19 वीं शताब्दी में भारत में धार्मिक और सामाजिक सुधार
की मोटे तौर पर दो धाराएँ थी | जिसमें एक के अग्रदूत राजा राम मोहन राय थे जो
आधुनिकता चेतना और सुधार के पश्चिमी प्रारूप के समर्थक थे और प्राच्य शिक्षा एवं
ज्ञान को आधुनिक चेतना के विकास में बाधक मानते थे | इसके विपरीत अन्य धारा थी जो
परंपरागत धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं को पुनर्गठित और संस्कारों को परिष्कार करना
चाहते थे | इस धारा के प्रतिनिधि स्वामी दयानंद थे | दोनों ही धाराएँ अपने अपने
दृष्टिकोण से भारतीय समाज की बुराइयों और कुरीतियों से संघर्ष कर रही थी | लेकिन स्वामी
विवेकानंद इन दोनों ध्रुवों से अलग भारतीय जीवन और दर्शन को उसकी सम्पूर्णता देखते
हुए और युगीन सन्दर्भों में व्याख्यायित करते हुए राष्ट्रीय चरित्र से जोड़ने का
प्रयत्न किया | मानवतावाद, विश्व-बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम की उनकी परिकल्पना
देश की परम्पराओं और गहरे यथार्थ बोध से विकसित है | भारतीय समाज के साथ-साथ विश्व
समाज को भी भारत के सनातन मूल्यों से अवगत कराकर इतिहास के पन्नों में वे ऐसे महान
व्यक्तित्व के रूप में अंकित हुए जिसने अपने ओजस्वी विचारो के द्वारा दुनिया के
पटल पर भारत का नाम बुलंदियों के शिखर पर पहुँचाया ।
स्वामी विवेकानंद असीम ऊर्जा और विराट विद्वता के
अद्भुत संगम थे| असीम एवं रहस्यमयी ऊर्जा उन्हें अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस
से मिली थी जबकि उनकी विद्वता का स्रोत भारतीय ऋषियों द्वारा युगों से विकसित
विराट विरासत है | उनके मानस-पटल पर भारत का स्वर्णिम अतीत अंकित तो था ही,
साथ ही वे
अपने युग की पराधीनता की पीड़ा तथा उसके परिणामस्वरूप घटित आर्थिक दुर्दशा,
सामाजिक विघटन
और सांस्कृतिक अध:पतन से भी चिन्तित थे। औपनिवेशिक राज के दौरान राजनीतिक के साथ-साथ सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक सभी स्तरों पर भारतीय समाज जड़ता और पतन के गर्त में
पहुँच गया था | इसके ऊपर कथित रूप से पाश्चात्य संस्कृति की सर्वश्रेष्ठता की
भावना और भारतीय संस्कृति को लेकर हीनता की ग्रंथि से भारतीय समाज ग्रस्त हो चुका
था, जिससे बाहर निकालने, देश के नागरिकों में अपनी संस्कृति की महानता के प्रति
सम्मान की भावना को पुनः स्थापित करने के लिए और राष्ट्रीयता के विकास के लिए विवेकानंद
प्रथमतः देश और समाज को शिक्षित करना चाहते थे | उनका मत था कि देश की जनता को दो तरह के ज्ञान की आवश्यकता है-सांसारिक
ज्ञान, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो तथा आध्यात्मिक ज्ञान, जिससे उनका आत्मविश्वास मजबूत हो। वे मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा
व्यवस्था के विरोधी थे| उनके लिए शिक्षा का
उद्देश्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानंद
ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए
तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर
सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ? उनका दृढ़ विश्वास था कि देश की भौतिक समृद्धि उतना ही आवश्यक है जितना
व्यक्ति और समाज की आध्यात्मिक उन्नति। वे प्राय: कहा करते थे-“रोटी का
प्रश्न हल किये बिना भूखे मनुष्य धार्मिक नहीं बनाये जा सकते। इसलिए रोटी का
प्रश्न हल करने का नया मार्ग बताना सबसे मुख्य और सबसे पहला कर्तव्य है|”
स्वामी विवेकानंद के विचार, दर्शन और आदर्श भारत की अमूल्य सांस्कृतिक और पारंपरिक
धरोहर हैं। उनके विचार और दर्शन
40 वर्ष से भी
कम आयु में ही व्यक्त किए गए है | उन्होंने हमेशा युवाओं पर अपना ध्यान केंद्रित
किया और अपनी ओजस्वी वाणी से युवाओं को उत्साहित किया | यही कारण है कि देश की समृद्ध
ऐतिहासिक परंपरा को आगे बढ़ाने और नेतृत्व करने के द्वारा देश के भविष्य को बेहतर
बनाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये भारतीय सरकार ने स्वामी विवेकानंद के जन्म
दिवस 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रुप में मनाने का फैसला
