Tuesday 15 January 2019

गठबंधन का गड़बड़झाला

घटना आज से 21 साल पहले 2 जून 1995 की है, लखनऊ के गेस्टहाउस में वर्तमान बसपा प्रमुख के साथ जो हुआ वह राजनीति की निर्ममता का एक उदाहरण मात्र था | दरअसल, 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा गठबंधन की जीत हुई और मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे | लेकिन कांसीराम और मायावती की अतिशय महत्वाकांक्षाओं के कारण 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से किनारा क लिया और समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। इसी दिन दैनिक जागरण में मुलायम सिंह यादव का इसी गेस्टहाउस में तत्कालीन बसपा प्रमुख कांसीराम और मायावती के समक्ष अपना कान पकड़े हुए एक फोटो छपा था, जिसे देखकर मुलायम सिंह के समर्थकों का खून खौल गया। मुलायम सिंह का इशारा पाकर उनके समर्थक गुंडों ने 2 जून , 1995 की सुबह ही गेस्ट हाऊस में ठहरीं मायावती पर हमला बोल दिया। उस समय कांसीराम तत्कालीन सरकार से समर्थन वापसी का फैसला लेकर लखनऊ से दिल्ली चले गए थे | मुलायम के समर्थक गुंडों ने मायावती के कपड़े पूरी तरह से फाड़ दिए थे और मायावती के साथ न जाने क्या करने वाले थे | उत्तर प्रदेश के डीजीपी से लेकर लखनऊ के तत्कालीन एसएसपी तक सभी इस घटना को जानते हुए भी ख़ामोश थे । लेकिन तभी उसी गेस्टहाउस में ठहरे हुए संघ के स्वंयसेवक और यूपी बीजेपी के महामंत्री और विधायक स्वर्गीय ब्रह्मदत्त द्विवेदी संकटमोचक के रूप में सामने आये और अपनी जान की परवाह किए बिना मायावती को उनके कमरे में बंद कर सपा के गुंडों से अकेले लोहा लिया | इस प्रयास में उनका सिर फट गया था लेकिन उन्होंने मायावती की जान और इज्जत दोनों को सकुशल बचाया था और उन्हें अपना कुर्ता पहनने को दिया था | अंत में पुलिस की मदद से गेस्टहाउस का दरवाजा तोड़कर मायावती को सकुशल बाहर निकाल लाये थे। अजय बोस ने अपनी किताब बहनजीमें गेस्टहाउस में उस दिन मायावती के साथ घटी घटना की अहम जानकारी दी है |
लोकसभा चुनाव 2019 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने 25 वर्ष पहले की कड़वाहट को किनारे कर(भुलाकर कहना उचित नहीं होगा) फिर से गठबंधन किया हैं। 25 साल पहले जब हाथ मिलाया था वह दौर मंडल और कमंडल का था। एक ओर मंडल की पुरजोर हिमायत और दूसरी ओर राम मंदिर आन्दोलन विरोधी अपने रुख के सहारे मुलायम सिंह यादव उत्तरप्रदेश में न केवल ओबीसी के बड़े नेता बन गए थे बल्कि मुस्लिम मतदाताओं को भी अपने पाले में कर लिया था | सामाजिक न्याय की उम्मीदों को उभारकर कांशीराम भी दलित जातियों के नेता बनकर उभरे थे। परिणामस्वरूप बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई | लेकिन 1995 की गेस्टहाउस घटना ने यादव और दलितों के बीच एक ऐसी गहरी खाई पैदा की, जो भले ही मौजूदा गठबंधन में पाटी जाती दिखाई दे रही है लेकिन जमीनी धरातल पर भी पाट दी जाएगी, यह तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे | 
दरअसल मौजूदा भाजपा नेतृत्व ने देश की सियासत के सारे परंपरागत समीकरणों को उलट-पलट कर रख दिया है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में अपना जनाधार बढाने के लिए गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाने में कामयाब रही । दूसरी ओर न सपा ने यादवों और मुस्लिमों की और न बसपा ने जाटवों की पार्टी होने के आरोप से मुक्त होने कभी कोशिश की | नतीजा इनके सामने है कि इनका जनाधार इस कदर सिकुड़ता गया है कि ये अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए दशकों तक एक-दूसरे के लिए अछूत रहने के बावजूद आज बेमेल गठबंधन बनाने के लिए मजबूर हुए है | अब महज जातीय समीकरणों की राजनीति करने वाली इन दोनों पार्टियों के गठबंधन की जनता के बीच स्वीकार्यता कितनी होती है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा | लेकिन इनके मजबूर गठबंधन के पीछे का सच यही है कि यादवों, मुस्लिमों और जाटवों को फिर से एक-मुश्त वोट बैंक के रूप में परिणत किया जाय | जाहिर है इसकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है | इस गठबंधन से गैर यादव ओबीसी, जो अब सपा का पिछलग्गू नहीं रहा, और गैर जाटव, जो अब बसपा से दूर हो चुका है, के बीच यही सन्देश जाता है कि इसमें उनके हितों कि कोई कोई सुनवाई नहीं होने वाली है | यही नहीं, अलग-अलग दोनों दलों की सरकारों के दौरान भ्रष्टाचार, अनियमितता, अपराधियों को संरक्षण देने और विकास कार्यों की जो अनदेखी हुई है, उसकी स्मृतियाँ अभी भी जनता के जेहन में बरकरार है | इसके अतिरिक्त अखिलेश सरकार के दौरान दलितों पर अत्याचार और मायावती सरकार के कार्यकाल में यादवों को निशाना बनाया जाने की कड़वे  अनुभवों के कारण दोनों दलों के वोट बैंक के एक-दूसरे को ट्रांसफर होने को लेकर भी दोनों दल संशय में है | कुल मिलाकर इस गठबंधन में अभी बहुत गांठ है ।
इस बेमेल गठबंधन के पीछे कोई सकारात्मक उद्देश्य नहीं है, बल्कि यह 'मोदी रोको अभियान' की नकारात्मक सियासत है | इनका मानना है कि यदि उत्तरप्रदेश में भाजपा को रोक दिया जाय तो केंद्र में उसे सत्ता में आने से रोका जा सकता है | लेकिन इस गठबंधन से कांग्रेस को दूर रखने की नीति इसके संकीर्ण सोच को ही उजागर करती है और और उनकी मंशा को ही कमजोर करती है क्योंकि चुनाव में इनकी जीत के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति में इनकी सकारात्मक भूमिका नजर नहीं आती है|

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