Thursday, 22 March 2018

जल....... सहज सुलभ प्राकृतिक संसाधन से दुर्लभता की ओर

प्राणी जगत के लिए जल प्रकृति प्रदत्त एक अनमोल उपहार है। राम चरित मानस में जब गोस्वामी तुलसीदास कहते है कि "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा-पंच तत्व से बना शरीरा" तो जल की महत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है कि मनुष्य सहित पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जंतु एवं वनस्पति का अस्तित्व जल के बिना संभव नहीं है। यही नहीं, जल की अमूल्यता इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि विश्व की सभी संस्कृतियों और सभ्यताओं का जन्म भी प्रमुख नदियों के किनारे ही हुआ था। जल की महत्ता का उल्लेख हमारे प्राचीन वांड्मय में अक्सर हुआ है| जल एक प्राकृतिक एवं अमूल्य संसाधन है जो सजीव जगत की जीविका, खाद्य सुरक्षा और निरंतर विकास का आधार है। यह किसी भी राष्ट्र के आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक विकास एवं प्रगति का एक आधारभूत संकेतक भी है।
बढ़ती आबादी के दबाव, बड़े पैमाने पर शहरीकरण, बढ़ती आर्थिक गतिविधियाँ, उपभोग की बदलती प्रवृत्तियाँ, रहन-सहन के स्तर में सुधार से स्वच्छ पेयजल की बढ़ती माँग, जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की घटती मात्रा, कृषि के लिए सिंचित क्षेत्र के विस्तार एवं जल की अधिकांश माँग करने वाली फसलों की पैदावार आदि से जल की माँग का दायरा बढ़ा है | लेकिन धरती के तीन चौथाई हिस्से पर पानी भरा होने के बावजूद भी महासागरों का पानी खारा होने के कारण हमारे किसी काम का नहीं। धरती पर उपलब्ध पानी का मात्र 2.7% हिस्सा ही मीठा है। मीठे पानी का लगभग 22.6% पानी भूमिगत जल के रूप में है। 52% झीलों और तालाबों में और 1% नदियों में निहित है। इसलिए आज का विश्व जल संकट की समस्या से त्रस्त है। गोल्डमैन सैक्स ने एक बार पानी को अगली शताब्दी का पेट्रोलियमकहा था, जिसके लिए युद्ध भी हो सकते हैं। तीसरी दुनिया के देशों में यह संकट अधिक गंभीर हैं। भारत के कई राज्य जल संकट की त्रासदी भोग रहे हैं। कावेरी से लेकर रावी, व्यास, कृष्णा और कई अन्य नदियों के पानी पर अधिकार को लेकर अनेकों बार हिंसात्मक टकराव हो चुके है। यह विडम्बना है कि सूचना प्रौद्योगिकी में अग्रणी देश होने के बावजूद भारत सभी के लिए जल की व्यवस्था करने में काफी पीछे है। प्राचीन काल से पेय जल के लिए इस्तेमाल होते आ रहे सतही और भूजल जैसे परम्परागत स्रोत सूखते और प्रदूषित होते जा रहे है जबकि आज भी देश में कई बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल है।
संकट की गम्भीरता का सबसे अधिक असर कृषि और पेयजल की उपलब्धता पर होता है |  देश में उपलब्ध पानी का 80 % खेती में इस्तेमाल होता है जबकि उद्योग इस पानी का 10 % से भी कम इस्तेमाल करते हैं| किन्तु पानी को प्रदूषित करने में उद्योगों का रवैया सबसे अधिक असंवेदनशील है | एक ओर कृषि उत्पादकता में कमी की स्थिति में न केवल किसानों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित होती है, बल्कि देश को अनाज के लिए अन्य देशों से आयात पर निर्भर होना पड़ता है, महंगाई में वृद्धि, आय की विषमता में भी वृद्धि होती है |
लेकिन जल का मौजूदा संकट सिर्फ बारिश की कमी और मांग के बढ़ने की वजह से ही नहीं है, बल्कि समुचित जल प्रबंधन की कमी की सबसे बड़ी भूमिका है | दूसरे शब्दों में संकट का मुख्य कारण भारत में जल के उपयोग की क्षमता का काफी कम होना हैं | भारत में वर्षा से प्रतिवर्ष औसतन 4,000 अरब घन मीटर जल  प्राप्त होता है। लेकिन भंडारण प्रक्रिया की कमी, पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी, अनुचित जल प्रबंधन के कारण वास्तव में केवल 18-20% जल का ही समुचित उपयोग किया जाता है जबकि कुल वर्षा जल के 5 प्रतिशत से भी कम जल का संरक्षण कर पाते हैं। शेष जल बहकर बर्बाद हो जाता है | जलप्रबंधन के लिए अब तक कोई क्रांतिकारी प्रयास नहीं किए जाने की मुख्य वजह यह रही है कि खनिज संसाधनों की तरह जल के उपयोग और योगदान को सकल घरेलू उत्पाद में जोड़ा नहीं जाता है |
जल प्रबंधन का सरल सिद्धांत यह है कि पानी जहां गिरता है,  उसे आगे बढ़ने से रोकना है| धरती पर गिरने वाले वर्षा जल की प्रत्येक बूंद को रोका जा सकता है। लेकिन जल निकायों को रिचार्ज करने में असफलता और अनियंत्रित शहरीकरण से जहाँ जल खपत में अनियंत्रित वृद्धि हुई है और उत्सर्जित जल के परिवहन, शोधन एवं निस्तारण करने वाले ढाँचें की अपर्याप्तता से संकट विकराल होता गया है, वहीँ पारम्परिक जल संग्रहण संरचनाओं की उपेक्षा एवं उनकी जलग्रहण क्षमता में कमी के कारण भी हमारी जल-प्रबंधन की प्रक्रिया बाधित हुई है| यही नहीं, असमान बंटवारे और पानी के अवैध इस्तेमाल ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है| मानसून के दौरान दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े नगर हर साल भारी जल जमाव से थम जाते है, लेकिन अभी तक उस पानी को संगृहीत एवं शोधन करके उपयोग में लाने का आधारभूत ढांचा विकसित नहीं हो पाया है|
भारत में जल की अधिक माँग वाली फसलों-धान, गेहूं, गन्ना और कपास- की खेती, नहरों से जल आपूर्ति की अनियमितता के साथ-साथ ही जलस्रोतों पर माफियाओं के कब्जे आदि ने सिंचाई के लिये भूजल पर निर्भरता बढ़ा दी है| यदि भूमिगत जल के दोहन की मौजूदा गति बनी रहती है, तो भारत में 2050 में वर्तमान में उपलब्ध प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी का 22% ही उपलब्ध होगा और संभवतः देश पानी आयात करने के लिए मजबूर हो जाएगा। दूसरी ओर नहरों और जलाशयों के जरिये सतह और वर्षा जल का उपयोग करने के लिए पर्याप्त निवेश नहीं किया गया है। नहरों से खेतों तक पहुँचते-पहुँचते लगभग 70 प्रतिशत जल के रिसाव के साथ ही किसानों द्वारा खेतों में आवश्यकता से अधिक पानी भर लेने की प्रवृति से बर्बादी बढ़ती गई है |

