Monday 8 April 2024

हिंदी रेखाचित्र : उद्भव और विकास

 

हिंदी गद्य के क्षेत्र में भारतेंदु युग मुख्यतः निबंधों का युग है। इस युग में विभिन्न ऐतिहासिक पुरुषों पर लिखे गए निबंधों में रेखाचित्र की झलक अवश्य मिलती है परन्तु कहीं से भी इन्हें रेखाचित्र नहीं माना जा सकता है।

रेखाचित्र आधुनिक युग में विकसित एक गद्य विधा है | वैसे तो रेखाचित्र की कई परिभाषाएँ प्रस्तुत की गयी हैं, परन्तु सबसे सटीक और व्यापक परिभाषा डॉ. भगीरथ मिश्र की है जिनके अनुसार संपर्क में आये किसी विलक्षण व्यक्ति अथवा संवेदनाओं को जगानेवाली सामान्य विशेषताओं से युक्त किसी प्रतिनिधि चरित्र के मर्मस्पर्शी स्वरुप को, देखी-सुनी या संकलित घटनाओं की पृष्ठभूमि में इस प्रकार उभारकर रखना कि उसका हमारे हृदय पर एक निश्चित प्रभाव अंकित हो जाए रेखाचित्र या शब्दचित्र कहलाता है।

पं. पद्म सिंह शर्मा और श्रीराम शर्मा हिंदी के प्रारंभिक रेखाचित्रकार माने जाते हैं। पं. पद्म शर्मा द्वारा महाकवि अकबर पर लिखा गया रेखाचित्र पहली बार हिंदी पाठकों का ध्यान खींचने में सफल रहा। यद्यपि रेखाचित्र को एक विधा के रूप में बाद में स्वीकार किया गया किन्तु इस रचना में रेखाचित्र के विविध गुण विद्यमान थे। 1936  तक अनेक रेखाचित्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे किन्तु रेखाचित्र से सम्बंधित कोई संग्रह सामने नहीं आया। 1937 में श्रीराम शर्मा का एक संग्रह बोलती प्रतिमाप्रकाशित हुआ। इसमें संग्रहीत रचनाओं में रेखाचित्र के कतिपय लक्षण पर्याप्त मात्रा में दिखाई पड़े। बोलती प्रतिमा’, ‘ठाकुर की आन’, ‘वरदान’, ‘हरनामदास’, ‘पीताम्बर’, ‘अपराधी’, ’रतना की अम्मा’, ‘इदन्नममआदि इस संग्रह की रचनाओं के आधार पर इस संग्रह को एक सफल रेखाचित्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। आगे चलकर बोलती प्रतिमाके चार रेखाचित्रों में सोलह नए रेखाचित्र जोड़कर वे जीते कैसे हैंनाम से एक और संग्रह भी प्रकाशित हुआ।

हिंदी रेखाचित्र के प्रमुख रचनाकारों में श्री राम शर्मा के अतिरिक्त वेंकटेश नारायण तिवारी, वृन्दावनलाल वर्मा, महादेवी वर्मा, सियारामशरण गुप्त, हरिशंकर शर्मा, अन्नपूर्णानंद, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, मोहनलाल महतो वियोगी’, रामनाथ सुमन आदि शामिल हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाके कुल्ली भाटऔर बिल्लेसुर बकरिहाको उपन्यास और रेखाचित्र दोंनों के अंतर्गत मान्यता दी गयी है। रेखाचित्र की दो प्रमुख विशेषताओं विषय के प्रति एकाग्रता तथा संक्षिप्तता का अपेक्षित मात्रा में इन रचनाओं में न होना इसके रेखाचित्र होने या मानने की सीमाओं का संकेत करता है।

