भारतीय सामाजिक व्यवस्था और कानून–परंपरा को लेकर अक्सर एक ही ग्रंथ—मनुस्मृति—को केंद्र में रखकर बहस की जाती है, जबकि वास्तविकता कहीं अधिक व्यापक, जटिल और बहुस्तरीय है। भारत की बौद्धिक परंपरा में सामाजिक, नैतिक और व्यवहारिक नियमों पर सैकड़ों चिंतकों ने अपने-अपने समय, समाज और परिस्थितियों के अनुसार विचार रखे। इन विचारों को स्मृतियों के रूप में संकलित किया गया, जो किसी एक व्यक्ति या सत्ता का आदेश नहीं, बल्कि विचार–परंपरा का संग्रह थीं।
स्मृतियों की बहुलता और प्रकृति
मनुस्मृति के अलावा भी अनेक महत्वपूर्ण स्मृतियाँ हैं—जैसे याज्ञवल्क्य स्मृति, पराशर स्मृति, विष्णु स्मृति, नारद स्मृति, बृहस्पति स्मृति, कात्यायन स्मृति, देवल स्मृति, अंगिरस स्मृति, यम स्मृति, गौतम स्मृति, दक्ष स्मृति, हारीत स्मृति, शंख स्मृति, अत्रि स्मृति, संवर्त स्मृति, शातातप स्मृति आदि। ये सभी ग्रंथ अलग-अलग कालखंडों, सामाजिक संरचनाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप रचे गए थे। इनमें कानून, आचार, दंड, पारिवारिक संबंध, संपत्ति, न्याय और सामाजिक कर्तव्यों पर विचार मिलते हैं—पर ये एक-दूसरे से भिन्न भी हैं, कई जगह विरोधाभासी भी।
यही तथ्य स्पष्ट करता है कि स्मृतियाँ स्थिर कानून नहीं थीं, बल्कि विचारों का प्रवाह थीं। समय, स्थान और समाज के अनुसार इनमें चयन, संशोधन और व्याख्या की गुंजाइश हमेशा बनी रही।
औपनिवेशिक हस्तक्षेप और “डिवाइड एंड रूल”
औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने भारतीय समाज को समझने के बजाय उसे सरलीकृत और विकृत रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी डिवाइड एंड रूल नीति के तहत स्मृति–परंपरा की बहुलता को नजरअंदाज कर मनुस्मृति को प्रतीकात्मक रूप से चुन लिया। इसके बाद कुछ चयनित अंशों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया, भारतीय सहायकों के माध्यम से उनका प्रचार कराया गया और फिर उसी विकृत छवि के आधार पर विरोध और दहन जैसे नाटकीय प्रसंग खड़े किए गए। इसका उद्देश्य भारतीय समाज को भीतर से विभाजित करना था, न कि उसकी बौद्धिक परंपरा को समझना।
आज की बहस और अधूरा दृष्टिकोण
दुर्भाग्यवश, आज भी वही संकीर्ण दृष्टि जारी है। जब मनुस्मृति के अलावा अन्य स्मृतियों की बात की जाती है, तो अक्सर उत्तर मिलता है—“ये क्या हैं, हमने तो नाम ही नहीं सुना।” यह स्थिति हमारी ऐतिहासिक स्मृति और बौद्धिक आलस्य को उजागर करती है।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कहीं भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि भारत में किसी काल में शासन केवल और केवल किसी एक स्मृति के आधार पर चला हो। वास्तविक शासन व्यवस्था सदैव राजनीतिक परिस्थितियों, लोकाचार, परंपराओं और व्यवहारिक जरूरतों से संचालित रही।
स्मृतियाँ: कानून नहीं, विचार–संग्रह
स्मृतियों को आधुनिक अर्थों में कानून की किताब समझना एक बुनियादी भूल है। वे अधिकतर नैतिक–सामाजिक विमर्श हैं—ठीक वैसे ही जैसे आज कानून पर वकीलों और विद्वानों द्वारा लिखी गई अलग-अलग किताबें, टीकाएँ और व्याख्याएँ होती हैं। किसी एक पुस्तक को अंतिम और सार्वभौमिक सत्य मान लेना न तो भारतीय परंपरा के अनुरूप है, न ही बौद्धिक ईमानदारी के।
निष्कर्ष
भारतीय समाज को समझने के लिए स्मृतियों को एकांगी नहीं, समग्र दृष्टि से देखना आवश्यक है। मनुस्मृति हो या कोई अन्य स्मृति—सब अपने समय की उपज हैं, स्थायी शासनादेश नहीं। इन्हें लेकर की जाने वाली आज की बहसें यदि ऐतिहासिक संदर्भ, बहुलता और विचार–परंपरा को ध्यान में रखकर हों, तभी वे सार्थक और ज्ञानवर्धक बन सकती हैं।
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