Wednesday, 13 August 2025

हिंदी आलोचना पर प्लेटो का प्रभाव

प्लेटो (427–347 ई.पू.) पाश्चात्य दर्शन के महानतम आदर्शवादी विचारकों में से एक माने जाते हैं। वे सुकरात के शिष्य और अरस्तू के गुरु थे। उनकी दार्शनिक दृष्टि का केंद्र आदर्श राज्य, न्याय, नैतिकता और लोकमंगल की अवधारणा थी। प्लेटो ने साहित्य और कला को केवल आनंद अथवा सौंदर्य की वस्तु मानने के बजाय, समाज-निर्माण और नैतिक उत्थान का साधन माना। इस दृष्टि से उनका दृष्टिकोण भारतीय साहित्यिक चिंतन, विशेषकर लोकमंगलवाद से अत्यंत निकट है।

प्लेटो का काव्य-दर्शन और लोकमंगल सिद्धांत

प्लेटो के अनुसार साहित्य का प्रमुख उद्देश्य केवल सौंदर्य-बोध कराना नहीं है, बल्कि वह समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि—

"कला और साहित्य की कसौटी 'आनंद' या 'सौंदर्य' नहीं, बल्कि 'उपयोगिता' है।"

उनके मत में, काव्य का प्रयोजन मानव-स्वभाव में जो महान, शुभ, नैतिक और न्यायपरायण है, उसका उद्घाटन करना है। यह उद्घाटन न केवल व्यक्तिगत चरित्र-निर्माण में सहायक हो, बल्कि राष्ट्रोत्थान और मानव कल्याण का भी साधन बने।
प्लेटो के इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए उनका प्रसिद्ध उदाहरण उल्लेखनीय है—

"चमचमाती हुई स्वर्णजटित अनुपयोगी ढाल से गोबर की उपयोगी टोकरी अधिक सुंदर है।"
अर्थात्, जो वस्तु समाज के लिए उपयोगी है, वही वास्तव में सुंदर है।

प्लेटो की दो प्रमुख स्थापनाएँ

प्लेटो के काव्य-दर्शन की नींव दो महत्त्वपूर्ण स्थापनाओं पर आधारित है—

  1. कला प्रकृति की अनुकृति है

    • प्लेटो ने कला को "अनुकरण" (Imitation) की प्रक्रिया माना।

    • उनके अनुसार अनुकरण वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में नहीं, बल्कि आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है।

    • चूँकि यह जगत स्वयं "आदर्श जगत" (World of Ideas) की प्रतिलिपि है, अतः कला (जो जगत का अनुकरण है) सत्य से तीन गुना दूर होती है।

    • उदाहरणस्वरूप, बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियाँ प्रायः कल्पित होती हैं, अतः वे वास्तविक सत्य का अनुकरण नहीं कर पातीं।

  2. काव्य हमारी भावनाओं को उद्वेलित करता है

    • प्लेटो का मानना था कि कवि और कलाकार अपनी रचनाओं से भावनाओं और वासनाओं को उत्तेजित कर सकते हैं।

    • यदि यह उत्तेजना अनैतिक या विवेकहीन हो, तो समाज में दुर्बलता, अनाचार और अव्यवस्था फैल सकती है।

काव्य-वस्तु पर प्लेटो की आपत्तियाँ

प्लेटो ने काव्य की विषय-वस्तु पर गंभीर आपत्तियाँ उठाईं—

  • कवि को सद्गुणों और नैतिक मूल्यों पर आधारित विषयों का चयन करना चाहिए।

  • ऐसे साहित्य का निषेध होना चाहिए, जो असत्य, असंगत, अनैतिक या मानसिक रूप से हानिकारक हो।

  • उन्होंने विशेष रूप से वीर पुरुषों के गुणों और देवताओं के स्तोत्रों को काव्य में स्थान देने की अनुशंसा की।

आदर्श काव्य-कृति की कसौटी

प्लेटो के अनुसार एक उत्तम काव्य-कृति के निर्माण के लिए—

  1. कवि को अपने विषय का पूर्ण और स्पष्ट बोध होना चाहिए।

  2. कृति के समस्त अंगों का विन्यास निश्चित क्रम और पूर्ण संगति के साथ होना चाहिए।

  3. रचना में नैतिक उत्थान, लोकमंगल, और ज्ञान-वृद्धि का उद्देश्य निहित होना चाहिए।

 हिंदी आलोचना पर प्रभाव

प्लेटो का यह दृष्टिकोण हिंदी आलोचना में प्रत्यक्षतः लोकमंगलवादी साहित्य की धारणा में देखा जा सकता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाद के आलोचकों ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर समाज-सुधार और राष्ट्रोत्थान का उपकरण माना। प्लेटो की उपयोगिता-केंद्रित सौंदर्य दृष्टि ने हिंदी आलोचना को नैतिकता और लोकहित के आदर्शों से जोड़े रखा, जिससे वह केवल कलात्मक विमर्श तक सीमित न रहकर सामाजिक चेतना का वाहक बनी।

इस प्रकार प्लेटो ने साहित्य को केवल सौंदर्य और आनंद का माध्यम न मानकर, उसे नैतिक और सामाजिक दायित्व से जोड़ा। उनका यह दृष्टिकोण न केवल पाश्चात्य साहित्यिक आलोचना में, बल्कि हिंदी आलोचना में भी गहरे तक रचा-बसा है। उनकी आदर्शवादी विचारधारा ने हिंदी साहित्य में लोकमंगल, नैतिकता और उपयोगिता को केंद्र में रखने की परंपरा को प्रेरित किया।

 

हिंदी आलोचना पर पाश्चात्य प्रभाव

वर्तमान समय में हिंदी आलोचना के स्वरूप के निर्माण में पाश्चात्य प्रभाव की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस प्रभाव का प्रारंभ भारतेंदु युग के ‘नाटक’ संबंधी विचारों से हो जाता है, किंतु इसे व्यवस्थित रूप देने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जाता है, जिन्होंने पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन को साधिकार अपनाया। यद्यपि उनका आलोचनात्मक आधार मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र रहा, जिसके केंद्र में कविता ही थी, तथापि पाश्चात्य साहित्य में भी काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र के समानांतर सिद्धांत मौजूद थे।

पश्चिम में सृजन, सौंदर्य और विचार के क्षेत्र में हुए विविध कलात्मक एवं बौद्धिक आंदोलनों ने वहां की साहित्यिक आलोचना को निरंतर परिवर्तित किया, जिसका प्रभाव हिंदी आलोचना पर भी पड़ा। इस संदर्भ में प्लेटो, अरस्तू, लोंजाइनस, क्रोचे, टी.एस. एलियट, वर्ड्सवर्थ, तथा अस्तित्ववादी चिंतकों सार्त्र और कामू के विचार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का केंद्र यूनान था और पाश्चात्य साहित्यिक चिंतन का मूल स्रोत प्लेटो माने जाते हैं। प्लेटो से प्रारंभ होकर यह धारा यूनान, रोम और मध्यकालीन यूरोप से होते हुए आधुनिक यूरोपीय भाषाओं तक पहुंची। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने अपने गुरु के कई सिद्धांतों का खंडन करते हुए उनके तार्किक समाधान प्रस्तुत किए। यूनान के एक अन्य महत्त्वपूर्ण चिंतक लोंजाइनस ने काव्य में औदात्य के सिद्धांत को स्थापित किया, जिससे पश्चिम में स्वच्छंदतावाद और सौंदर्यवाद को नया आयाम मिला।

उन्नीसवीं शताब्दी में वर्ड्सवर्थ के विचारों ने स्वच्छंदतावादी काव्य-प्रतिमानों को दृढ़ आधार प्रदान किया। वहीं बीसवीं शताब्दी में, विश्व-युद्धोत्तर परिस्थितियों में, अस्तित्ववादी चिंतन ने साहित्यिक प्रतिमानों और मूल्यों को व्यापक रूप से प्रभावित किया। हिंदी आलोचना ने इन पाश्चात्य साहित्यिक अवधारणाओं से निरंतर संवाद किया और अपने स्वरूप का विस्तार किया।