हिंदी के रेखाचित्रकारों में महादेवी वर्मा का नाम आदर के साथ लिया जाता है। 1941 में प्रकाशित इनके पहले गद्य संग्रह अतीत के चलचित्रको हिंदी का प्रथम सफल रेखाचित्र माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त स्मृति की रेखाएंऔर पथ के साथीसंग्रह भी अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। पथ के साथीको रेखाचित्र से अधिक संस्मरण के रूप में स्वीकार किया गया है। किन्तु रेखाचित्र की अनेक विशेषताओं की उपस्थिति के चलते इसे संस्मरणात्मक रेखाचित्र भी माना गया है। महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों की मूल प्रेरक-धारा करुणा ही रही है। वे सामाजिक विकृतियों के खंड-चित्र अंकित करने में ही व्यस्त रही हैं।  इसके अलावा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की कुछ रचनाओं का संग्रह कुछनाम से प्रकाशित हुआ जिसमें रामलाल पंडित, कुञ्ज बिहारी, चक्करदार चोरी आदि को रेखाचित्र माना जा सकता है।

हिंदी रेखाचित्र के रचनाकारों में रामवृक्ष बेनीपुरी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। लालतारा’, ‘माटी की मूरतें’, ‘गेहूँ और गुलाबतथा मील के पत्थरइनका प्रमुख रेखाचित्र संग्रह है। बेनीपुरी की माटी की मूरतेंको  किसी ने उन्हें हाथी दांत पर की तस्वीरेंकहा तो किसी ने बेनीपुरी की लेखनी को जादू की छड़ीकी संज्ञा दी। उनके इन संग्रहों में संग्रहीत रेखाचित्रों में लेखक का सामाजिक एवं राजनीतिक विषमताओं के प्रति आक्रोश, समाज के दीन-दलित व्यक्तियों के प्रति ममता और उनके उज्ज्वल भविष्य में दृढ आस्था आदि भावनाओं का प्रकाशन हुआ है। प्रकाशचंद्र गुप्त के रेखाचित्र पुरानी स्मृतियाँ और नए स्केचभी महत्वपूर्ण हैं। इसमें  लेखक की राजनीतिक चेतना, समाजवादी दृष्टिकोण, स्नेह, सहानुभूति, करुणा आदि का प्राधान्य रहा है। परन्तु इनमें स्वानुभूति की वह गहराई नहीं मिलती जो महादेवी वर्मा एवं बेनीपुरी की विशेषता है।

अन्य रेखाचित्रों में बनारसीदास चतुर्वेदी का ‘रेखाचित्र’, देवेन्द्र सत्यार्थी का रेखाएं बोल उठींउल्लेखनीय है | जबकि  हिन्दी के अन्य अनेक लेखकों ने रेखाचित्रों की रचनाएं की हैं। इनमें कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर’, डॉ. विनयमोहन शर्मा, विष्णु प्रभाकर, डॉ. नगेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, विद्यानिवास मिश्र, गुलाब राय, शांतिप्रिय द्विवेदी, प्रेमनारायण टंडन सत्यवती मल्लिक, रघुवीर सहाय, अविनाश, विद्या माथुर, डॉ. मक्खनलाल शर्मा आदि अनेक लेखकों के नाम शामिल हैं। कुल मिलाकर इतने सारे लेखकों की रचनाओं के बावजूद हिन्दी के रेखाचित्र साहित्य को अत्यधिक समृद्ध नहीं कहा जा सकता है, अन्य विधाओं की तुलना में यह अब भी काफी पीछे है।

 

