Monday 29 January 2018

भारतीय गणतंत्र............भारतीयता की विशिष्ट पहचान


गणतंत्र भारत के लिए कोई नई अवधारणा नहीं है| इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि भारत में गणराज्य की परम्परा 600 ईसा पूर्व से पहले से चली आ रही है | ये गणराज्य क्लासिक एथेंस व रोमन गणतंत्र से भी प्राचीन है | पुरातन साहित्य इस तथ्य के साक्ष्य है कि पाणिनि और बुद्ध के काल में अनेक गणराज्य थे। इसमें सबसे उल्लेखनीय है वैशाली (बिहार) का वज्जि और लिच्छवी गणराज्य । ये गणराज्य भारतीय समाज की प्राचीन राजनीतिक परंपराओं के वैचारिक उत्कर्ष थे जो यह साबित करते है कि भले भी वह आज के आधुनिक गणतंत्रों की तरह वयस्‍क मताधिकार पर आधारित नहीं थे लेकिन वह अपने युग में 'विशुद्ध राजतंत्र' के राजनैतिक और सामाजिक विकल्प थे | 1830 के दशक में भारत के गवर्नर जनरल रहे सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा, ‘ग्रामीण समुदाय कुछ हद तक गणराज्य थे, जो वे चाहते, वे सारी चीजें उनके पास होतीं और किसी भी तरह के विदेश संबंध से वे आजाद थे।ये वही आत्मनिर्भर, स्व-शासित ग्रामीण गणराज्य थेजिन्होंने महान भारतीय सभ्यता की निरंतरता और अस्तित्व को बनाए रखा। इस तरह गणतंत्र भारतवासियों के डीएनए में मौजूद है। यहां तक कि तुर्क और मुग़ल से लेकर सबसे शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य भी इसे ध्वस्त नहीं कर सके | पहले साम्राज्यवादी और बाद में वामपंथी इतिहासकारों ने बार-बार यह भ्रम फ़ैलाने की कोशिश की कि भारत एक राजनैतिक इकाई के रूप में सदा 'निरंकुश राजाओं' से शासित रहा है | उनका हित इस परिकल्पना में ही सधता था कि भारतीय समाज अपने में ही खोया हुआ समुदाय रहा है जिसमें आम सहमति से निर्णय लेने का अभाव था |
लेकिन 26 जनवरी को मनाया जाने वाला गणतंत्र का राष्ट्रीय उत्सव पूर्व के गणराज्य से इस अर्थ में गौरवपूर्ण है कि यह त्याग, बलिदान और शहादत से अर्जित किया हुआ गणतंत्र है | यह औपनिवेशिकता के अँधेरे से मुक्त होने के बाद स्वयं को प्रभुता-संपन्न होने की घोषणा का उत्सव है | यह उत्सव मानवहृदय की उस मूल भावना का प्रतीक है कि निरकुंश और असीमित राज्यव्यवस्थाओं वाले साम्राज्यों और सम्राटों के दमन के बावजूद हमारी मूल गणतांत्रिक परंपरा अभी भी अक्षुण्ण है। गणतंत्र का अर्थ वह शासन पद्धति जहाँ राष्ट्रप्रमुख वंशानुगत या तानाशाही तरीके से सत्ता पर कब्जा करके न आया हो बल्कि उसका निर्वाचन सीधे जनता द्वारा या जनता के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है | संविधान निर्माताओं को विश्वास था कि भविष्य की आने वाले पीढ़ियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा एक गणतांत्रिक शासन पद्धति में ही सम्भव है क्योंकि वे इस तथ्य से भली-भांति अवगत थे कि यह गणतंत्र भारतवासियों के डीएनए में मौजूद है। इसप्रकार भारतीय गणतंत्र महज एक राजनीतिक चेतना या प्रशासनिक तंत्र नहीं है, बल्कि यह भारत की अपार सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत, धर्म, आपसी सद्भाव, भाईचारा, प्रेम, सच्चाई, अनुभूति और अध्यात्म की वह अंतरयात्रा है, जिससे गुजरकर हर भारतीय स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है| यह गणतंत्र भारतीयता की उस चेतना से संवलित है जिसके बिना भारतीय नागरिक का अस्तित्व शून्य है|