किया था। युवा दिवस के रूप में उनके
जन्मदिवस का चुनाव करने के पीछे भारत सरकार का विचार था कि स्वामी विवेकानंद का
दर्शन एवं उनका जीवन भारतीय युवकों की असीम ऊर्जा को जागृत करने के लिए प्रेरणा
का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है|
धर्म को
लेकर स्वामी विवेकानंद का मंतव्य बिल्कुल स्पष्ट था| उनका मानना था कि धर्म
के मूल लक्ष्य के विषय में सभी धर्म एकमत हैं। आत्मा की भाषा एक है जबकि राष्ट्रों
की भाषाएँ विभिन्न हैं, उनकी परम्परायें और जीने की शैली भिन्न है। धर्म
आत्मा से सम्बन्धित है लेकिन वह विभिन्न राष्ट्रों, भाषाओं और
परम्पराओं के माध्यम से प्रकट होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार के सभी
धर्मों में मूल आधार एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं। विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा
के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनके लिए मानव सेवा ही र्इश्वर
सेवा था । वह भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र
मनुष्य और सब प्रकार के मनुष्यों के रूप में तुम्हारे सामने खड़ा है। इसलिए
उन्होंने कहा-“तुम्हें सिखाया गया है कि अतिथि देवो भव, मातश् देवो
भव, पितश् देवो भव, पर अब मैं तुमसे कहता हूँ दरिद्र
देवो भव|”
स्वामी विवेकानंद
का हिन्दू धर्म के साथ-साथ वेदों और उपनिषदों पर अटूट विश्वास था। शिकागो में 1893
में शिकागो
धर्म सम्मलेन में उन्होंने भारत को "हिन्दू राष्ट्र " के नाम से
सम्बोधित करते हुए हिन्दू धर्म एवं संस्कृति और भारत की आध्यात्मिक परम्परा की
श्रेष्ठता को पूरी दुनिया में स्थापित किया | विश्व धर्म सम्मेलन में कहा कि मुझे
गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं,
जिसने दुनिया
को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। अपनी वाणी की तेजस्विता से
सबको बहा ले जाने की अद्भुत क्षमता को देखते हुए धर्म संसद के प्रतिनिधियों ने
उनका उल्लेख ‘भारत के तूफानी साधु’ के रूप में किया है | उनके द्वारा वेदान्त
दर्शन की गई सार्वभौमिक व्याख्या भारतीय दर्शन की एक अनमोल धरोहर है।
वे वेदांत के ज्ञान को
सदियों से शास्त्रीयता के खोल से मुक्त करना चाहते थे और सामाजिक एवं पारिवारिक
जीवन में पहुँचाना चाहते थे | हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक व्याख्यान में
उन्होंने कहा था-अमूर्त अद्वैत का हमारे दैनन्दिन जीवन में जीवंत-काव्यात्मक-हो
जाना आवश्यक है, अत्यधिक जटिल पौराणिकता में से मूर्त नैतिक रूप निकलने चाहिए | इसप्रकार
अपने नव्य वेदान्त दर्शन में उन्होंने आधुनिक वैज्ञानिक खोजों तथा
समकालीन विचारों को स्थान दिया। स्वामी विवेकानंद धर्म को भारत जीवन, समाज और राष्ट्र का
प्रधान-स्वर मानते हैं। वे मानते थे कि यदि कोर्इ राष्ट्र अपनी स्वभाविक जीवन
शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करे तो वह राष्ट्र काल-कवलित हो जाता है।
स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण के उपदेशों और शिक्षाओं का प्रसार
करने के लिए पूरे भारत का तूफानी भ्रमण किया और पूरे देश के राग-रंग को अपने भीतर
समेट लिया था | यह अन्यायास नहीं था कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विवेकानंद के
जीवनीकार रोमां रोलां से कहा था—“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानंद का अध्ययन करना चाहिए | उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे
|”” विवेकानंद की समझाने वाली विचार शैली में बहुमुखी संवेदनशीलता प्रकट होती
है | "लाइफ ऑव विवेकानंद ऐंड दि युनिवर्सल गास्पेल” में रोमां
रोलां लिखते है कि “विवेकानंद के शब्दों में महान संगीत है, बिटोवेन की शैली के स्वर समूह,
हैंडल के समवेत गीतों जैसी स्फूर्तिदायक लयें हैं|” जो भावुकता पैदा नहीं करती हैं बल्कि
चेतना का स्पंदित करती है |
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