हिंदी आलोचना पर पाश्चात्य प्रभाव : प्रमुख प्रवृत्तियाँ

हिंदी आलोचना के विकास में पाश्चात्य प्रभाव की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। इस प्रभाव के कारण हिंदी आलोचना का स्वरूप अधिक वस्तुपरक, विवेचनात्मक और विचार-समृद्ध हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पाश्चात्य आलोचनात्मक दृष्टियों को अपनाते हुए परंपरागत साहित्यशास्त्र को एक नए ढाँचे में प्रस्तुत किया। उन्होंने ‘आनंद की साधनावस्था’ की तुलना डंटन द्वारा परिभाषित ‘शक्ति-काव्य’ से की। उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चलते हुए बाबू गुलाब राय, नंद दुलारे वाजपेयी और डॉ. नगेंद्र ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र को समीप लाने का संगठित एवं सराहनीय प्रयास किया।

हिंदी आलोचना का पाश्चात्य प्रभाव चार प्रमुख आलोचनात्मक अवधारणाओं में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है—

1. स्वच्छंदतावादी आलोचना

  • यह प्रवृत्ति सर्वप्रथम हिंदी आलोचना को प्रभावित करने वाली पाश्चात्य धारा है।

  • आचार्य शुक्ल को भी कुछ आधारों पर स्वच्छंदतावादी माना जाता है।

  • इस दृष्टि ने छायावादी साहित्य के मूल्यांकन और विश्लेषण के लिए नई बौद्धिक रूपरेखा प्रदान की।

  • नंद दुलारे वाजपेयी ने हिंदी आलोचना में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों को सशक्त रूप से विकसित किया।

2. मार्क्सवादी आलोचना

  • मार्क्सवादी दृष्टिकोण ने साहित्य के सामाजिक संदर्भों और यथार्थ की पहचान पर बल दिया।

  • इस धारा के प्रमुख संवाहक रहे — प्रकाशचंद्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, और नामवर सिंह

  • इस दृष्टि ने साहित्य को वर्ग-संघर्ष, उत्पादन संबंधों और ऐतिहासिक भौतिकवाद के आलोक में परखने की दिशा दी।

3. मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक आलोचना

  • इस दृष्टिकोण के अंतर्गत लेखक के अंतर्मन, उसकी सृजन-प्रक्रिया और अवचेतन मन की पड़ताल की जाती है।

  • हिंदी में अज्ञेय पर आधुनिक मनोविज्ञान और टी.एस. एलियट का गहरा प्रभाव देखा जाता है।

  • डॉ. नगेंद्र पाश्चात्य अवधारणाओं के प्रति अत्यधिक आग्रहशील रहे; वे फ्रायड के विचारों से प्रभावित होते हुए भी मूलतः रसवादी दृष्टिकोण के समर्थक रहे।

  • डॉ. देवराज ने विशेष रूप से कथाकारों के अंतर्मन के स्वरूप के अन्वेषण पर बल दिया।

4. अस्तित्ववादी आलोचना

  • द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में अस्तित्ववाद का प्रभाव विश्व साहित्य के साथ हिंदी आलोचना में भी दृष्टिगोचर हुआ।

  • इस दृष्टि ने व्यक्ति की स्वतंत्रता, विकल्प, दायित्व और अस्तित्वगत संकट पर विमर्श को केंद्र में रखा।

  • स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना में आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद जैसी अनेक पाश्चात्य अवधारणाओं का समावेश हुआ, जिससे आलोचना की बौद्धिक सीमा का व्यापक विस्तार हुआ।

पाश्चात्य प्रभाव ने हिंदी आलोचना को पारंपरिक संस्कृत काव्यशास्त्र की सीमाओं से निकालकर एक बहुआयामी, विज्ञानसम्मत और वैश्विक दृष्टि संपन्न स्वरूप प्रदान किया। इससे न केवल आलोचना में विश्लेषणात्मक गहराई आई, बल्कि साहित्य को सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक संदर्भों में परखने की नई दृष्टियाँ भी विकसित हुईं।

Tuesday, 12 August 2025

स्वच्छंदतावाद

 स्वच्छंदतावाद साहित्यिक और कलात्मक अभिव्यक्ति की वह प्रवृत्ति है, जिसमें रचनाकार किसी भी पूर्व निर्धारित वाद, विचारधारा या सिद्धांत की बंधन-रेखाओं से मुक्त होकर अपनी व्यक्तिगत दृष्टि, अनुभव और कल्पनाशक्ति के आधार पर रचना करता है। इसका मूल आधार रचनाकार की पूर्ण मानसिक स्वतंत्रता है—जहाँ वह सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मान्यताओं की कठोर मर्यादाओं से ऊपर उठकर अपने अंतःकरण की पुकार को स्वर देता है।

पाश्चात्य साहित्य में इसका समानांतर रूप ‘रोमांटिसिज्म’ (Romanticism) के रूप में देखा जाता है। रोमांटिसिज्म अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप में एक व्यापक कलात्मक एवं साहित्यिक आंदोलन के रूप में उभरा। यह आंदोलन विशेष रूप से क्लासिसिज्म’ (Classicism) अथवा ‘अभिजात्यवाद’ (Aristocratism) की रूढ़, कृत्रिम और निर्जीव कलात्मक परंपराओं की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित हुआ।
क्लासिसिज्म में नियमबद्धता, आदर्शरूप, और शास्त्रीय अनुशासन को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था, जिसके कारण रचना में भावनात्मक जीवन्तता और नवीनता का अभाव हो गया था। इसी जड़ता के विरुद्ध रोमांटिसिज्म ने मानवीय संवेदनाओं, व्यक्तिगत अनुभवों, प्रकृति-प्रेम और मुक्त कल्पना को महत्व देकर रचनात्मकता में एक नई चेतना और ऊर्जा का संचार किया।

साहित्य और कलाओं के प्रति ‘स्वच्छंदतावादी’ दृष्टिकोण के पीछे एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक राजनीतिक घटना फ़्रांस की महान क्रांति (French Revolution) रही। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई इस क्रांति ने न केवल राजनीतिक परिदृश्य को बदला, बल्कि यूरोप के सांस्कृतिक और साहित्यिक चिंतन पर भी गहरा प्रभाव डाला। इस क्रांति में दार्शनिक ज्यां जाक रूसो (Jean-Jacques Rousseau) ने “स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” का नारा देकर व्यक्ति की स्वाधीनता और मानवीय गरिमा के अधिकार की जोरदार वकालत की। यह मूलतः बंधनों से मुक्ति और जड़ संस्थागत व्यवस्थाओं के विरुद्ध जन-आन्दोलन था, जिसने रचनाकारों और कलाकारों को मानसिक तथा सृजनात्मक स्वतंत्रता के नए क्षितिज प्रदान किए।

इसी कारण स्वच्छंदतावाद किसी एक तयशुदा साँचे या कठोर नियमों में सीमित नहीं रहा; वह विविध रूपों और शैलियों में अभिव्यक्त हुआ। इस प्रवृत्ति की कलात्मक विशेषताएँ अंग्रेज़ी कविता में वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीट्स और बायरन जैसे कवियों के कार्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।

विशेष रूप से विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को “प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन” (spontaneous overflow of powerful feelings) कहा, और इस प्रकार भाव-प्रधानता तथा अंतःकरण की सच्ची अभिव्यक्ति को साहित्य का मूल माना। उनके अनुसार यह भावोच्छलन अराजक या अनुशासनहीन नहीं होता; बल्कि इसके पीछे एक गहरी सूक्ष्म संवेदनशीलता का आग्रह होता है, जो कल्पना के साथ मिलकर रचनाकार की आंतरिक अनुभूतियों को ईमानदारी और निष्ठा से उद्घाटित करता है।

इस प्रकार, फ़्रांस की क्रांति ने जिस स्वतंत्रता की चेतना को जन्म दिया, उसी ने साहित्य और कलाओं में स्वच्छंदतावाद के रूप में एक ऐसी धारा को प्रवाहित किया, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र सोच, गहन संवेदनशीलता और मौलिक कल्पना को सर्वाधिक महत्व मिला।

भाव-प्रवणता के प्रभाव से स्वच्छंदतावादी आलोचना में वैयक्तिकता, आत्म-सृजन, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को स्वतंत्र एवं महत्वपूर्ण साहित्यिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया। इस दृष्टिकोण में रचनाकार के अंतर-जगत को समझना, उसकी सृजन-प्रक्रिया का मूल आधार माना गया। कॉलरिज ने कवि-कल्पना के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित करते हुए इसे सृजनकारिणी “आदि शक्ति” और मस्तिष्क की सबसे प्राणवान क्रिया की संज्ञा दी। इसलिए स्वच्छंदतावादी आलोचक मानते थे कि किसी भी रचना की व्याख्या के लिए रचनाकार की अंतर्वृत्तियों, निजी अनुभूतियों और मानसिक प्रवृत्तियों का अध्ययन अनिवार्य है।

