भारतीय वांड्मय में कृषि संस्कृति.....उत्तम
चाकरी से पिकनिक की ओर (हिंदी साहित्य के सन्दर्भ में)
कविता या साहित्य मनुष्य की
सर्जनात्मक अभिव्यक्ति की सबसे प्राचीन विधा है और कृषि कार्य भी एक प्राचीनतम
पेशा है। ऐसी स्थिति में प्राचीन ग्रंथों में आदि मानव के इस आदि व्यवसाय से जुडी
गतिविधियों का उल्लेख होना स्वाभाविक है | वैदिक वांड्मय में जिस यज्ञ
की अभूतपूर्व प्रतिष्ठा रही है, उसकी मुख्य वजह यह रही है कि मनुष्य और देवता सभी
का गुजर-बसर यज्ञ पर ही निर्भर करता है | यदि हम यज्ञ के विवरणों पर ध्यान दें, तो
पाएंगे कि इसका संबंध कृषि कर्म या उत्पादन पक्ष से था | ब्रीहि(धान), यव (जौ),
माण(उड़द),मुदंग (मूंग), गोधूम (गेहूँ), और मसूर आदि अनाजों, जो यज्ञ क्रिया के
प्रमुख घटक रहे हैं, का वर्णन आयुर्वेद में मिलता है | इसलिए वेदों में कृषि कार्य
को यज्ञ या सर्वश्रेष्ठ कार्य का दर्जा दिया गया है| सभी ऋषि-मुनियों ने कृषि कर्म
को सर्वोपरि सम्मान दिया है | वैदिक व्याख्याकार मानते हैं कि राजा जनक कृषि के
अधिष्ठाता हैं और सीता कृषि की अधिष्ठातृ देवी हैं। रामविलास शर्मा ने वेदों में
खेती करने वाले ऋषि-मुनियों का विशेष रूप से उल्लेख किया है। विश्व के प्राचीनतम
ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है-“अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्
कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः”।
अर्थात जुआ मत खेलो, कृषि
करो और सम्मान के साथ धन पाओ। हमारे समाज में प्रचलित
जन-उक्ति कृषि कार्य की श्रेष्ठता को अभिव्यक्त करती है –‘उत्तम खेती मध्यम बान, नीच
चाकरी कुक्कर निदान|’ खेती उत्तम इसलिए है क्योंकि इस क्रिया के प्रारंभ होने से
अन्न उत्पादित होने तक करोड़ों सूक्ष्म जीवियों से लेकर गाय-बैल आदि पशुओं एवं
करोड़ों लोगों का पेट भरता है। गुरुकुलों में राजा और प्रजा दोनों के पुत्र खेती
करते हुए ज्ञानार्जन करते थे। अर्थात् ज्ञान और श्रम के बीच कोई दूरी नहीं थी।
इस प्रकार ऋग्वेद एवं उत्तरवैदिक काल में आर्यो का
मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। यजुर्वेद संहिता में मानसून का वर्णन सल्लिवात के रूप
में आता है। शतपथ ब्राह्यण में कृषि की क्रियाओं-जुताई, कटाई, मड़ाई, का उल्लेख मिलता है। कालांतर
में वृहत्संहिता, मेघदूत
आदि ग्रंथों में महर्षि पाराशर,
वराहमिहिर,
कश्यप, गर्ग
और कालिदास आदि विद्वानों से लेकर भक्तिकालीन साहित्य और रीतिकालीन साहित्य में घाघ
और भड्डरी
जैसे कवियों ने समय-समय पर
कृषि संबंधी अनुभवों और वर्षा एवं मौसम पूर्वानुमान व्यक्त
किया हैं। 11वीं
शती के 'कृषिपाराशर' नामक ग्रन्थ में जल
संसाधनों से सिंचाई के साधनों के सभी विवरण मिलते हैं|
हिंदी साहित्य के इतिहास में कबीर, जायसी, सूर, तुलसी से लेकर जयशंकर
प्रसाद, निराला,
माखनलाल चतुर्वेदी नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रामधारी
सिंह दिनकर, भवानीप्रसाद मिश्र और केदारनाथ सिंह तक के कवियों के साथ-साथ प्रेमचंद, सुदर्शन, रेणू, शिवप्रसाद सिंह,
मार्कंडेय, काशीनाथ सिंह, शिवमूर्ति और अमरकांत इत्यादि साहित्यकारों ने किसान को
केंद्र में रख कर कृषि कार्यों एवं उससे जुडी समस्याओं और उनके जीवन-यापन के
तौर-तरीकों को अपनी रचनाओं में गंभीरता से उकेरा है। किसान-जीवन की ‘मरजाद’ है
खेती और
उस जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ भी है। कबीर ने अपनी आध्यात्मिक चेतना और जीवनानुभूति
को बड़ी ही सूक्ष्मता से कृषि संबंधी कार्य-व्यापार से जोड़ा है | उन्होंने कृषि
कार्य को साधना प्रक्रिया का समान धर्मी माना है-
“ज्ञान कुदार ले बंजर गोडे, नाम का
बीज बुआवै|