Tuesday 17 October 2023

हमास का समर्थन आतंकवाद का समर्थन

जिहादी शैतानों ने 7 अक्टूबर को इजरायल ने जिस तरह से हैवानियत का तांडव किया वैसा ही पाकिस्तान से आए लश्कर और जैश के आतंकियों ने मुंबई में किया था। निःसंदेह मुंबई के मुकाबले इजरायल में किया गया हमला कई गुना भीषण था। बर्बरता और क्रूरता का नंगा नाच 1990 में भारत के कश्मीर में भी किया था| जगह बदल गया, चेहरे बदल गए लेकिन मजहबी सोच, जिहादी बर्बरता और वह्सीपन कायम रही। कश्मीर में गिरिजा टिक्कू तो इजरायल में शानी लौक, एक मजहबी सोच ने यहूदी और हिंदुओं को सदियों तक तबाह किया है। कश्मीरी पंडितों की बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरण किए गए। नरसंहार में सैकड़ों पंडितों का कत्लेआम हुआ। लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर-बार छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हुए थे। इसी तरह इजरायल में सैकड़ों यहूदियों की हत्या कर दी गई। जिहादी आतंकवादियों ने लड़कियों, महिलाओं के साथ बलात्कार किया, उनका अपहरण कर लिया। केवल एक गांव में 40 बच्चों को मार दिया गया। जिहादियों ने बर्बरता की सीमा पार करते हुए उनका गला तक काट दिया। इससे हम अनुमान लगा सकते है इन जिहादी शैतानों ने जब आठवीं सदी के बाद भारत में आक्रमण किया था और अधिपत्य किया था तब किस तरह की बर्बरता और क्रूरता का तांडव किया होगा |

ये जिहादी सोच वाले दरिंदे हैं, यह राक्षस हैं जो पूरी इंसानियत और मानवता के लिए खतरा है और जो इनका समर्थन कर रहे हैं वह इसे भी बड़ा दरिंदा है। ईरान और यमन ने हमास के हमले का खुले तौर पर समर्थन किया है | इजरायल में हमास के नरसंहार के बाद आतंकियों का एक बड़ा समूह सोशल मीडिया पर प्रोपगेंडा फैलाने की कोशिश कर रहा है। यह आतंकियों के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश है | सोशल मीडिया पर हमास को शांति दूत बताने के लिए किस तरह से फर्जी नैरेटिव फैलाया जा रहा है| देश के कट्टरपंथी मानसिकता मुस्लिम संगठन खुलकर हमास के समर्थन में तेरा-मेरा रिश्ता क्या, ला इलाहा इल्लल्लाहऔर अल्लाह हु अकबर के मजहबी नारे लगा रहे हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने एक बार भी देश के रुख के साथ खड़े होकर इजरायल पर हमास के आतंकी हमले का विरोध तक नहीं किया। इन लोगों को हर आतंकी घटना के पीछे न्याय दिखता है| देश में भी अगर एक वर्ग आतंकी वारदात करता है तो वह उसे न्यायोचित बताने लगता है | वे फिलिस्तीन और हमास आतंकवादियों के बीच अंतर नहीं कर पाते|

इस मामले में सबसे हास्यास्पद स्थिति कांग्रेस की है| वह मुसलमानों के वोट के लिए हमास के आतंकी हमले की निंदा कर नहीं सकती | दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी भी तरह के आतंकवाद के विरुद्ध  इज़राइल का साथ देकर कांग्रेस के लिए और भी संकट की स्थिति पैदा कर दी हैं| फिलिस्तीन का साथ देना उसकी मजबूरी है और इजराइल का विरोध करना भी| कांग्रेस कार्यसमिति ने 09 अक्टूबर, 2023 को पारित प्रस्ताव में इजरायल में एक हजार से अधिक लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार आतंकी संगठन हमास का जिक्र नहीं किया| कांग्रेस ने ऐसे समय में हमास का समर्थन किया है, जब भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर इजरायल का समर्थऩ किया है और आतंकी हमले पर अपना विरोध दर्ज कराया है। फिलिस्तीन की मांग और आतंकवाद दो अगल-अलग चीजें हैं। भारत की मोदी सरकार किसी भी देश की उचित मांग के साथ खड़ी है, लेकिन आतंकवाद को लेकर उसकी जीरो टॉलरेंसकी नीति है। इस तरह आज इजराइल का विरोध करके वह हमास के आतंक का समर्थन कर जाती है | 

 

Monday 18 September 2023

होयसल के पवित्र मंदिर समूह यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल

 
भारत की गौरवपूर्ण सनातन संस्कृति और पारंपरिक कला और वास्तुकला की उत्कृष्टता एक बार फिर से प्रमाणित हुई है, जब यूनेस्को ने कर्नाटक में बेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुरा के होयसल मंदिर समूह को अपनी विश्व विरासत सूची में शामिल कर लिया है। यह फैसला सऊदी अरब के रियाद में हुए विश्व धरोहर समिति के 45वें सत्र के दौरान लिया गया।

