल्कि यह उस काल की दरबारी संस्कृति, विलासप्रियता और कवियों की आश्रित प्रवृत्ति का दर्पण भी है।
प्रकृति
रीतिकालीन काव्यों में प्रकृति को श्रृंगारिकता का अनिवार्य उद्दीपक माना गया है। हालांकि आलोचक और सहृदय जिस प्रकार के विस्तृत, विहंगम और भावपूर्ण प्राकृतिक चित्रों की कल्पना करते हैं, उस स्तर का व्यापक प्रकृति-वर्णन रीतिसिद्ध कवियों में प्रायः नहीं मिलता—बिहारी को छोड़कर।
रीतिसिद्ध कवियों के प्रकृति चित्रण में चांदनी रातें, नदी और सरोवर के तट, उपवन, हरे-भरे खेत, पक्षियों का कलरव, षटऋतुओं और बारहमास के रंगीन दृश्य प्रमुख हैं। ये सभी दृश्य कामोद्दीपक और मधुर वातावरण के सृजन में सहायक हैं। किंतु इस युग में प्रकृति-चित्रण स्वतंत्र प्रवृत्ति के रूप में नहीं, बल्कि श्रृंगार के सहायक रूप में ही विकसित हुआ।
नीति
रीतिकाल की नीतिपरक रचनाएँ उसकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती हैं। इनका बीज संस्कृत साहित्य की प्राचीन और समृद्ध परंपरा में निहित है, जो आदिकाल और भक्तिकाल से गुजरते हुए रीतिकाल में अधिक परिपक्व और लोकप्रिय हुई।
भक्तिकाल और रीतिकालीन नीति में प्रमुख अंतर यह है कि भक्तिकाल में नीति आध्यात्मिकता का अंग बनकर आई, जबकि रीतिसिद्ध काव्य में यह दैनिक और भौतिक जीवन की समस्याओं के समाधान के रूप में, उपदेशात्मक शैली में प्रस्तुत हुई। इस कारण यहाँ नीति से आध्यात्मिक स्पर्श समाप्त हो गया और इसमें विविधता आ गई, क्योंकि यह रचनाकारों के निजी, दीर्घ और मिश्रित जीवनानुभवों पर आधारित थी।
इन रचनाओं में मानव स्वभाव का यथार्थ चित्रण भी हुआ। जैसे बिहारी ने नीच प्रवृत्ति के व्यक्तियों की अपरिवर्तनशील प्रकृति को इस प्रकार व्यक्त किया—
कोटि जतन कोअ करौ, क्यों न बढ़े दुःख दंदु
अधिक अंधेरों जग करत, मिली मावस रवि चंदु
बिहारी के अलावा वृंद, घाघ, गिरिधर कविराय आदि ने भी नीतिपरक रचनाएँ कीं। वृंद ने बिहारी की सतसई के अनुकरण पर नीति सतसई की रचना की, जिसे वृंद सतसई भी कहा जाता है। उन्होंने मानव व्यवहार की उपयुक्तता को इस प्रकार व्यक्त किया—
फीकी पै नीकी लगै, कहिए समय विचारि
सबको मन हर्षित करै ज्यों विवाह में गारि
इसी प्रकार, गिरिधर कविराय ने स्वार्थपूर्ण व्यवहार का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया—
साईं सब संसार में मतलब का व्यवहार
जब लगि पैसा गांठ में तब लनि ताको चार
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यहाँ नीति को नीरस या उपदेशात्मक रूप में नहीं, बल्कि मानवीय जीवन के ठोस और व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया।
भक्ति
भक्तिकाल में जो भक्ति-भावना कवियों के सहज और स्वाभाविक भावोद्रेक का अनिवार्य अंग थी, वह रीतिकाल में गौण हो गई। फिर भी विषय-वस्तु और अभिव्यक्ति-शैली के स्तर पर रीतिकाल में भक्तिकाल का अनुकरण स्पष्ट दिखता है। इस युग में भक्ति-प्रधान रचनाएँ सामान्यतः तभी लिखी जाती थीं, जब कवि अपने ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए गणेश, सरस्वती आदि देवी-देवताओं की स्तुति करता था, या कभी-कभी निजी भक्ति-भावना से प्रेरित होकर स्वतंत्र भक्ति-ग्रंथ की रचना करता था।
रीतिसिद्ध कवि बिहारी ने अपनी सतसई का प्रारंभ मंगलाचरण से किया—
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय
जा तन की झांई परै, स्याम हरित दुति होय।