स्वच्छंदतावाद की एक और मूलभूत विशेषता थी—जड़ता, कृत्रिमता, रूढ़ियों और अप्रासंगिक हो चुकी साहित्यिक परंपराओं के विरुद्ध विद्रोह। विषय-वस्तु के स्तर पर इन आलोचकों ने परंपरागत रूप से महिमामंडित उदात्त चरित्रों और असाधारण घटनाओं की कथाओं के स्थान पर साधारण मानव के सामान्य अनुभवों, सांस्कृतिक मूल्यों और अपने परिवेश को महत्व दिया। उनके लिए साहित्य का सौंदर्य जीवन के सहज और सजीव अनुभवों में निहित था।

शैली और शिल्प के स्तर पर उन्होंने प्रयोगशीलता और वैविध्यता को रचनात्मक स्वतंत्रता का प्रतीक माना—जो अभिजात्यवादी अनुशासन में संभव नहीं थी। भाषा के स्तर पर उन्होंने सूक्ष्म अर्थच्छायाओं को उभारने और भाव-संप्रेषण को प्रभावी बनाने के लिए सहज, स्वाभाविक और जनजीवन से जुड़ी भाषा के प्रयोग को आवश्यक माना।

स्वच्छंदतावादी आलोचना का दृष्टिकोण पूरी तरह रसवादी था, लेकिन उसमें वे रस को केवल सौंदर्य या भावोच्छलन तक सीमित नहीं रखते थे; बल्कि उसमें मानवतावादी यथार्थ को भी विशेष महत्व देते थे। उनकी सौंदर्य चेतना का मूल आधार था—प्रकृति के विविध रूपों में विद्यमान उन्मुक्त सौंदर्य के प्रति सहज आकर्षण और संवेदनशीलता।

हालाँकि, स्वच्छंदतावाद की लोकप्रियता और व्यापकता के वही कारक अंततः उसके अवसान का कारण भी बने। वैयक्तिकता और आत्मपरकता के अत्यधिक आग्रह ने कई रचनाकारों को विशुद्ध रूप से आत्मकेंद्रित बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप वे बाह्य जीवन, समाज और परिवेश के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होते गए। हिंदी साहित्य में भी छायावादी आंदोलन, जो स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों का प्रमुख प्रतिनिधि था, “नाना अर्थभूमियों के संकोच” के कारण अपेक्षाकृत अल्पकालिक सिद्ध हुआ और अपने उत्कर्ष के कुछ ही वर्षों बाद मद्धिम पड़ गया।

Monday, 11 August 2025

रीतिसिद्ध काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

काव्यांग-लक्षण विवेचन से मुक्तता

रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य की अभिव्यक्ति-पद्धति, साथ ही उनकी सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामंती पृष्ठभूमि, लगभग समान है। अंतर केवल इतना है कि रीतिबद्ध काव्य में काव्यांग-लक्षणों का स्पष्ट विवेचन किया जाता है और तत्पश्चात उन्हें स्पष्ट करने हेतु उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं; जबकि रीतिसिद्ध काव्य में इस प्रकार के लक्षण-निरूपण का अभाव होता है, परंतु काव्यांग-लक्षणों और काव्यशास्त्रीय नियमों का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया जाता है।

कुछ साहित्येतिहासकारों और आलोचकों ने इस आधार पर रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य के विभाजन को अनावश्यक माना है, क्योंकि दोनों में शास्त्रीय नियमों का पालन होता है। किंतु तथ्य यह है कि रीतिबद्ध काव्य में लक्षण विवेचन के बाद दिए गए उदाहरण उस लक्षण की शुद्ध अभिव्यक्ति के लिए बाध्य होते थे, जबकि रीतिसिद्ध कवि इस बौद्धिक बंधन से मुक्त थे। इसी कारण रीतिसिद्ध काव्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति की वह सहजता, ताजगी और स्वाभाविक प्रवाह मिलता है, जो रीतिबद्ध काव्य में प्रायः अनुपस्थित है।

बिहारी की सतसई रीतिसिद्ध काव्य का आदर्श उदाहरण है। उन्होंने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा, फिर भी उनके दोहों में काव्य-लक्षणों का अक्षरशः निर्वाह मिलता है—

अंग-अंग नग जगमगति दीपसिखा सी देह,
दिया बढ़ाये हूँ रहै, बड़ो उजेरो गेह। (उपमा, अत्युक्ति)

को घटी ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर,
अधर धरत हरि के परत ओठ दीठि पट जोति। (श्लेष)

इसी प्रकार मतिराम के यहाँ भी बिना किसी लक्षण-निरूपण के व्यंग्यार्थ का अद्भुत चमत्कार मिलता है—

जहाँ तहां रितुराज में, फूले किंशुक जाल,
मानहूँ मान मतंग के, अंकुश लोहू लाला। (उत्प्रेक्षा)

इन उदाहरणों में अलंकार स्पष्ट है, पर उसका लक्षणात्मक विश्लेषण नहीं किया गया है। यही लक्षण-निरूपण से मुक्तता रीतिसिद्ध कवियों को कल्पना के विस्तार और भाव-व्यंजना की स्वतंत्रता प्रदान करती है। फलस्वरूप, उनकी रचनाओं में नवीन और चमत्कारिक बिंब गढ़ने की क्षमता बनी रहती है, और उनकी अभिव्यक्ति तीखी, धारदार तथा प्रभावशाली हो जाती है।

श्रृंगारिकता

श्रृंगारिकता रीतिकालीन साहित्य की प्रमुख और जीवनदायिनी प्रवृत्ति है। यद्यपि इसका मूल आधार भक्तिकालीन कृष्ण-काव्य में निहित है, तथापि रीतिकाल के सामंती परिवेश ने इसे अधिक मुखरता, स्वतंत्रता और विशिष्ट रूप प्रदान किया। रीतिसिद्ध काव्य, रीतिबद्ध काव्य की भांति, काव्यशास्त्रीय नियमों में बँधा हुआ श्रृंगार-काव्य है। दरबारी संस्कृति, विलासप्रिय आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन और नैतिक बंधनों से अपेक्षाकृत मुक्त वातावरण ने इस प्रवृत्ति के विकास को बल दिया।

रीतिकालीन श्रृंगार में वियोग की अपेक्षा संयोग पर अधिक बल है, जिसके केंद्र में शारीरिक आकर्षण और भौतिक सुख की अनुभूति है। इस आकर्षण की अभिव्यक्ति रूप, भंगिमा, चेष्टा, तथा नायक-नायिका की विविध शारीरिक और मानसिक दशाओं के चित्रण के माध्यम से हुई। राधा-कृष्ण इस काव्य के प्रमुख आलंबन विभाव रहे, और आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट नायक-नायिका भेद तथा नख-शिख वर्णन इस प्रवृत्ति के अभिन्न अंग बने।

रीतिसिद्ध कवियों की विशेषता यह है कि वे श्रृंगार रस की प्रस्तुति में रसोद्दीपन परक चेष्टाओं का सजीव चित्र उकेरते हैं। वे नायक-नायिका की अंगिक और वाचिक चेष्टाओं के साथ-साथ उनकी आंतरिक मानसिक स्थितियों का भी चित्रण करते हैं। कभी-कभी वे संकेतों और सूक्ष्म व्यापारों द्वारा गहन अनुभूतियों को मूर्त रूप देते हैं—

"या अनुरागी चित्त की गति समुझै न कोय
ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग त्यों त्यों उज्जवल होय"

इस प्रकार की कविताओं में मादकता एक विशिष्ट गुण है। इसे बनाए रखने के लिए रीतिसिद्ध कवियों ने नायिकाओं के हाव-भाव, चेष्टाएँ, तथा ऋतुओं, बारहमासा, विहार, मद्यपान और क्रीड़ा आदि का विस्तृत चित्रण किया। बिहारी और मतिराम जैसे कवियों ने नायिका की सहज चेष्टाओं को ‘अनुभाव’ में बदलकर भावों को तीव्र बनाने की अद्वितीय कला प्रस्तुत की—

"बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
सौंह करै भौंहन हंसे, दैन कहै नटि जाय"
बिहारी

"श्रमजल कण झलकन लगे, अलकनि कलित कपोल
पलकनि रस छलकनि लगे, ललकन लोचन लोल"
मतिराम

रीतिसिद्ध श्रृंगार का एक पहलू यह भी है कि इसमें नारी की छवि सामंती दृष्टिकोण से निर्मित है—उसे प्रायः भोग्या रूप में चित्रित किया गया है, न कि पुरुष की अर्धांगिनी या स्वतंत्र चेतन इकाई के रूप में। परिणामस्वरूप, नारी के रूप और गुणों की अपेक्षा उसके शारीरिक गठन पर अधिक बल है।