इस घोषणा पर पीएम मोदी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए एक्स पर कहा, " होयसल मंदिरों की सुंदरता और जटिल निर्माण कला भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और हमारे पूर्वजों के असाधारण शिल्प कौशल का प्रमाण हैं।"

कर्नाटक में होयसल राजवंश के 13वीं सदी के मंदिरों को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किए जाने के बाद भारत में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों की संख्या बढ़कर 42 हो गई है। इनमें सांस्कृतिक श्रेणी में 34, प्राकृतिक श्रेणी में सात और एक मिश्रित श्रेणी में शामिल है।

होयसल कला और वास्तुकला को उनके सौंदर्य, जटिल विवरण और उन्हें बनाने वाले कारीगरों के असाधारण कौशल के लिए जाना जाता है। होयसल काल के दौरान निर्मित मंदिर भारतीय वास्तुकला के चमत्कार बने हुए हैं और दक्षिणी भारत में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल हैं। होयसल हिंदू मंदिरों के विपुल निर्माता थे, और उनकी वास्तुकला अक्सर "मंदिर-केंद्रित" है। उन्होंने भगवान शिव, भगवान विष्णु और देवी के विभिन्न रूपों जैसे देवताओं को समर्पित कई मंदिरों का निर्माण किया।

होयसल वास्तुकला की विशिष्ट यह है कि तारे के आकार के इन मंदिरों में कई मंदिर सममित रूप से रखे गए हैं, जो एक अद्वितीय और उन्नत लेआउट के रूप में हैं। मंदिर के शिलालेखों से जहां हमें मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है, वहीं इसकी असंख्य मूर्तियों में हमें 12वीं शताब्दी के समाज की झलक देखने को मिलती है। ये मूर्तियां होयसल वास्तुकला की अनूठी विशेषताओं में से एक हैं। पूरे मंदिर में तराशकर बनाई गईं सुंदर मूर्तियां हैं, जिनमें रामायण, महाभारत और दरबार के दृश्यों और होयसल काल के शिकार, संगीत और नृत्य जैसी दैनिक गतिविधियों को दिखाया गया है। सबसे आकर्षक छवियों में से कुछ संगीतकारों और नर्तकियों की हैं। गहनों से सजी इन मूर्तियों में विभिन्न नृत्य मुद्राओं को दिखाया गया है। होयसलों ने अपनी प्राथमिक निर्माण सामग्री के रूप में मुख्य रूप से सोपस्टोन (क्लोरिटिक शिस्ट) का उपयोग किया। यह नरम पत्थर जटिल नक्काशी और विवरण के लिए उपयुक्त होता है।  

संस्मरण का विकास

गद्य की नव विकसित विधाओं में संस्मरण का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। यह आधुनिक गद्य साहित्य की एक उत्कृष्ट एवं ललित विधा है। इसकी शैली कहानी और निबंध दोनों के बहुत निकट है। इसमें ललित निबंध का लालित्य और रोचकता तथा कहानी का आस्वाद सम्मिलित रहता है। स्मरण शब्द स्मृधातु में समउपसर्ग और अनप्रत्यय के योग से बना है। इसका अर्थ है सम्यक अर्थात भली प्रकार से स्मरण अर्थात सम्यक स्मृति। जब कोई व्यक्ति किसी विख्यात, किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति के बारे में चर्चा करते हुए स्वयं के जीवन के किसी अंश को प्रकाश में लाने की चेष्टा करता है, तब संस्मरण विधा का जन्म होता है। संस्मरण लेखक की स्मृति के आधार पर लिखी गई ऐसी रचना होती है जिसमें वह अपनी किसी स्मरणीय अनुभूति को व्यंजनात्मक सांकेतिक शैली में यथार्थ के स्तर पर प्रस्तुत करता है। डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार –“भावुक कलाकार जब अतीत की अनंत स्मृतियों में से कुछ स्मरणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित करके रोचक ढंग से यथार्थ रूप में व्यक्त करता है तब उसे संस्मरण कहते हैं।