रीतिसिद्ध काव्य में राधा और कृष्ण का बार-बार उल्लेख मिलता है, किंतु यह मानना उचित नहीं कि रचनाकार वास्तव में भक्त कवि थे, क्योंकि उनकी मूल प्रेरणा भक्ति नहीं थी। राधा-कृष्ण की श्रृंगारी भक्ति इतनी लोकप्रिय हुई कि नायिका-भेद का आकर्षण बढ़ गया। स्तुतिपरक छंदों में प्रायः पंचदेव—गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य—के प्रति भक्ति-भाव व्यक्त किया गया, जिनके वाहनों और वरदायक शक्तियों का भी चित्रण हुआ।
विष्णु की स्तुतियों में उनके शंख-चक्र-गदा-धारी, क्षीरसागर-शायी रूप के साथ राम और कृष्ण अवतार की लीलाओं का सामान्य वर्णन मिलता है। सामंती प्रभाव का असर कृष्ण-भक्ति पर भी पड़ा, जिससे आडंबरों को बढ़ावा मिला। इस पर विरोध भी हुआ और निष्कपट हृदय को भक्ति का मूल माना गया—
काहे को बाघम्बर को ओढ़ी करौ आडम्बर
काहे को दिगंबर ह्वै दूब खाइ रहिये
कहै ‘पद्माकर’ त्यों काय के कलेस हित
सीकर सभीत सीत बात ताप सहिये।
कुछ रचनाओं में आत्मा-परमात्मा, जीव, जगत, माया, ज्ञान और साधना जैसे तत्व-चिंतन संबंधी विषयों का उल्लेख भी हुआ, पर इनमें भावोत्कर्ष और मौलिकता का अभाव रहा। साथ ही, इस प्रकार की रचनाओं की संख्या भी सीमित रही।
अन्य विषय
मैनेजर पांडेय के अनुसार, रीतिकाल की रचनाएँ अपने समय और समाज की चिंताओं से जुड़ी थीं। उनमें परलोकवाद का अभाव था। जो कवि परलोकवादी थे, उनके बारे में भी रीतिकाल के कवि व्यंग्यपूर्वक कहते थे—“राधा-कन्हाई सुमिरन को बहानो है,” अर्थात असल भक्ति नहीं, बल्कि किसी स्त्री-पुरुष के प्रसंग को कहने का बहाना है।
हालाँकि इस तरह की रचनाएँ संख्या में बहुत कम हैं, किंतु रीतिसिद्ध काव्य में कभी-कभी गुप्त संदेश देना, कंजूस, ढोंगी या मतिभ्रष्ट व्यक्तियों के स्वभाव और आचरण का वर्णन भी मिलता है। इससे वीर, हास्य, रौद्र और करुण रसों की रचना होती है।
बिहारी को ज्योतिष, चिकित्सा, गणित आदि का ज्ञान था। उन्होंने गृहस्थ जीवन, लोक-व्यवहार और साधारण आचार को सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया। घाघ कवि की कहावतें कृषि-ज्ञान और मौसम की जानकारी का अद्भुत भंडार हैं—
उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।
खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो संग रहा।
गिरिधर कविराय की कुण्डलियाँ उनकी लोकजीवन से गहरी जुड़ाव का प्रमाण हैं—
साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज।
इस प्रकार, यह कहना उचित होगा कि रीतिसिद्ध रचनाओं में शास्त्रीय परंपरा और लोकजीवन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
शिल्पगत विशेषताएँ
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य दोनों का सांस्कृतिक, काव्यशास्त्रीय संस्कार और दरबारी परिवेश समान है। अंतर केवल काव्यांग लक्षण विवेचन के संदर्भ में है। रीतिबद्ध रचनाएँ काव्यशास्त्रीय नियमों में इस तरह बँधी थीं कि कल्पना के लिए अधिक अवकाश नहीं बचता था, परिणामस्वरूप उनमें जड़ता और एकरूपता का भाव आ जाता था। इसके विपरीत, रीतिसिद्ध रचनाएँ काव्यशास्त्रीय संस्कारों से युक्त होते हुए भी कल्पना की उड़ान के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती थीं, जिससे उनमें ताजगी और सरसता बनी रहती थी।