इस प्रवृत्ति में विलासिता की प्रधानता के कारण प्रेम में एकनिष्ठता की जगह बहुअभिमुखता को स्थान मिला, जिससे प्रेम की उन्मुक्तता रसिकता के रूप में प्रकट हुई। फिर भी, रीतिसिद्ध श्रृंगार अंततः गार्हस्थ्य जीवन से जुड़ा है; अतः परकीया रूप की प्रधानता के बावजूद स्वकीया का सम्मान पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ और कुल-शील की छाया कहीं न कहीं विद्यमान रही।

प्रशस्ति गान की प्रवृत्ति

रीतिसिद्ध रचनाओं में कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा करना एक प्रमुख वर्ण्य विषय रहा है। यह प्रवृत्ति रीतिकाल की देन मात्र नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें आदि काल तक जाती हैं, जब चारण और भाट अपने संरक्षकों के वैभव और वीरता का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करते थे। भक्तिकाल में यह धारा कुछ समय के लिए मंद पड़ गई थी, किंतु रीतिकाल में भक्ति के क्षीण होते ही, श्रृंगार के साथ मिलकर प्रशस्ति गान पुनः मुख्य धारा में आ गया।

रीतिसिद्ध काव्य में प्रशस्ति गान को मुख्यतः तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –

  1. आश्रयदाता की वीरता

  2. राजसी वैभव

  3. राजविलास

1. आश्रयदाता की वीरता
कवि अपने आश्रयदाता और उनके पूर्वजों के पराक्रम का विस्तार से वर्णन करते हैं—उनके अद्वितीय साहस, अपार बल, शत्रुओं को परास्त करने की क्षमता और शत्रु पक्ष की दुर्बलता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है। युद्धभूमि के दृश्यों में सेना के साज-सामान, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की टापों से उड़ती धूल, तलवार-बर्छियों की चमक और वाण-वर्षा के प्रभाव का अतिरंजित चित्रण मिलता है। कहीं-कहीं तो शत्रु के भय से उनकी स्त्रियों की व्याकुल अवस्था का भी उल्लेख किया गया है। भूषण की शिवा बावनी इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें उन्होंने शिवाजी के साहस और उनकी सेना के पराक्रम को सजीव कर दिया है।

वीरता के चार रूप—दान, धर्म, दया और युद्ध—माने गए हैं। रीतिसिद्ध कवियों ने पराक्रम के साथ दानवीरता, क्षमाशीलता और धर्मनिष्ठा का भी विशेष रूप से चित्रण किया। दानशीलता में स्वर्ण-रत्न, आभूषण, हाथी-घोड़े आदि के भव्य उपहारों का वर्णन किया जाता था, ताकि आश्रयदाता की उदारता उजागर हो सके। धर्मवीरता में उनके धर्मपालन, शास्त्रज्ञान और धर्मरक्षा के लिए समर्पण का चित्रण होता था।

2. राजसी वैभव
कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के महलों, राजदरबार, बाग-बगीचों, सरोवरों और विलासपूर्ण जीवन का मनोहारी वर्णन किया। राजमहलों की भव्यता, राजवस्त्रों की शोभा, संपत्ति की प्रचुरता और राज्य की विशालता को बड़े मनोयोग से प्रस्तुत किया गया।

3. राजविलास
दरबार में होने वाले विविध मनोरंजन—जलक्रीड़ा, शतरंज, चौसर, पतंगबाजी, गजफा का खेल—तथा होली, वसंत आदि पर्वों के उत्सवों का भी यथासमय चित्रण किया गया। इन विवरणों में केवल यथार्थ ही नहीं, बल्कि कल्पना और अलंकार का भी भरपूर उपयोग हुआ, जिससे प्रशस्ति गान में भव्यता और रोचकता बढ़ जाती है।

संक्षेप में, रीतिसिद्ध काव्य में प्रशस्ति गान न केवल आश्रयदाता के पराक्रम और वैभव का बखान है, बल्कि यह उस काल की दरबारी संस्कृति, विलासप्रियता और कवियों की आश्रित प्रवृत्ति का दर्पण भी है।

प्रकृति
रीतिकालीन काव्यों में प्रकृति को श्रृंगारिकता का अनिवार्य उद्दीपक माना गया है। हालांकि आलोचक और सहृदय जिस प्रकार के विस्तृत, विहंगम और भावपूर्ण प्राकृतिक चित्रों की कल्पना करते हैं, उस स्तर का व्यापक प्रकृति-वर्णन रीतिसिद्ध कवियों में प्रायः नहीं मिलता—बिहारी को छोड़कर।
रीतिसिद्ध कवियों के प्रकृति चित्रण में चांदनी रातें, नदी और सरोवर के तट, उपवन, हरे-भरे खेत, पक्षियों का कलरव, षटऋतुओं और बारहमास के रंगीन दृश्य प्रमुख हैं। ये सभी दृश्य कामोद्दीपक और मधुर वातावरण के सृजन में सहायक हैं। किंतु इस युग में प्रकृति-चित्रण स्वतंत्र प्रवृत्ति के रूप में नहीं, बल्कि श्रृंगार के सहायक रूप में ही विकसित हुआ।

नीति
रीतिकाल की नीतिपरक रचनाएँ उसकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती हैं। इनका बीज संस्कृत साहित्य की प्राचीन और समृद्ध परंपरा में निहित है, जो आदिकाल और भक्तिकाल से गुजरते हुए रीतिकाल में अधिक परिपक्व और लोकप्रिय हुई।
भक्तिकाल और रीतिकालीन नीति में प्रमुख अंतर यह है कि भक्तिकाल में नीति आध्यात्मिकता का अंग बनकर आई, जबकि रीतिसिद्ध काव्य में यह दैनिक और भौतिक जीवन की समस्याओं के समाधान के रूप में, उपदेशात्मक शैली में प्रस्तुत हुई। इस कारण यहाँ नीति से आध्यात्मिक स्पर्श समाप्त हो गया और इसमें विविधता आ गई, क्योंकि यह रचनाकारों के निजी, दीर्घ और मिश्रित जीवनानुभवों पर आधारित थी।
इन रचनाओं में मानव स्वभाव का यथार्थ चित्रण भी हुआ। जैसे बिहारी ने नीच प्रवृत्ति के व्यक्तियों की अपरिवर्तनशील प्रकृति को इस प्रकार व्यक्त किया—

कोटि जतन कोअ करौ, क्यों न बढ़े दुःख दंदु
अधिक अंधेरों जग करत, मिली मावस रवि चंदु

बिहारी के अलावा वृंद, घाघ, गिरिधर कविराय आदि ने भी नीतिपरक रचनाएँ कीं। वृंद ने बिहारी की सतसई के अनुकरण पर नीति सतसई की रचना की, जिसे वृंद सतसई भी कहा जाता है। उन्होंने मानव व्यवहार की उपयुक्तता को इस प्रकार व्यक्त किया—

फीकी पै नीकी लगै, कहिए समय विचारि
सबको मन हर्षित करै ज्यों विवाह में गारि

इसी प्रकार, गिरिधर कविराय ने स्वार्थपूर्ण व्यवहार का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया—

साईं सब संसार में मतलब का व्यवहार
जब लगि पैसा गांठ में तब लनि ताको चार

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यहाँ नीति को नीरस या उपदेशात्मक रूप में नहीं, बल्कि मानवीय जीवन के ठोस और व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया।

भक्ति
भक्तिकाल में जो भक्ति-भावना कवियों के सहज और स्वाभाविक भावोद्रेक का अनिवार्य अंग थी, वह रीतिकाल में गौण हो गई। फिर भी विषय-वस्तु और अभिव्यक्ति-शैली के स्तर पर रीतिकाल में भक्तिकाल का अनुकरण स्पष्ट दिखता है। इस युग में भक्ति-प्रधान रचनाएँ सामान्यतः तभी लिखी जाती थीं, जब कवि अपने ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए गणेश, सरस्वती आदि देवी-देवताओं की स्तुति करता था, या कभी-कभी निजी भक्ति-भावना से प्रेरित होकर स्वतंत्र भक्ति-ग्रंथ की रचना करता था।

रीतिसिद्ध कवि बिहारी ने अपनी सतसई का प्रारंभ मंगलाचरण से किया—

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय
जा तन की झांई परै, स्याम हरित दुति होय।