संस्मरण का विकास

आरंभिक युग

बालमुकुंद गुप्त के सन् 1907 ई. में प्रतापनारायण मिश्र पर लिखे संस्मरण को हिंदी का पहला संस्मरण माना जाता है। इसी युग में कुछ समय बाद गुप्त जी लिखित हरिऔध केन्द्रित पंद्रह संस्मरणों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ।  इसमें हरिऔध को वर्ण्य विषय बनाकर पंद्रह संस्मरणों की रचना की गई है।

द्विवेदी युग        

हिंदी में संस्मरण लेखन का आरंभ द्विवेदी युग से ही हुआ। गद्य की अन्य विधाओं के समान ही संस्मरण की शुरुआत भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हुई। इस युग की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका सरस्वती में भी कई संस्मरण प्रकाशित हुए। स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अनुमोदन का अंत’, ‘सभा की सभ्यता’, ‘विज्ञानाचार्य बसु का विज्ञान मन्दिर आदि की रचना करके संस्मरण साहित्य की श्रीवृद्धि की। इस समय के संस्मरण लेखकों में द्विवेदी जी के अतिरिक्त रामकुमार खेमका, काशीप्रसाद जायसवाल, बालमुकुन्द गुप्त, श्यामसुंदर दास प्रमुख रहे हैं। द्विवेदी युग में आरंभ हुई संस्मरण की परंपरा आज भी जारी है।

 छायावादी एवं छायावादोत्तर युग

रेखाचित्र की तरह ही संस्मरण को गद्य की विशिष्ट विधा के रूप में स्थापित करने की दिशा में भी पद्म सिंह शर्मा (1876-1932) का महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है। इनके संस्मरण प्रबंध मंजरीऔर पद्म परागमें संकलित हैं। महाकवि अकबर, सत्यनारायण कविरत्न और भीमसेन शर्मा आदि पर लिखे हुए इनके संस्मरणों ने इस विधा को स्थिरता प्रदान करने में मदद की। विनोद की एक हल्की रेखा इनकी पूरी रचनाओं के भीतर देखी जा सकती है। इस युग में भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संस्मरण प्रकाशित होते रहे। इस युग में संस्मरणों के कुछ संकलन भी प्रकाशित हुए। बाबूराव विष्णुराव पराड़कर संपादित हंसका प्रेमचन्द-स्मृति-अंक’ (1937 ई.) तथा ज्योतिलाल भार्गव द्वारा संपादित साहित्यिकों के संस्मरणभी इसी युग की उल्लेखनीय रचनाएं हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बनारसीदास चतुर्वेदी और महादेवी वर्मा के संस्मरण भी छपे। महादेवी वर्मा ने हिंदी संस्मरणों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अतीत के चलचित्र’, स्मृति की रेखाएं’, ‘पथ के साथी’, ‘मेरा परिवारउनकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी जी अद्भुत शब्द-शिल्प के लिए विख्यात हैं। लाल तारा’, माटी की मूरतें’, ‘गेंहू और गुलाबइनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। इस युग में संस्मरण के कथ्य और शिल्प में बदलाव आया। काव्य की दृष्टि से संस्मरण साहित्य में जहां समाजसेवी नेताओं, साहित्यकारों तथा प्रवासी भारतीयों के स्मृति प्रसंगों की रोचक अभिव्यक्ति हुई है, वहीं शिल्प के स्तर पर इस युग की प्रमुख उपलब्धि बिंबात्मकता है। प्रकाशचंद गुप्त ने पुरानी स्मृतियाँनामक संग्रह में अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध किया। इलाचंद्र जोशी कृत मेरे प्राथमिक जीवन की स्मृतियाँऔर वृंदावनलाल वर्मा कृत कुछ संस्मरणइस काल की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