सुरतसुरावन नय कर फेरे, ढेला रहन न
पावै|
उलटि-पलटि के खेत को जोते, पूर
किसान कहावै ||”
कृषि कार्य में बीज की अहम भूमिका है जिसे कबीर ने गूढ़
रूपक द्वारा प्रस्तुत किया है-
“राम नाम करि बोहड़ा, बाहों बीज
अघाई
खण्ड ब्रह्माण्ड सूखा परै, तऊ न
निष्फल जाई” |
यहाँ बोहड़ा बांस की नलिका होती है जिसके द्वारा बुआई
करने से बीज खेत की नीची सतह तक पहुँच जाता है | कृषि कार्य का इतना सूक्ष्म ज्ञान
कृषक जीवन से वगैर आत्मीयता के नहीं हो सकता है |
यही नहीं, पशुपालन भारतीय कृषिव्यवस्था का अनिवार्य अंग
रहा है जिसकी पूरी प्रक्रिया का समग्र दिग्दर्शन हमें सूर के काव्य में होता है |
प्रभु जू यौं
कीन्हीं हम खेती
बंजर भूमि गाउं
हर जोते, अरु जेती
की तेती।
काम क्रोध दोउ
बैल बली मिलि, रज
तामस सब कीन्हौं।
अति कुबुद्धि मन
हांकनहारे, माया
जूआ दीन्हौं।
इन्द्रिय मूल
किसान, महातृन
अग्रज बीज बई।
जन्म जन्म को
विषय वासना, उपजत
लता नई।
कीजै कृपादृष्टि
की बरषा, जन की
जाति लुनाई।
सूरदास के प्रभु
सौ करियै, होई
न कान-कटाई।
इस रूपक में खेती से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात, भूमि के
गुण-धर्म की पहचान, खेती के साधन,
उसकी प्रक्रिया, कठिनाइयाँ आदि सभी आवश्यक बातें आ गई हैं| सूर ने विभिन्न
पौधों की प्रकृति और वर्षा से उनके संबंध जैसे गूढ़ ज्ञान के माध्यम से कृष्ण के
बिना गोपियों की दशा को अभिव्यक्त किया है– ‘सूखति सूर धान अंकुर सी, बिनु बरसा ज्यों मुल तुई।’ अर्थात् धान का पौधा
पानी की कमी से मुरझाकर मर जाता है। सूर ने प्रेम और योग को एक साथ साधने की व्यर्थता
को-‘सूरदास
तीनौ नहिं उपजत धनियाँ धान कुम्हाड़े।’ – के द्वारा व्यक्त किया है |
तुलसी के काव्य की लोकप्रियता का एक अहम कारण कृषि
संबंधी वस्तुओं का रचनात्मक उपयोग है | उन्हें ‘ईति’ अर्थात् फसल को नुकसान करने
वाले छह संकटों-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहों, टिड्डियों, पक्षियों और राजा के
आक्रमण- से कृषि और किसान को होने वाली दुर्दशा का गहरा एहसास था | वे रामचरितमानस
के प्रारभ में खलों की विशिष्टता के द्वारा ओले से फसल को होने वाले नुकसान की
बाते करते है-“पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं||”
हम विद्यालयी जीवन से ही रटते आये है कि भारतीय कृषि
मानसून के साथ जुआ है | समुचित वर्षा होने पर ही अन्न की उपज ठीक से हो सकती है।
अत: वर्षा कब होगी, होगी
कि नहीं होगी, कितनी
मात्रा में होगी- इसका ज्ञान होना कृषि कर्म के लिए बहुत आवश्यक है। रीतिकालीन कवि
घाघ और भड्डरी की कृषि एवं ऋतु संबंधी उक्तियाँ कृषि जीवन में एक ज्योतिष विज्ञान
की तरह कार्य करती रही है और करती हैं | इसमें महाकवि घाघ के खेती, सूखा, अतिवृष्टि, कृषि
कार्य से जुड़े अच्छे एवं स्वस्थ पशुओं की पहचान, अच्छे बीजों की पहचान, कृषि की फसलों की पैदावार कम या अधिक
होने के संबंध में तथा फसलों की बुआई, कटाई और मडाई के उपयुक्त समय के बारे में ज्ञान भी होता है | उनकी
रचनाओं में बारिश की सटीक भविष्यवाणी देखी जा सकती है-“आदि
न बरसे अद्रा, हस्त
न बरसे निदान। कहै घाघ सुनु घाघिनी,
भये किसान-पिसान||””
इसीप्रकार “जब बरखा चित्रा में होय।
सगरी खेती जावै खोय||” अर्थात
यदि चित्रा नक्षत्र में वर्षा होती है तो संपूर्ण खेती नष्ट हो जाती है। इसलिए कहा
जाता है कि चित्रा नक्षत्र की वर्षा ठीक नहीं होती। यही नहीं, कौन सा अनाज कितनी
मात्रा और कितनी दूरी पर बोया जाए, इसका भी
घाघ ने बेहद बारीकी से विवेचन किया है|
आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त ‘साकेत’ में होने वाली
फसल की स्थिति का जायजा सीता के मुख से लेते है-“कैसी हुई उपज कपास, ईख, धान की?”