रीतिसिद्ध काव्य में राधा और कृष्ण का बार-बार उल्लेख मिलता है, किंतु यह मानना उचित नहीं कि रचनाकार वास्तव में भक्त कवि थे, क्योंकि उनकी मूल प्रेरणा भक्ति नहीं थी। राधा-कृष्ण की श्रृंगारी भक्ति इतनी लोकप्रिय हुई कि नायिका-भेद का आकर्षण बढ़ गया। स्तुतिपरक छंदों में प्रायः पंचदेव—गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य—के प्रति भक्ति-भाव व्यक्त किया गया, जिनके वाहनों और वरदायक शक्तियों का भी चित्रण हुआ।

विष्णु की स्तुतियों में उनके शंख-चक्र-गदा-धारी, क्षीरसागर-शायी रूप के साथ राम और कृष्ण अवतार की लीलाओं का सामान्य वर्णन मिलता है। सामंती प्रभाव का असर कृष्ण-भक्ति पर भी पड़ा, जिससे आडंबरों को बढ़ावा मिला। इस पर विरोध भी हुआ और निष्कपट हृदय को भक्ति का मूल माना गया—

काहे को बाघम्बर को ओढ़ी करौ आडम्बर
काहे को दिगंबर ह्वै दूब खाइ रहिये
कहै ‘पद्माकर’ त्यों काय के कलेस हित
सीकर सभीत सीत बात ताप सहिये।

कुछ रचनाओं में आत्मा-परमात्मा, जीव, जगत, माया, ज्ञान और साधना जैसे तत्व-चिंतन संबंधी विषयों का उल्लेख भी हुआ, पर इनमें भावोत्कर्ष और मौलिकता का अभाव रहा। साथ ही, इस प्रकार की रचनाओं की संख्या भी सीमित रही।

अन्य विषय
मैनेजर पांडेय के अनुसार, रीतिकाल की रचनाएँ अपने समय और समाज की चिंताओं से जुड़ी थीं। उनमें परलोकवाद का अभाव था। जो कवि परलोकवादी थे, उनके बारे में भी रीतिकाल के कवि व्यंग्यपूर्वक कहते थे—“राधा-कन्हाई सुमिरन को बहानो है,” अर्थात असल भक्ति नहीं, बल्कि किसी स्त्री-पुरुष के प्रसंग को कहने का बहाना है।

हालाँकि इस तरह की रचनाएँ संख्या में बहुत कम हैं, किंतु रीतिसिद्ध काव्य में कभी-कभी गुप्त संदेश देना, कंजूस, ढोंगी या मतिभ्रष्ट व्यक्तियों के स्वभाव और आचरण का वर्णन भी मिलता है। इससे वीर, हास्य, रौद्र और करुण रसों की रचना होती है।

बिहारी को ज्योतिष, चिकित्सा, गणित आदि का ज्ञान था। उन्होंने गृहस्थ जीवन, लोक-व्यवहार और साधारण आचार को सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया। घाघ कवि की कहावतें कृषि-ज्ञान और मौसम की जानकारी का अद्भुत भंडार हैं—

उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।
खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो संग रहा।

गिरिधर कविराय की कुण्डलियाँ उनकी लोकजीवन से गहरी जुड़ाव का प्रमाण हैं—

साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज।

इस प्रकार, यह कहना उचित होगा कि रीतिसिद्ध रचनाओं में शास्त्रीय परंपरा और लोकजीवन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।

शिल्पगत विशेषताएँ

जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य दोनों का सांस्कृतिक, काव्यशास्त्रीय संस्कार और दरबारी परिवेश समान है। अंतर केवल काव्यांग लक्षण विवेचन के संदर्भ में है। रीतिबद्ध रचनाएँ काव्यशास्त्रीय नियमों में इस तरह बँधी थीं कि कल्पना के लिए अधिक अवकाश नहीं बचता था, परिणामस्वरूप उनमें जड़ता और एकरूपता का भाव आ जाता था। इसके विपरीत, रीतिसिद्ध रचनाएँ काव्यशास्त्रीय संस्कारों से युक्त होते हुए भी कल्पना की उड़ान के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती थीं, जिससे उनमें ताजगी और सरसता बनी रहती थी।

कुछ रीतिबद्ध कवि भी, काव्यांग लक्षण विवेचन करते हुए, कभी-कभी कल्पना के पंख फैलाने में सफल हुए, जहाँ रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्य का शिल्पगत अंतर लगभग समाप्त हो जाता है। फिर भी, रीतिसिद्ध कवियों में बिहारी और उनकी “सतसई” को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्होंने मुक्तक काव्य रूप को अपनाकर उसे अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से ऐसी ऊँचाई दी कि उनके अनुकरण में सतसई रचने की परंपरा आरंभ हो गई।

मुक्तक में प्रबंध काव्य की तरह रस का सतत प्रवाह नहीं होता, लेकिन यह सहृदय पाठक के मन पर गहरे प्रभाव डालता है। रीतिसिद्ध काव्य के मुक्तकों का महत्त्व इस कारण भी बढ़ जाता है कि ये सामंती समाज की विकृतियों को उजागर करने में प्रभावी सिद्ध हुए। इनका रचना-विधान काव्यशास्त्रीय अनुशासन से युक्त था और इन पर प्राकृत-अपभ्रंश की दोहा परंपरा के साथ-साथ फारसी-उर्दू की शेर परंपरा का भी प्रभाव दिखाई देता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुक्तक को “चुना हुआ गुलदस्ता” कहा है।

रीतिबद्ध काव्य में जहाँ श्रृंगार के लिए प्रायः सवैया छंद चुना गया, वहीं बिहारी ने मुक्तक रचना के लिए केवल दोहा को अपनाया। दोहे में अल्प शब्दों में गहन भाव व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता होती है—
“सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर
देखन को छोटन लगे, घाव करे गंभीर।”

बिहारी के बाद मतिराम, वृंद, भूपति आदि ने भी सतसई रचते समय दोहा छंद को ही आधार बनाया। हालाँकि भूषण, रसनिधि, तोष और पद्माकर ने मुक्तक काव्य में सवैया, छप्पय, कवित्त और घनाक्षरी छंदों का प्रयोग भी किया।

लक्षण-निरूपण से स्वतंत्र रहने और केवल उदाहरण प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता के कारण रीतिसिद्ध कवि उक्ति-वैचित्र्य में श्रेष्ठ सिद्ध हुए। प्रेम और श्रृंगार का वर्णन भी इनके यहाँ अनुभूतिपरक और सजीव है। अत्युक्ति प्रयोग में भी रीतिसिद्ध कवि अपने समकालीन रीतिबद्ध कवियों की तुलना में विशेष स्थान रखते हैं, जैसे बिहारी का यह पद—
“पत्रा ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास,
नित प्रति पून्यो ही रहे आनन ओप उजास।”


उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य दोनों का सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और काव्यशास्त्रीय आधार समान है। इनके वर्ण्य विषय और अभिव्यक्ति शैली भी लगभग एक जैसी है। अंतर केवल इतना है कि रीतिबद्ध काव्य में काव्यांग लक्षण और उनके उदाहरण प्रमुख होते थे, जबकि रीतिसिद्ध काव्य में कविता स्वयं प्राथमिक होती थी, भले ही वह शास्त्रीय अनुशासन में बँधी हो।

रीतिसिद्ध काव्य में कल्पना का पूर्ण विकास, अनुभूति की सहजता, ताजगी और भावुकता मिलती है, जबकि रीतिबद्ध काव्य में नियमबद्धता के कारण बौद्धिकता और शुष्कता अधिक पाई जाती है। दोनों में श्रृंगारिकता प्रमुख प्रवृत्ति रही, जिसमें नारी-पुरुष संबंधों की सामंती और भोगवादी प्रवृत्ति का चित्रण हुआ।

प्रशस्ति गान की प्रवृत्ति के अंतर्गत आश्रयदाताओं के शौर्य, पराक्रम, दानशीलता और धर्मनिष्ठा के साथ शत्रुओं की कायरता का भी वर्णन हुआ। गौण प्रवृत्तियों में नीतिपरक रचनाएँ विशेष महत्त्व रखती हैं, जिनमें जीवन के विविध अनुभवों और व्यवहारों का चित्रण हुआ, अधिकतर दोहा छंद में।

भक्ति प्रवृत्ति में कवियों ने अपनी व्यक्तिगत आस्था के अनुसार विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति की, जो कभी-कभी उनके लिए सामाजिक कवच का भी कार्य करती थी।