 स्वातंत्र्योत्तर युग

सन् 1950 के आस-पास का समय संस्मरण लेखन की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। इस युग में संस्मरण का तेजी से विकास हुआ। बनारसीदास चतुर्वेदी को संस्मरण लेखन के क्षेत्र में विशेष सफलता मिली। पेशे से साहित्यिक पत्रकार होने के कारण इनके संस्मरणों के विषय बहुत व्यापक हैं। अपनी कृति संस्मरणमें संकलित रचनाओं की शैली पर इनके मानवीय पक्ष की प्रबलता को साफ देखा जा सकता है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपनी कृतियों भूले हुए चेहरेतथा दीप जले शंख बजेके कारण इस समय के एक अन्य महत्त्वपूर्ण संस्मरण लेखक हैं। शिवपूजन सहाय के संस्मरण वे दिन वे लोगमें संकलित हैं।  उपेन्द्रनाथ अश्क की महत्वपूर्ण रचना है- मंटो मेरा दुश्मन। अन्य महत्वपूर्ण संस्मरणात्मक रचनाएं इस प्रकार हैं- जगदीशचंद्र माथुर ने दस तस्वीरें, कृष्णा सोबती ने हम हशमत,  शांतिप्रिय द्विवेदी ने पथ चिह्न’,  शिवरानी देवी ने प्रेमचंदः घर में’, जैनेन्द्र कुमार ने ये और वे, अज्ञेय ने स्मृति लेखा’, माखनलाल चतुर्वेदी ने समय के पाँव’, रामधारी सिंह दिनकर ने  लोकदेव नेहरू’, बनारसीदास चतुर्वेदी  ने  महापुरुषों की खोज में की रचना की।

 संस्मरण और रेखाचित्रों में कोई भी तात्विक भेद नहीं मानने वाले आलोचक डा. नगेन्द्र ने चेतना के बिंबनाम की कृति के माध्यम से इस विधा को समृद्ध किया। प्रभाकर माचवे, विष्णु प्रभाकर, अज्ञेय और कमलेश्वर इस समय के अन्य प्रमुख संस्मरण लेखक रहे हैं।

समकालीन युग

समकालीन लेखन में आत्मकथात्मक विधाओं की भरमार है। संस्मरण आज बहुतायत में लिखें जा रहे हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री रचित हंसबलाकासंस्मरण संग्रह इस विधा की महत्वपूर्ण रचना है जो सन् 1983 ई. में प्रकाशित हुई। हाल ही डा. विश्वनाथ त्रिपाठी का नामवर सिंह पर लिखा गया संस्मरण हक अदा न हुआने इस विधा को नई ताजगी से भर दिया है और इससे प्रभावित होकर कई लेखक इस ओर बढ़े। इनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक नंगातलाई का गांव’ (2004) को उन्होंने स्मृति आख्यान कहा है। राजेंद्र यादव का औरों के बहानेभी महत्वपूर्ण संस्मरण संग्रह है। इस दिशा में काशीनाथ सिंह, कांतिकुमार जैन, राजेंद्र यादव, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया व अखिलेश आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

 

Monday 10 July 2023

प्रपद्यवाद

 प्रपद्यवाद को नकेनवाद भी कहा जाता है | प्रपद्यवादी कविताओं का पहला संकलन नकेन के प्रपद्यशीर्षक से १९५६ में प्रकाशित हुआ | जिसमें नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश की कविताएँ संकलित थीं | नकेन इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था | इसलिए इनकी कविताएँ प्रपद्यवाद और नकेनवाद दोनों नामों से पुकारी जाती हैं | पद्य में प्रउपसर्ग लगाने से प्रपद्य बना है जिसका अर्थ किया गया है- प्रयोगवादी पद्य | प्रपद्यवादी अपने को वास्तविक प्रयोगवादी और अज्ञेय आदि को प्रयोगशील कवि मानते थे | प्रपद्यवादियों के अनुसार प्रयोग उनका साध्य है, जबकि अज्ञेय आदि के लिए साधन | प्रपद्यवाद छायावाद की तरह कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन नहीं था | यह एक संगठित और सुविचारित काव्यान्दोलन था | यह संगठन मात्र तीन कवियों का था और ये तीनों कवि एक ही नगर पटना में रहते थे | तीनों सुशिक्षित थे और देश-विदेश के काव्यान्दोलनों के गहरे अध्येता थे | उन्होंने प्रपद्यवाद नाम से जिस काव्यान्दोलन का सूत्रपात किया उसका एक-एक शब्द और सिद्धांत सुविचारित था | वे सचेत ढंग से हिंदी कविता को अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के जरिए विश्व कविता के बौद्धिक धरातल तक ले जाना चाहते थे | वे कविता में भावुकता के विरोधी थे और उसमें बौद्धिकता तथा वैज्ञानिकता के योग से नयापन पैदा करने के पक्षधर थे | नलिन विलोचन शर्मा ने विनोद-भाव से एक द्विपदी लिखी थी जो प्रपद्यवादी कविता के नए मिजाज की सूचना देती थी-