कृषि सिंचाई के लिए फव्वारा सिंचाई प्रणाली, ड्रिप-इरीगेशन या टपक सिंचाई पद्धति को विस्तार देने के लिए जिस भारी निवेश की जरूरत है, उससे सरकारें अभी तक बचती रही है | इस विधि के उपयोग द्वारा जल की 30 से 75 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। पानी की हर एक बूंद से अधिक उत्पादन (पर ड्राप मोर क्रॉप) की प्रक्रिया तभी सफलीभूत हो सकती है जब सिंचाई के ढाँचे में आमूल बदलाव किया जाय | शहरों के सीवेज के साथ ही अधिक जल उपयोग वाले उद्योगों को, जो जल उपयोग करने और प्रदूषण रोकने हेतु मानकों का पालन नही करते हैं, जल स्रोतों के रिचार्ज से लेकर इस्तेमाल किए गए जल के शोधन और निस्तारण के लिए बाध्य किया जाना चाहिए| सिंगापुर में 20 फीसदी पेय जल गंदे नालों के पानी को नवीनतम अतिसूक्ष्म फिल्टरों द्वारा शुद्ध बनाकर प्राप्त किया जाता है। चीन कृषि और औद्योगिक कार्यों के लिए नए सोनेके उत्पादन और सरंक्षण को लेकर काफी गंभीर है। पिछले एक दशक मे अमेरिकी मोटर कं फोर्ड मोटर्स ने जीवन-शक्ति पानी के इस्तेमाल को कम करने के लिए वर्ष के प्रत्येक दिन को जल दिवस घोषित कर दिया था । इस प्रकार जल के समुचित प्रबंधन से आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ मानव विकास और विभिन्न क्षेत्रों में पानी के उपयोग के स्तर भी सुनिश्चित होता है| 

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