तब किसान भी अन्न, गुड़ और दूध की वृद्धि की सूचना देते है | छायावादी साहित्य या
यों कहा जाय कि आधुनिक हिदी साहित्य भारतीय किसान जीवन के बिना सम्पूर्ण नहीं होता
। आधुनिक हिदी साहित्य ने कृषक संस्कृति के विभिन्न पक्षों और उसकी दारुण व्यथा को
नए सिरे से साहित्य का विषय बनाया | कामायनी में जिस व्यापक संस्कृति को आधार
बनाया गया है उसमें कृषि संस्कृति का व्यापक महत्व है | कृषि-व्यवस्था केवल
अर्थव्यवस्था नहीं होती, बल्कि
एक मुकम्मल सभ्यता-संस्कृति होती है| निराला का कृषक जीवन से अनन्य सम्बन्ध है, चाहे कविता 'बादल राग' हो या उपन्यास 'बिल्लेसुर बकरिहा’ । एक
किसान के लिए बादलों के उमड़-घुमड़ कर बरसने का क्या महत्त्व होता है, इसे 'बादल राग' में देखा जा सकता है | निराला ने किसानों के
कार्य क्षेत्र के बीच सरस्वती की प्रतिष्ठा की है। जिस तरह तुलसी ने अन्नपूर्णा को
राजमहलों से निकालकर भूखे-कंगालों के बीच स्थापित किया उसी तरह निराला ने सरस्वती
को मंदिरों, पूजा-पाठ
के कर्मकांड से बाहर लाकर खेतों-खलिहानों में श्रमजीवी किसानों के सुख-दुख भरे
जीवन क्षेत्र में स्थापित किया -
हरी-भरी खेतों की सरस्वती लहराई
मग्न किसानों के घर उन्मद बजी बधाई
प्रेमचंद ने कृषक संस्कृति को साहित्य के केंद्र में
प्रतिष्ठित किया और यह सन्देश दिया है कि कृषि-व्यवस्था और किसान के बिना भारतीय
संस्कृति का कोई भी विश्लेषण अधूरा होगा। भारत की संस्कृति का मुख्य पक्ष कृषि
संस्कृति है जिसे बनाने में किसान-समाज की भूमिका है। उनके पहले तथा उनके बाद किसी
भी रचनाकार ने इतने विस्तार से किसान जीवन को आधार बनाकर हिंदी में साहित्य-सृजन नहीं
किया। केदार नाथ अग्रवाल की कविता ‘बसंती
हवा’ एक
साथ महुआ और आम से लेकर अरहर, अलसी और सरसों की फसलों के मिले-जुले नैसर्गिक
सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है | बाद में रेणू ने ‘मैला आँचल, जगदीश चन्द्र ने ‘धरती धन न अपना’ और
‘कभी न छोड़े खेत’, शिवप्रसाद सिंह ने ‘अलग-अलग वैतरणी’ और विवेकी राय ने ‘लोकऋण’
में कृषक संस्कृति के विविध और बदलते पहलुओं पर प्रकाश डाला है |
इस प्रकार हिंदी वांडमय प्रारंभ से ही गाँव और किसानी
जन-जीवन के साथ-साथ ऋतुओं, फसलों, नदियों, इनसे जुड़े गीतों, पर्व-त्योहारों आदि से जुड़ा
हुआ रहा है | लेकिन आज विडम्बना है कि जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था और उसके
विमर्श में कृषि और किसान हाशिए पर चला गया है वैसे-वैसे हमारे हिंदी साहित्य से
ये सब धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं| आज का अधिकांश साहित्य नगरों में रहने वाले ऐसे
लेखकों द्वारा रचा जा रहा है जो ग्रामीण संस्कृति और इस तरह कृषि संस्कृति से पूरी
तरह से कट गए है | इसलिए उनकी रचनाओं से कृषि गतिविधियों के साथ ही ऋतुओं, फसलों, नदियों, इनसे जुड़े गीतों, पर्व-त्योहारों आदि का
वर्णन भी पिकनिक मानने जैसा हो गया है |
No comments:
Post a Comment