दिल तो अब बेकार हुआ जो कुछ है सो ब्रेन,                                                         

 गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन |


तात्पर्य यह कि कविता बौद्धिक रूप से सघन और गाढ़ी होनी चाहिए, उसमें भावुकता की मिलावट बिलकुल नहीं  

होनी चाहिए |

प्रपद्यवाद या नकेनवाद आलोचकों की दी हुई संज्ञा नहीं है | ये दोनों नाम तीनों कवियों द्वारा अपने लिए अपनाए गए नाम हैं | ‘नकेन के प्रपद्यनामक काव्य संकलन में प्रपद्यवाद के सिद्धांत-सूत्रों की घोषणा प्रपद्य द्वादश सूत्रीशीर्षक से की गई है | यह प्रपद्य द्वादश सूत्रीउन कवियों के अनुसार प्रपद्यवाद के घोषणापत्र का प्रारूपहै | प्रपद्यवादी कविताओं को समझने के लिए इन सिद्धांत-सूत्रों को समझना आवश्यक है | ये सिद्धांत-सूत्र हैं-

1. प्रपद्यवाद भाव और व्यंजना का स्थापत्य है |                                                        

२. प्रपद्यवाद सर्वतंत्र- स्वतंत्र है, उसके लिए शास्त्र या दल निर्धारित अनुपयुक्त है |            

३. प्रपद्यवाद महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है |                 

४. प्रपद्यवाद दूसरों के अनुकरण की तरह अपना अनुकरण वर्जित मानता है |              

  ५. प्रपद्यवाद को मुक्त काव्य नहीं, स्वच्छंद काव्य की स्थिति अभीष्ट है |                     

 ६. प्रयोगशील प्रयोग को साधन मानता है, प्रपद्यवादी साध्य |                                     

 ७. प्रपद्यवाद की दृक्वाक्यपदीय प्रणाली है |                                                               

 ८. प्रपद्यवाद के लिए जीवन और कोष कच्चे माल की खान हैं |                                         

९. प्रपद्यवादी प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छंद का स्वयं निर्माता है |                                 

 १०. प्रपद्यवाद दृष्टिकोण का अनुसन्धान है |                                                                   

११. 11. प्रपद्यवाद मानता है कि पद्य में उत्कृष्ट केन्द्रण होता है और यही गद्य और पद्य में अंतर है |                                                                                 १२. प्रपद्यवाद मानता है कि चीजों का एकमात्र सही नाम होता है |

          बाद में नकेन- २का जब प्रकाशन हुआ तो द्वादश सूत्रों के साथ छः और सूत्र जोड़कर प्रपद्य अष्टादश सूत्रीकी घोषणा की गई | बाद में जोड़े गए सूत्र थे-

१३. प्रपद्यवाद आयाम की खोज है और अभिनिष्क्रमण भी, ठीक वैसे, जैसे वह भाव और व्यंजना का स्थापत्य है और उससे अभिनिष्क्रमण भी |                                                 