आजादी पाने के बाद पिछले 70 वर्षों में भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन 7 दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। कृषि में आत्‍मनिर्भर होने के साथ ही दुनिया के सबसे तेजी से विकासशील देशों की श्रेणी में भारत को शुमार किया जाने लगा है। विगत दिनों दावोस में वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (WEF) में आर्थिक जगत की वैश्विक ताकतों ने सबसे अधिक भारत की सामर्थ्य और क्षमता के प्रति उम्मीदें जतायी है| भारत की आर्थिक प्रगति और विकास दर के साथ-साथ सांस्कृतिक विशालता और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी अन्य विकासशील देशों के लिए प्रेरक तत्व बने हुए हैं। अर्थात् भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया बहुत बदला है।
फिर भी वर्तमान परिवेश में ऐसा लगता है गण और तंत्र के बीच संपर्क सूत्र कही विछिन्न सा हो गया है | संविधान का गणतांत्रिक भारत कहीं लुप्त हो रहा है| किसी भी गणतंत्र का संविधान हमें दिशाबोध देता है लेकिन चलने की ऊर्जा और आत्मानुशासन तो हम सब पर निर्भर करता है | किन्तु ऐसा लगता है कि हम भटकते जा रहे है | हमारा आत्मानुशासन कमजोर पड़ता जा रहा है और विकास एवं विश्वास के धीरे-धीरे बढ़ते वृक्ष के बीच भी भ्रष्टाचार और असंवेदनहीनता का विष भी समाज में घुलता जा रहा है | आज देश की अखंडता, समता और सहिष्णुता को खुली चुनौती दी जा रही है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिमायती गण आतंकियों की फांसी पर सवाल खड़े करने वाले, देश को टुकड़े करने का नारा लगाकर देश की गणतांत्रिक ताने-बाने को नष्ट करने का कुचक्र किया जा रहा है | देश के विद्यालयों से नीति शिक्षाओं और सर्वोच्च मानवीय आदर्शों से युक्त प्रार्थनाओं को सांप्रदायिक ठहराने वाले और सत्यमेव जयते के आदर्श से किनारा करने वाले गण से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे गणतंत्र को मजबूती प्रदान कर सकेंगे ? सार्वजनिक धन का शर्मनाक हद तक दुरुपयोग, सार्वजनिक भवनों व अन्य संपत्तियों को बपौती मानकर निर्लज्जतापूर्ण उपभोग करने वाले भ्रष्टाचारी क्यों मानवाधिकार प्राप्त करने के अधिकारी हैं? ईमानदारी केवल कागजों में सिमट गई है और भ्रष्टाचरण से पूरा समाज आच्छादित हो गया है। देश के समक्ष आतंकवादी घटनाएं बड़ी चिंता एवं चुनौती का विषय है | देश का अन्नदाता किसान कर्ज के असहनीय बोझ के चलते आत्महत्या करने को विवश है| देश में प्रतिवर्ष हजारों-लाखों टन अनाज देखरेख के अभाव में गोदामों में सड़ जाने की विडंबना के बीच भूख और कुपोषण की समस्या राष्ट्रीय शर्म का विषय बन चुकी है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवायें आम आदमी की पहुँच से बाहर गई हैं | हाल ही छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अमीरों और गरीबों के बीच खाई इस कदर तेजी से बढ़ी है कि वर्ष 2017 में देश में सृजित संपत्ति का 73% मात्र 1% लोगों के पास चला गया | यह बहुत ही चिंताजनक है कि देश की बाकी बची सिर्फ 27% संपत्ति से सवा अरब लोगों की बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी होंगी? गरीबी मनुष्य की गरिमा का अनवरत अपहरण कर रही है | यह गौरवमयी गणतंत्र के लिए बेहद शर्मिन्दगी का विषय है।
साम्प्रदायिक, जातीय, बाज़ारू, घरेलू और सामाजिक स्तर पर लोगों का हिंसात्मक व्यवहार गणतंत्र की सफलता के समक्ष एक कठिन प्रश्नचिन्ह है | यद्यपि अधिकांश भारतीय समाज अहिंसक है लेकिन हमारा समाज पहले के किसी भी समय से अधिक हिंसक हो गया है और लोगों की सहनशीलता, आन्तरिकता और संवेदना का इस कदर क्षरण होता जा रहा है कि मानवीय गरिमा ही धूमिल होती जा रही है | हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा गणतंत्र की परिकल्पना और उसकी स्थापना के पीछे मूल दर्शन यह था कि देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी भीतर निहित समस्त सकारात्मक संभावनाओं के विकास के लिए एक समान अनुकूल वातावरण मिल सके, जिसे राज्य और जन के बीच पारस्परिकता के बिना गणतंत्र को सशक्त नहीं किया जा सकता  है |


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