रीतिसिद्ध काव्य

 हम जानते हैं कि हिंदी साहित्य के उत्तर मध्यकाल (लगभग 1650 से 1850 ई.) को साहित्य इतिहासकारों ने “रीतिकाल” नाम दिया है। यहाँ ‘रीति’ शब्द संस्कृत काव्यशास्त्र के ‘रीति संप्रदाय’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है—विशेष प्रकार की पदरचना। इस काल में काव्य रचना के लिए निश्चित नियमों और मान्यताओं का पालन अनिवार्य माना गया, जिन्हें ‘रीति’ कहा गया। परिणामस्वरूप, अधिकांश कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र की निर्धारित परंपरा और मानकों के अनुसार ही सृजन किया।

इसी पद्धति को ध्यान में रखते हुए हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने रीतिकाल के कवियों को उनकी रीति-संबद्धता के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया—रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त कवि। प्रस्तुत पाठ में विशेष रूप से ‘रीतिसिद्ध’ काव्य की विविध प्रवृत्तियों पर चर्चा की गई है। यहाँ ‘रीतिसिद्ध’ शब्द का प्रयोग रीतिकालीन काव्य के एक विशिष्ट संदर्भ में हुआ है, जिसके आधार पर रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्य से इसका अंतर स्पष्ट किया गया है।

अवधारणा

(1) रीतिसिद्ध काव्य का अभिप्राय

रीतिकाल की लगभग दो शताब्दियों (1650–1850 ई.) में रचित साहित्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि इसका दो-तिहाई से अधिक भाग ऐसे रचनाकारों का है, जिनका मुख्य उद्देश्य काव्यशास्त्रीय अंगों और नियमों का विवेचन या काव्यशास्त्रीय ज्ञान का प्रदर्शन था, न कि मौलिक कवित्व का सृजन। ये कवि अपने द्वारा गढ़े गए काव्यांग-लक्षणों के साथ अन्य कवियों के उदाहरण देकर विषय का विस्तार से विवेचन करते थे, जिससे कवि की व्यक्तिगत प्रतिभा गौण हो जाती थी।

दूसरा वर्ग उन कवियों का था, जिन्होंने रस, छंद और अलंकार जैसे विशिष्ट काव्यांगों के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपनी काव्य प्रतिभा और शास्त्रज्ञान—दोनों का संतुलित प्रदर्शन किया। इनके द्वारा दिए गए उदाहरण, बताए गए लक्षणों पर पूर्णतः खरे उतरते थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ऐसे कवियों को रीतिबद्ध कवि कहा है।

तीसरा वर्ग उन रचनाकारों का है, जिन्होंने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा, लेकिन रीति का पूर्ण ज्ञान रखते हुए अपने काव्य सृजन में काव्यशास्त्रीय नियमों का सहज पालन किया। इनका मुख्य उद्देश्य कवित्व का प्रदर्शन था, न कि काव्यांगों की औपचारिक विवेचना। ऐसे कवि, बिना किसी शास्त्रीय विवेचन के भी, रीति के विधान में पारंगत थे और रचना करते समय इन नियमों से कभी विचलित नहीं हुए। इन्हें रीतिसिद्ध कवि कहा जाता है।

रीतिसिद्ध कवि शास्त्रीय नियमों से संस्कारवश बंधे होते थे, जबकि रीतिबद्ध कवि इन नियमों का पालन अनिवार्यतः करते थे। दोनों वर्गों में काव्यशास्त्रीय संस्कार समान थे, पर अंतर यह था कि रीतिबद्ध काव्य में काव्यांग-लक्षण प्राथमिक और कविता गौण थी, जबकि रीतिसिद्ध काव्य में कविता प्राथमिक थी, यद्यपि शास्त्रीय अनुशासन के साथ। इस प्रकार, रीतिसिद्ध रचनाएँ केवल रीति की पुनरावृत्ति नहीं थीं, बल्कि उनमें मौलिक और चमत्कारपूर्ण काव्य सौंदर्य भी निहित था।

किसी रीतिसिद्ध रचना में नायिका-चित्रण या नखशिख वर्णन की उपस्थिति यह सिद्ध नहीं करती कि वह रीति-ग्रंथ है। वास्तव में, ‘रीतिबद्ध’ और ‘रीतिसिद्ध’ का भेद प्रायः कवि-वर्ग पर नहीं, बल्कि रचना-विशेष पर आधारित है। रीतिसिद्ध काव्य को एक प्रकार से रीतिबद्ध काव्य का परिष्कृत रूप कहा जा सकता है।

बिहारीलाल इस धारा के प्रमुख कवि हैं—उन्होंने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा, फिर भी रीति की सभी विशेषताओं को आत्मसात किया। भागीरथ मिश्र के अनुसार, “ऐसे अनेक कवि हुए हैं, जिन्होंने इसी परंपरा में रचनाएँ कीं, पर उनकी देन मुख्यतः काव्य के क्षेत्र में है, शास्त्र के क्षेत्र में नहीं।” रीतिकाल में सर्वाधिक लोकप्रियता इन्हीं रीतिसिद्ध कवियों को मिली, और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी स्वीकार किया है कि “रीतिकाल के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि बिहारीलाल थे।”

 (2) प्रमुख रीतिसिद्ध कवि और उनकी रीतिसिद्ध काव्य

  1. बिहारीसतसई

  2. सेनापतिकवित्त रत्नाकर

  3. मतिराममतिराम सतसई

  4. भूषणशिवाबावनी, छत्रसाल दशक

  5. रसनिधिरतन हजारा

  6. वृन्दनीति सतसई

  7. कालिदास त्रिवेदीकालिदास हजारा

  8. भूपतिसतसई

  9. विक्रमसतसई

  10. पद्माकरगंगा लहरी, प्रताप सिंह विरुद्धावली

(3) रीतिसिद्ध कवियों के वर्ण्य विषय

रीतिकालीन अधिकांश काव्य राजाओं, नवाबों और सामंतों के आश्रय में रचे गए। चूँकि ये आश्रयदाता प्रायः विलासी प्रवृत्ति के थे, इसलिए आश्रित कवियों के लिए आवश्यक था कि वे ऐसी श्रृंगारप्रधान रचनाएँ प्रस्तुत करें, जो उनके आश्रयदाताओं के भोग-विलासपूर्ण संस्कारों को तृप्त कर सकें। यहाँ श्रृंगार का आशय आध्यात्मिक नहीं, बल्कि पूर्णतः लौकिक और सांसारिक था—जिसका केंद्रबिंदु सौंदर्य और प्रेम था।

इस क्रम में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियाँ—प्रिय से मिलने की उत्कंठा, वियोग की व्याकुलता, चांदनी या अंधेरी रात के आलिंगन व चुम्बन, विरह के विविध भाव, नायिका-नायक की शारीरिक चेष्टाएँ और भाव-क्रियाएँ—रीतिसिद्ध कवियों के प्रमुख विषय बने।

हालाँकि आश्रयदाता केवल विलास में ही लीन नहीं रहते थे, बल्कि राज्य, सीमाओं और शासन की रक्षा हेतु युद्ध भी करते थे। ऐसी स्थिति में कवियों ने उनके युद्ध-वीर्य और पराक्रम का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन कर उन्हें तथा उनकी सेना को युद्ध हेतु प्रेरित किया। साथ ही उनके वैभव, दानशीलता, क्षमाशीलता और धर्मपरायणता की प्रशस्तियाँ लिखकर उन्हें प्रसन्न भी किया।

इनकी श्रृंगारिक रचनाओं में प्रकृति एक महत्त्वपूर्ण सहायक तत्व के रूप में रही। ऋतु-परिवर्तन, पुष्प-वन, नदी-सरिता, पक्षियों के कलरव जैसे दृश्य इनके काव्य में सौंदर्य-वृद्धि करते हैं। जीवन के अनुभवों से प्रेरित होकर कई कवियों ने नीतिपरक रचनाएँ भी लिखीं, जिनमें जीवन-जगत से जुड़े व्यावहारिक उपदेश निहित थे।

रीतिसिद्ध कवियों ने भक्ति-प्रधान रचनाएँ भी कीं—कुछ उनकी व्यक्तिगत भक्ति-भावना का परिणाम थीं, तो कुछ ग्रंथों के प्रारंभ में ईश्वर-स्तुति या देवी-स्तवन के रूप में आईं। इसके अतिरिक्त, दर्शनपरक रचनाओं में आत्मा-परमात्मा, जीव, जगत, माया, ज्ञान और साधना जैसे विषयों पर भी विचार किया गया।

