Tuesday, 21 August 2018

अशोक-देवानाम् प्रियदर्शी.......शास्त्रीय और लोक नृत्य की अनुपम जुगलबंदी


हाल ही में खजुराहो नृत्य समारोह और देश के विभिन्न भागों में प्रदर्शित नृत्य नाटक 'अशोक-देवानाम् प्रियदर्शी' अपने बिल्कुल ही अनोखे विषय के साथ ओडिसी जैसी शास्त्रीय और छऊ जैसी आदिवासी लोक नृत्य की अद्वितीय जुगलबंदी की कलात्मक प्रस्तुति द्वारा भारतीय संस्कृति के सौन्दर्य और माधुर्य को उदभाषित करने की दृष्टि से एक अनूठा एवं सफल प्रयास है | इस जुगलबंदी में विषय के अनूठेपन की परिकल्पना का श्रेय पटकथा(स्क्रिप्ट) लेखक डॉ सुजीत कुमार प्रूसेठ को है, वहीँ इस विषय को ओडिसी और छऊ नृत्य शैलियों की नवीनतम एवं कलात्मक प्रस्तुति के माध्यम से मंच पर दर्शनीय बनाने का श्रेय कबिता मोहंती और उनके सहयोगी नृत्यकारों को जाता है|

किसी भी रचनाकार की महानता और सजगता इस बात में निहित होती है कि वह अतीत के पन्नों से किन पक्षों को अपने समकालीन समाज के अनुरूप या प्रासंगिक पाता है और नवीन परिवेश एवं परिस्थितियों में कितनी सार्थकता से अभिव्यक्त करता है | जैसा कि नृत्य नाटक 'अशोक-देवानाम् प्रियदर्शी' से स्पष्ट है कि इसका विषय महान सम्राट अशोक के जीवन काल से जुड़ा हुआ है, लेकिन पटकथा लेखक डॉ प्रूसेठ ने अशोक के कलिंग युद्ध और उस युद्ध की विभीषिका के बाद अशोक के ह्रदय-परिवर्तन एवं सर्वजन हिताय के लिए उसकी कल्याणकारी योजनाओं को इस नृत्य नाटक का विषय बनाया है क्योंकि वे अशोक के कल्याणकारी मार्गदर्शक सिद्धांतों को समकालीन परिवेश के लिए समानधर्मा सिद्धांत के रूप में देखते है |
अब इस विषय को ओडिसी और छऊ नृत्य शैलियों की जुगलबंदी के द्वारा मंचित करने के पीछे पटकथा लेखक और साथी कलाकारों का यह मंतव्य जरूर रहा होगा कि भारत की पारंपरिक नृत्य शैलियां या लोक नाट्य विधाएं भारतीय संस्कृति और ज्ञान-परंपरा की सहज वाहक रही हैं | रामलीला और रासलीला जैसे लोक नाट्यों से लेकर यक्षगान, नाचा, जात्रा, छऊ आदि लोक नृत्यों में भारतीय धर्म, दर्शन और ज्ञान के वे सभी तत्व मौजूद रहे है जो मानव को मानव बनाते है | कहना न होगा कि भारतीय संस्कृति और ज्ञान-परंपरा या रचनात्‍मक साहित्‍य पर ओड़ीसी नृत्‍य की संबद्धता नैसर्गिक है | भारतीय संस्कृति के उच्च और उज्ज्वल पक्ष ओड़ीसी ही नहीं, समस्त भारतीय शास्त्रीय और लोक कलाकारों को प्रेरणा प्रदान करते है | महान अशोक के कल्याणकारी मार्गदर्शक सिद्धांत भारतीय समाज के सनातन सिद्धांत और आदर्श हैं | इन सिद्धांतों और आदर्शों को नृत्य नाटक में साकार कर समकालीन समय में 'सभी के कल्याण और विकास' की संकल्पना को पुष्ट करने की पटकथाकार की परिकल्पना निःसंदेह प्रशंसनीय है |
इस नृत्य-नाटक 'अशोक-देवानाम् प्रियदर्शी' के द्वारा एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ जो मेरी समझ से इस नृत्य-नाटक की सफलता के पीछे अहम कारक है | भारतीय कला जगत में कोई भी कला कभी भी अकेली नहीं होती है, उसका अंतर्संबंध दूसरी कलाओं से भी होता है| हमारी संस्कृति की कोई भी अवधारणा एक-दूसरे से अलग नहीं होती है | कलाओं के अंतर्संबंध को विष्णुधर्मेत्तर पुराण में राजा वज्र और ऋषि मार्कंडेय के बीच हुए संवाद में देखा जा सकता है | नृत्य और नाटक दोनों ही समावेशी (Inclusive) कलाएं हैं, जो न केवल एक दूसरे को अपने भीतर समावेशित कर लेती है, बल्कि अन्य कलाओं या विधाओं-गीत, संगीत, कथा, गायन, वादन, चित्रकला, मनोविज्ञान, साहित्य आदि-को भी अपने भीतर समावेशित कर लेती है| पटकथाकार और नृत्य-निर्देशक ने इन दोनों विधाओं की इस क्षमता का जिस तरह से बखूबी उपयोग किया है, वह अविश्वसनीय है | इसके साथ ही एल.इ.