कुछ रीतिबद्ध कवि भी, काव्यांग लक्षण विवेचन करते हुए, कभी-कभी कल्पना के पंख फैलाने में सफल हुए, जहाँ रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्य का शिल्पगत अंतर लगभग समाप्त हो जाता है। फिर भी, रीतिसिद्ध कवियों में बिहारी और उनकी “सतसई” को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्होंने मुक्तक काव्य रूप को अपनाकर उसे अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से ऐसी ऊँचाई दी कि उनके अनुकरण में सतसई रचने की परंपरा आरंभ हो गई।
मुक्तक में प्रबंध काव्य की तरह रस का सतत प्रवाह नहीं होता, लेकिन यह सहृदय पाठक के मन पर गहरे प्रभाव डालता है। रीतिसिद्ध काव्य के मुक्तकों का महत्त्व इस कारण भी बढ़ जाता है कि ये सामंती समाज की विकृतियों को उजागर करने में प्रभावी सिद्ध हुए। इनका रचना-विधान काव्यशास्त्रीय अनुशासन से युक्त था और इन पर प्राकृत-अपभ्रंश की दोहा परंपरा के साथ-साथ फारसी-उर्दू की शेर परंपरा का भी प्रभाव दिखाई देता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुक्तक को “चुना हुआ गुलदस्ता” कहा है।
रीतिबद्ध काव्य में जहाँ श्रृंगार के लिए प्रायः सवैया छंद चुना गया, वहीं बिहारी ने मुक्तक रचना के लिए केवल दोहा को अपनाया। दोहे में अल्प शब्दों में गहन भाव व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता होती है—
“सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर
देखन को छोटन लगे, घाव करे गंभीर।”
बिहारी के बाद मतिराम, वृंद, भूपति आदि ने भी सतसई रचते समय दोहा छंद को ही आधार बनाया। हालाँकि भूषण, रसनिधि, तोष और पद्माकर ने मुक्तक काव्य में सवैया, छप्पय, कवित्त और घनाक्षरी छंदों का प्रयोग भी किया।
लक्षण-निरूपण से स्वतंत्र रहने और केवल उदाहरण प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता के कारण रीतिसिद्ध कवि उक्ति-वैचित्र्य में श्रेष्ठ सिद्ध हुए। प्रेम और श्रृंगार का वर्णन भी इनके यहाँ अनुभूतिपरक और सजीव है। अत्युक्ति प्रयोग में भी रीतिसिद्ध कवि अपने समकालीन रीतिबद्ध कवियों की तुलना में विशेष स्थान रखते हैं, जैसे बिहारी का यह पद—
“पत्रा ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास,
नित प्रति पून्यो ही रहे आनन ओप उजास।”
उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य दोनों का सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और काव्यशास्त्रीय आधार समान है। इनके वर्ण्य विषय और अभिव्यक्ति शैली भी लगभग एक जैसी है। अंतर केवल इतना है कि रीतिबद्ध काव्य में काव्यांग लक्षण और उनके उदाहरण प्रमुख होते थे, जबकि रीतिसिद्ध काव्य में कविता स्वयं प्राथमिक होती थी, भले ही वह शास्त्रीय अनुशासन में बँधी हो।
रीतिसिद्ध काव्य में कल्पना का पूर्ण विकास, अनुभूति की सहजता, ताजगी और भावुकता मिलती है, जबकि रीतिबद्ध काव्य में नियमबद्धता के कारण बौद्धिकता और शुष्कता अधिक पाई जाती है। दोनों में श्रृंगारिकता प्रमुख प्रवृत्ति रही, जिसमें नारी-पुरुष संबंधों की सामंती और भोगवादी प्रवृत्ति का चित्रण हुआ।
प्रशस्ति गान की प्रवृत्ति के अंतर्गत आश्रयदाताओं के शौर्य, पराक्रम, दानशीलता और धर्मनिष्ठा के साथ शत्रुओं की कायरता का भी वर्णन हुआ। गौण प्रवृत्तियों में नीतिपरक रचनाएँ विशेष महत्त्व रखती हैं, जिनमें जीवन के विविध अनुभवों और व्यवहारों का चित्रण हुआ, अधिकतर दोहा छंद में।
भक्ति प्रवृत्ति में कवियों ने अपनी व्यक्तिगत आस्था के अनुसार विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति की, जो कभी-कभी उनके लिए सामाजिक कवच का भी कार्य करती थी।