इस प्रकार, रीतिसिद्ध काव्य के विषय मुख्यतः छह भागों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं—

  1. प्रशस्ति-गान

  2. श्रृंगार

  3. प्रकृति-चित्रण

  4. नीति

  5. भक्ति एवं दर्शन

  6. अन्य विषय

हालाँकि, शास्त्रीय नियमों के बंधन के कारण इन विषयों का वर्णन प्रायः निश्चित और सीमित ढाँचे में ही किया जाता था।


Thursday, 31 July 2025

हिंदी आलोचना का विकास और आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि

हिंदी आलोचना का जो रूप आज हमारे सामने है, वह केवल साहित्य की व्याख्या या सौंदर्यात्मक मूल्यांकन भर नहीं है, बल्कि यह साहित्य को सामाजिक, ऐतिहासिक, और वैचारिक धरातल पर जांचने-परखने की एक सघन प्रक्रिया है। आधुनिक काल से पहले हिंदी में जो आलोचनात्मक प्रवृत्तियाँ पाई जाती थीं, वे मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र के परंपरागत नियमों और लक्षणग्रंथों पर आधारित थीं, जैसे– भामह, दंडी, मम्मट, वामन, अभिनवगुप्त, आदि की काव्य-चर्चाएँ। इनका केंद्रबिंदु था – रस, अलंकार, रीति और ध्वनि

परंतु आधुनिक हिंदी आलोचना का स्वरूप साहित्य में आधुनिक दृष्टिकोण, मानवीय संवेदना, और सामाजिक सरोकारों की जागरूकता के साथ विकसित हुआ। भारतेंदु युग से प्रारंभ यह आलोचना धीरे-धीरे पश्चिमी विचारधाराओं, भारतीय लोक चेतना, तथा समसामयिक यथार्थ के प्रभाव में नए आलोचनात्मक प्रतिमानों की ओर अग्रसर हुई।

आलोचना के विकास में प्रमुख आलोचकों की भूमिका

आधुनिक हिंदी आलोचना को दिशा और विस्तार देने में जिन आलोचकों का योगदान निर्णायक रहा, उनमें विशेष रूप से आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नंद दुलारे वाजपेयी, प्रो. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, और डॉ. निर्मला जैन के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने हिंदी आलोचना को केवल ‘अभिरुचि का विषय’ नहीं, बल्कि एक सैद्धांतिक और वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित किया।

 हिंदी आलोचना के शलाका पुरुष: आचार्य रामचंद्र शुक्ल

हिंदी आलोचना के शास्त्रीय रूपांतरण का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884–1941) को जाता है। उन्होंने हिंदी आलोचना को पहली बार एक विचारधारा-आधारित, वस्तुपरक और सामाजिक दृष्टिकोण से गढ़ा। शुक्लजी के लिए साहित्य मात्र सौंदर्य की वस्तु नहीं था, बल्कि वह उसे ‘मानव हृदय की मुक्तावस्था’, ‘लोकजीवन की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब’ मानते थे।

शुक्लजी ने हिंदी में आलोचना को एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित किया और व्यक्तिनिष्ठता एवं सौंदर्य-चिंतन की सीमाओं से ऊपर उठकर साहित्य को जनसरोकारों, इतिहासबोध, समाजचिंतन, और लोकमंगल के संदर्भों से जोड़ा।

 प्रमुख आलोचनात्मक प्रतिमान

शुक्लजी की आलोचना में कई मौलिक और विचारोत्तेजक प्रतिमान उभरते हैं:

  • लोकधर्म एवं लोकमंगल: उन्होंने साहित्य को ‘लोकधर्म’ से जोड़ा और व्यक्ति धर्म के ऊपर लोक की चेतना को प्राथमिकता दी। साहित्यकार को ‘लोकहितकारी’ दृष्टिकोण से सृजन करने वाला बताया।

  • आनंद की साधनावस्था और सिद्धावस्था: उन्होंने काव्यानुभूति को ‘हृदय की मुक्तावस्था’ कहा और इसे दो अवस्थाओं में बाँटा:

    • साधनावस्था (करुणा) – तुलसीदास का काव्य

    • सिद्धावस्था (प्रेम) – सूरदास का काव्य

  • रस और करुणा: वे करुणा को काव्य का मूल बीजभाव मानते हैं जो लोकहित की रक्षा करता है।

  • प्रबंधात्मकता: उन्होंने काव्य में प्रबंध को अधिक महत्व दिया क्योंकि यह जीवन की समग्रता को पकड़ता है। तुलसीदास इस दृष्टि से उनके आदर्श कवि हैं।

तुलसी, सूर, जायसी का विश्लेषण

शुक्लजी का आलोचना कार्य उनकी प्रिय कवि त्रयी – तुलसी, सूर और जायसी – पर आधारित है:

  • तुलसीदास को उन्होंने ‘साधनावस्था’ का कवि बताया जो करुणा और लोकहित के भाव से भरपूर है। तुलसी में ‘नायक’ राम ‘लोकरक्षक’ के रूप में चित्रित हैं।

  • सूरदास को ‘सिद्धावस्था’ का कवि माना और उनके काव्य को प्रेम का जीवनोत्सव कहा। सूर के कृष्ण ‘लोकरंजक’ हैं। गोपियों के प्रेम को उन्होंने सहज-साहचर्यजनित प्रेम कहा।

  • जायसी में उन्होंने ‘प्रेम की पीर’ की सूक्ष्म व्यंजना देखी, किंतु उनके सूफी प्रेम की अपेक्षा भारतीय प्रेम परंपरा को अधिक महत्व दिया।

आलोचना और इतिहास लेखन की दृष्टि

शुक्लजी ने हिंदी साहित्य के इतिहास को भी आलोचना के ही एक अंग के रूप में व्यवस्थित किया। उनका ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1928) इस दृष्टिकोण से मील का पत्थर है, जिसमें उन्होंने साहित्य को कालगत सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ा।

वे रीतिकाल की सामंती प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए भारतेंदु युग को साहित्य और समाज के यथार्थ से जुड़ाव का युग मानते हैं।

 रहस्यवाद, अध्यात्म और विचारधारा

  • उन्होंने छायावादी रहस्यवाद, निर्गुण संतों का रहस्यवाद, बौद्ध एवं जैन साहित्य को हिंदी साहित्य के प्रामाणिक इतिहास में स्थान नहीं दिया, क्योंकि ये उनकी दृष्टि में जनजीवन से कटी हुई आध्यात्मिक-अधिभौतिक प्रवृत्तियाँ थीं।

  • छायावाद को वे काल्पनिक आत्मसंलाप और व्यक्तिगत अनुभवों की परंपरा मानते हैं जो सामाजिक यथार्थ से कटे हुए हैं।

 समाज और साहित्य

शुक्लजी ने साहित्य को आत्मनुभूति नहीं, सामाजिक अनुभूति का माध्यम माना। उन्होंने कहानी और उपन्यास जैसे आधुनिक गद्य रूपों के संदर्भ में भी यही आग्रह किया कि रचनाकार देश के सर्वमान्य जीवन का चित्रण करे।

आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि न केवल हिंदी आलोचना का प्रारंभ बिंदु है, बल्कि उसकी वैचारिक रीढ़ भी है। उन्होंने एक ऐसा आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया जो वस्तुनिष्ठ है, ऐतिहासिक चेतना से संपन्न है, लोकमंगल को मूल में रखता है और भारतीय समाज की जटिलताओं से संवाद करता है| 

उनकी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आलोचकों की नई पीढ़ी (जैसे – द्विवेदी, रामविलास, नामवर, निर्मला जैन) हिंदी आलोचना को विविध वैचारिक विमर्शों (मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, स्त्रीवाद, उत्तर आधुनिकता आदि) से समृद्ध करती है।

उत्तर संरचनावाद

उत्तर संरचनावाद (Post-Structuralism) एक प्रमुख बौद्धिक आंदोलन है, जिसने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषा, साहित्य, समाजशास्त्र, दर्शन, इतिहास तथा संस्कृति-अध्ययन की पारंपरिक मान्यताओं को गहराई से प्रभावित किया। यह संरचनावाद (Structuralism) की सीमाओं को चुनौती देने और उसके प्रतिपक्ष में विकसित हुआ दर्शन है। इसका मूल आधार यह है कि 'अर्थ कोई स्थिर और अंतिम अवधारणा नहीं है', बल्कि वह भाषा, संदर्भ, पाठ और पाठक के बीच एक निरंतर गतिशील प्रक्रिया है। 