डी डिस्प्ले जैसी आधुनिक तकनीक के द्वारा मंच पर तत्कालीन परिवेश को दृश्य बनाते हुए असाधारण प्रस्तुति की गई है | नृत्य शुरू होने के साथ अपने मधुर संगीत और कलाकारों की भाव मुद्राओं में दर्शकों का मन औचक ही रमने लगता है और रमता हुआ मन नृत्य से जुड़े विषयों, उसमें निहित घटनाओं, तत्कालीन स्थितियों से अनायास ही एकाकार हो जाता है | नृत्य के बैकग्राउंड में सूत्रधार के संवाद यद्यपि अंग्रेजी में है, जो इस नृत्य-नाटक के अस्वाद में भारतीय दर्शकों के एक बड़े हिस्से के लिए बाधक हो सकता है लेकिन नृत्यकारों की भंगिमाएं इतनी आकर्षक है कि भाषा की कमी की भरपायी कर देती हैं |   
नृत्य-नाटक की शुरुआत ओडिशा के भुवनेश्वर के पास दया नदी के तट पर धौली की तलहटी पर बने 'शिला लिपि' की आवाज़ से होती है जो इस नृत्य-नाटक की सूत्रधार भी है और कलिंग युद्ध एवं उसके बाद अशोक के युद्ध-प्रेमी शासक से एक उदार कल्याणकारी सेवक के रूप में परिवर्तन की साक्षी भी रही है | 'शिला लिपि' का प्रतिनिधित्व कर रही नृत्यांगना और उनके साथियों ने अशोक चक्र की 24 तीलियों से जुड़े सद्गुणों और उससे जुड़े दर्शन को हाथ, पैर, कमर, नेत्र आदि की विभिन्न भंगिमाओं से मंच पर इस तरह से साकार किया है कि वह मंत्र मुग्ध कर देता है |
भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार पुराण और वेदों में 24 की संख्या का बहुत महत्व है। यह हिंदू धर्म के गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों को भी सूचित करता है जिसका प्रतिनिधित्व 24 धर्म ऋषि करते है और जो गायत्री मंत्र की पूरी शक्ति को पूरा करने में सक्षम थे | अशोक चक्र की पहली तीली विश्वामित्र ऋषि का प्रतिनिधित्व करती है। अशोक चक्र को धर्म चक्र या समय चक्र के रूप में भी जाना जाता है। अशोक चक्र का गहरा संबंध गौतम बुद्ध के धर्म-चक्र से है जिसका प्रवर्तन उन्होंने बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद पहली बार सारनाथ में पांच भिक्षुओं को उपदेश देकर किया था| यही नहीं, 24 तीलियाँ दिन के 24 घंटे का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस चक्र को कर्तव्य का पहिया भी कहा जाता है, जिसकी 24 तीलियाँ किसी व्यक्ति के 24 सद्वृतियों को अभिव्यक्त करती हैं। दूसरे शब्दों में उन्हें मनुष्यों के लिए 24 धार्मिक मार्ग भी कहा जा सकता है। ये वे सद्वृतियां हैं या धार्मिक मार्ग हैं जिन पर चलकर कोई भी मानव संस्कृति या राष्ट्र एक कल्याणकारी समाज का निर्माण कर सकता है | 'अशोक-देवानाम् प्रियदर्शी' में पटकथाकार ने 24 तीलियों के माध्यम से संयम, आरोग्य, शांति, त्याग, शील, सेवा, क्षमा, प्रेम, मैत्री, बंधुत्व, अहिंसा, सहिष्णुता, कल्याण, समता, न्याय, अधिकार, आत्मनियंत्रण, आदि जैसे 24 विशिष्ट मानव सद्वृतियों और उनसे जुड़े दर्शन को ही केंद्र में रखा है जिसे कलाकारों ने अपने नृत्य और अभिनय से प्रस्तुति की है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से पूरी भारतीय संस्कृति एवं पूरे वांग्मय की ओर भी संकेत कर दिया है | कहना न होगा कि यही वे सद्गुण है जिससे सम्मिलित रूप से देश और समाज का चहुमुखी विकास संभव हैं| इसी प्रासंगिकता को लक्षित करते हुए पटकथाकार ने अशोक चक्र को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करने का सर्वथा अभिनव प्रयोग किया है | ये तीलियाँ सभी देशवासियों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में स्पष्ट सन्देश देने के साथ साथ यह भी बताती हैं कि हमें अपने रंग, रूप, जाति और धर्म के अंतरों को भुलाकर पूरे देश को एकता के धागे में पिरोकर देश को समृद्धि के शिखर तक ले जाने के लिए सतत प्रयास करते रहना चाहिए |