जन्म और विकास: 1966 की ऐतिहासिक घटना

उत्तर संरचनावाद का औपचारिक आरंभ 1966 में अमेरिका की जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) में आयोजित एक संगोष्ठी के दौरान हुआ, जहाँ फ्रांसीसी दार्शनिक जैक देरिदा (Jacques Derrida) ने अपना ऐतिहासिक व्याख्यान “Structure, Sign and Play in the Discourse of the Human Sciences” प्रस्तुत किया। यही व्याख्यान उत्तर संरचनावाद की विचारधारा का बीज बन गया, जिसने तत्कालीन बौद्धिक जगत में हलचल मचा दी।

 संरचनावाद बनाम उत्तर संरचनावाद

संरचनावाद का मुख्य दावा यह था कि भाषा संकेतों (Signs) का एक ऐसा सुव्यवस्थित तंत्र है, जिसमें अर्थ आपसी अंतर (Difference) के आधार पर उत्पन्न होता है। भाषा की संरचना में शब्दों का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता, बल्कि एक शब्द अपने आसपास के शब्दों के सापेक्ष ही अर्थ ग्रहण करता है। इसका प्रमुख प्रतिपादक फर्डिनान्द डी सॉश्योर (Ferdinand de Saussure) था, जिसने भाषा को एक बंद प्रणाली के रूप में देखा।

 इसके विपरीत, उत्तर संरचनावाद मानता है कि यह व्यवस्था वस्तुतः भ्रमात्मक है। देरिदा ने बताया कि अर्थ कभी स्थिर नहीं होता, वह निरंतर खिसकता रहता है जिसे उन्होंने "différance" (एक साथ भिन्नता और विलंबन) शब्द से अभिहित किया। किसी भी शब्द का अर्थ तय नहीं होता, बल्कि वह केवल एक संकेत को दूसरे संकेत से जोड़ता है, और यह श्रृंखला अंतहीन है।

मुख्य अवधारणाएँ

1. Différance (भिन्नता + विलंबन)

देरिदा ने ‘difference’ को फ्रांसीसी भाषा के एक विशेष प्रयोग ‘différance’ से स्पष्ट किया, जिसमें न केवल अंतर की प्रक्रिया है, बल्कि अर्थ का स्थगन भी है। किसी भी शब्द को तभी समझा जा सकता है जब वह 'क्या नहीं है' से परिभाषित हो जैसे "पंकज" तब समझा जा सकता है जब यह 'पंक' नहीं है। इसी तरह अर्थ कभी पूर्णतः प्रकट नहीं होता, बल्कि टलता रहता है।

2. Deconstruction (विखंडनवाद)

देरिदा का सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत है विखंडन’, जिसमें किसी भी पाठ की स्थिर व्याख्या को अस्वीकार किया जाता है। वह कहते हैं कि कोई भी पाठ एक नहीं, अनेक अर्थों को जन्म देता है। इसलिए, आलोचक का कार्य किसी पाठ के "गोपित अर्थों" को खोजना नहीं, बल्कि उसके अंतर्विरोधों, विसंगतियों और अपूर्णताओं को उजागर करना है।

3. Adwriting (आद्य लेखन)

देरिदा ने लेखनको बोलनेसे अधिक प्राथमिकता दी। सॉश्योर तथा परंपरागत परिपाटी में उच्चारित भाषा को प्राथमिक माना गया, परन्तु देरिदा ने कहा कि लेखन अधिक मूल और गहन है क्योंकि वह स्वयं में अनुपस्थित अर्थ की खोज है। लेखन में उपस्थित चिह्न (traces) हमेशा किसी अप्रस्तुत अर्थ की ओर संकेत करते हैं।

उत्तर संरचनावाद और उत्तर आधुनिकता का संबंध

उत्तर संरचनावाद को उत्तर आधुनिकतावाद (Postmodernism) के साथ गहराई से जोड़ा जाता है क्योंकि दोनों ही स्थायित्व, मूल सत्य, केन्द्र और सार्वभौमिक व्याख्याओं को अस्वीकार करते हैं। उत्तर आधुनिकता का मूल विश्वास है — "सत्य एक नहीं, अनेक हैं; और सब कुछ संदिग्ध है।" उत्तर संरचनावाद इसी सिद्धांत को भाषा और पाठ के स्तर पर लागू करता है।

अन्य प्रमुख विचारक और योगदान

1. मिशेल फूको (Michel Foucault)

फूको ने देरिदा के अत्यधिक नकारात्मक एवं ध्वंसात्मक दृष्टिकोण को आलोचना का विषय बनाया। उनके अनुसार, अर्थ का निर्धारण केवल पाठ के अंदर से नहीं, बल्कि उस 'विमर्श प्रणाली (discourse system)' से होता है जिसमें वह पाठ लिखा गया। विमर्श वह सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और बौद्धिक ढांचा है, जो किसी विचार या ज्ञान को अर्थ देता है।

फूको का कथन था कि कोई भी विचारधारा या सिद्धांत तभी स्वीकृत होती है जब वह अपने समय के सत्ता केन्द्रों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके। उन्होंने भाषा और ज्ञान के निर्माण में सत्ता के हस्तक्षेप को उजागर किया। उनके ग्रंथ "Discipline and Punish" और "The Archaeology of Knowledge" इस दिशा में महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

2. रोलां बार्थ (Roland Barthes)

बार्थ ने अपने प्रसिद्ध लेख "The Death of the Author" में यह प्रस्तावित किया कि लेखक का जीवन और मंशा किसी पाठ के अर्थ को तय नहीं करती। पाठ का अर्थ केवल पाठक की व्याख्या और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। यह विचार उत्तर संरचनावाद की आलोचनात्मक शैली को और अधिक बल देता है।

साहित्य और आलोचना में प्रभाव

उत्तर संरचनावाद का साहित्यिक आलोचना पर गहरा प्रभाव पड़ा। परंपरागत आलोचना जहाँ रचना के अर्थ, उद्देश्य और नैतिकता की खोज करती थी, वहीं उत्तर संरचनावादी दृष्टिकोण ने रचना को "अनिर्णेयता (aporia)" के रूप में देखा एक ऐसा स्थान जहाँ किसी निश्चित व्याख्या की संभावना नहीं होती।

अब साहित्य का अर्थ वह नहीं रहा जो लेखक ने कहना चाहा, बल्कि वह है जिसे पाठक ने समझा या समझना चाहा। इसने साहित्य को अनंत पाठों की श्रृंखलामें बदल दिया, जहाँ हर पाठ में असंख्य निर्वचन (interpretations) संभव हैं।

उत्तर संरचनावाद पर सबसे बड़ी आलोचना यही है कि यह साहित्य, संस्कृति और समाज के स्थायी मूल्यों को अस्वीकार करता है। देरिदा की दृष्टि में न कोई 'सत्य' है, न कोई 'मूल्य' — बस अंतहीन चिह्नों की श्रृंखला है जिसमें हम अर्थ की खोज तो करते हैं, पर वह कभी प्राप्त नहीं होता।

इस दृष्टिकोण से यह आरोप भी लगाया गया कि यह साहित्य और भाषा की आत्मा-हत्याहै, जिसमें हर रचना का कोई निश्चित संदेश, सौंदर्य या सामाजिक उपयोगिता नहीं रह जाती। पारंपरिक दृष्टिकोण से यह एक प्रकार का सांस्कृतिक आतंकवाद प्रतीत होता है।

उत्तर संरचनावाद ने भाषा और साहित्य की अवधारणाओं को जड़ से बदल दिया। जहाँ पहले रचना को एक स्थिर, पूर्ण और मूल्यनिष्ठ कृति माना जाता था, वहीं उत्तर संरचनावाद ने उसे एक गतिशील, बहुस्तरीय और संदिग्ध पाठ के रूप में पुनर्परिभाषित किया। इसने आलोचना की दिशा को लेखक-केंद्र से हटाकर पाठ और पाठक-केंद्रित बना दिया।

हालाँकि, इसकी ध्वंसात्मक प्रकृति के कारण यह बहस का विषय भी रहा है। साहित्यिक परंपराएँ, सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक संदर्भों से इसके कटाव को लेकर गहरी चिंताएँ भी उठाई गई हैं। फिर भी, उत्तर संरचनावाद ने आधुनिक आलोचना और चिंतन को नई दिशा दी है और यह समकालीन बौद्धिक विमर्श का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है।