अशोक चक्र और उससे जुड़े संदेशों को अभिव्यक्त करने के बाद उस त्रासदी का मंचन किया गया है, जिसके बाद अशोक जन-कल्याण को अपना मिशन बना लेता है | पटकथाकार ने कलिंग युद्ध को मंचित करने के लिए छऊ लोक नृत्य का सहारा लिया है | छऊ नृत्य में नृत्यकार जिस सुर-ताल-धुन एवं लयबद्धता के साथ तलवार एवं ढाल आदि शस्त्र का सञ्चालन करते है और जिस शारीरिक सौष्ठव के साथ एक साथ कई कलाबाजियां लगाते है, वह युद्ध के लिए सैनिकों की निपुणता एवं युद्ध की विभीषिका को साकार करने में किसी भी तरह की कमी की गुंजाइश नहीं छोड़ते हैं | प्रसिद्ध छऊ नर्तक राकेश साईं बाबू ने अशोक के अनुपम शौर्य एवं उसके योद्धा रूप के साथ ही उसके लोकहितकारी व्यक्तित्व को अपने नृत्याभिनय से सजीव कर दिया है और हमारे मन-हृदय को अपने सुर-ताल-धुन-भाव-भंगिमा के प्रवाह में बहा ले जाता है |
छऊ नृत्य के तेज-तर्रार अभिनय के बाद युद्धोत्तर विभीषिका का विषादपूर्ण दृश्य उपस्थित होता है जो दर्शक के दिलो-दिमाग पर वितृष्णा के बजाय कुतूहल पैदा करता है जो अशोक के महायोद्धा से बौद्ध धर्म अनुयायी और धर्म-प्रचारक एवं लोकहितकारी रूप में बदलाव को सहज ही आत्मसात कर लेता है | 'बुद्ध शरणम् गच्छामि', 'धम्म शरणम् गच्छामि' और 'संघ शरणम् गच्छामि' के शांतिमय स्वर के साथ कलाकारों की मुद्रायें और भाव दर्शकों के भाव के साथ एकाकार हो जाते हैं |
अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद देश-विदेश में शिलालेखों के द्वारा और राज्य कर्मचारियों को भेजकर धम्म प्रचार को प्रमुख ध्येय माना | 'धम्म' का अर्थ है साधुता अर्थात् बहुत से कल्याणकारी कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता, जीव-हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों एवं बड़ों के प्रति आदर के साथ ही दासों तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार और इसका उद्देश्य था अच्छे आचरण तथा सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को जगाकर अपने विशाल साम्राज्य में शांति बनाए रखना एवं लोगों को सर्वांगीण प्रगति के पथ पर अग्रसर करना । अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को धम्म का प्रचार करने के लिए पीपल वृक्ष के साथ श्रीलंका भी भेजा | निःसंदेह ये ऐसे नैतिक आदर्श या मूल्य है जिनकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में ज्ञान और सूचना के अथाह प्रवाह के बावजूद नैतिक रूप से रुग्ण होते समाज में सबसे अधिक है | यही कारण है कि ये मूल्य या आदर्श जब नृत्याभिनय के रूप में दर्शकों के समक्ष आते है तो उनके ह्रदय को स्पंदित करते है |  
नृत्यकारों ने अशोक द्वारा सारनाथ में स्थापित एक-दूसरे के पीछे चार शेरों के समूह अर्थात् सिंह-चतुर्मुख को इस रूप में मूर्त किया कि उनके प्रतीकार्थ सहज ही हृदयंगम हो जाते है | वे एक-दूसरे के पीछे एक पैर पर खड़े होकर और मंच की पृष्ठभूमि में शेर की दहाड़ के साथ उनके प्रतीकात्मक अर्थों को एक-एक कर खोलते जाते हैं | अशोक स्तम्भ के ये चार शेर समान महत्त्व के चार चीजों के समूह के प्रतीक है। शेर को बुद्ध के प्रतीक के रूप में अक्सर प्रयोग किया जाता है| यह चार शेरों और घंटी का समूह संयुक्त रूप से बौद्ध धर्म के 'चार आर्य सत्य' का प्रतीक है, जो मध्यम मार्ग पर जोर देते हैं। मध्यम मार्ग बौद्ध धर्म का मौलिक दर्शन है। यही नहीं यह सभी दिशाओं में धर्म के प्रसार का प्रतीक है और इसके साथ ही सभी दिशाओं में मौर्य साम्राज्य की सीमा या साम्राज्य के चार हिस्सों को भी अभिव्यक्त करते है ।
इसी धम्म यात्रा और समाज कल्याण के संकल्प के साथ नृत्य के अंत में जिस मनमोहक माहौल की सृष्टि होती है वह दर्शकों के दिलोदिमाग को अलौकिक शांति से भर देता है, किसी विषाद भाव की ओर नहीं ले जाता है |    

No comments:

Post a Comment