१४. प्रपद्यवाद चित्रेतना है |                                                                                     

 १५. प्रपद्यवाद मिथक का संयोजक नहीं, स्रष्टा है |                                                

 १६. प्रपद्यवाद बिम्ब का काव्य नहीं, काव्य का बिम्ब है |                                        

१७. प्रपद्यवाद सम्पूर्ण अनुभव है |                                                                        

१८. प्रपद्यवाद अविभक्त काव्य-रुचि है |

इन अठारह सूत्रों के अलावा नकेन के प्रपद्यमें पसपशाशीर्षक से केसरी कुमार ने प्रपद्यवाद की व्याख्या की | उन्होंने लिखा है- प्रपद्यवाद प्रयोग का दर्शन है .......प्रयोग के वाद से तात्पर्य यह है कि वह भाव और भाषा, विचार और अभिव्यक्ति, आवेश और आत्मप्रेषण, तत्व और रूप, इनमें से कई में या सभी में प्रयोग को अपेक्षित मानता है |” इस कथन के साथ केसरी कुमार ने यह भी दुहराया है कि सतत प्रयोग करना ही प्रपद्यवाद है | प्रपद्यवादियों का मानना था कि कविता भाव, विचार या दर्शन से नहीं लिखी जाती ....वह नए विचारों या नए शब्दों से भी नहीं लिखी जाती | उनके अनुसार कविता नए विचारों, नए शब्दों के केन्द्रण से बनती है | दैनंदिन की भाषा की व्यवस्था को व्यतिरेकित करके ही इसे प्राप्त किया जा सकता है | हमारे दैनंदिन जीवन की भाषा और अनुभव के आगे की भाषा तथा अनुभव को कविता प्रकट करती है | प्रपद्यवादी मानते हैं कि कविता के लिए जीवन की प्रतिष्ठित व्यवस्था आवश्यक नहीं है, बल्कि जीवन की जागृति आवश्यक है |

          प्रपद्यवादियों के लिए साधारणीकरण कोई समस्या नहीं है | साधारणीकरण की प्रक्रिया में रचनाकार और पाठक का एक ही भाव-सत्ता में होना आवश्यक है | लेकिन प्रपद्यवादी न तो भाव-सत्ता को स्वीकारते हैं, न रसानुभूति को | उनके लिए कविता वैयक्तिक चीज है, सार्वजनिक नहीं | प्रपद्यवादी कविता में जिस वैयक्तिक अनुभूति, शब्द और अर्थ पर जोर देते हैं, उसमें साधारणीकरण के लिए कोई जगह नहीं है | वे साधारणीकरण के स्थान पर विशिष्टीकरण को महत्वपूर्ण मानते हैं | विशिष्टीकरण का आधार विज्ञान है | जिस तरह से ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशिष्टीकरण आवश्यक है, उसी तरह से कविता में भी | नलिन विलोचन शर्मा कवि के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोणतथा विज्ञान-सम्मत दर्शनकी जरुरत पर बल देते हैं | वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य सत्य का संधान है |

          प्रपद्यवादी काव्य-सिद्धांत के अनुसार काव्य-रचना के लिए बुद्धि आवश्यक है | बौद्धिकता को कविता का आवश्यक गुण स्वीकार करते हुए केसरी कुमार ने लिखा है- जब कविता अपने समय की बौद्धिकता से संपर्क-विच्छेद कर लेती है, तब भाव-प्रवण, जाग्रत-मति समाज की उसमें दिलचस्पी नहीं रह जाती | यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है, क्योंकि यह समाज यद्यपि अल्पसंख्यकों का होता है, पर यही बड़े समाज को गति देने वाला सिद्ध होता है |”

          प्रपद्यवाद की काव्य-पूँजी थोड़ी है | नलिन विलोचन शर्मा की भी काव्य-पूँजी मात्रा रूप में कम ही है | प्रपद्यवादी काव्यधारा में दूसरे कवि शामिल नहीं हुए | वह इन्हीं तीन कवियों तक सीमित रही | कोई भी आन्दोलन तभी विस्तार और दीर्घ जीवन पाता है, जब उसमें अधिक से अधिक लोगों की समाही होती है | हिंदी कविता के इतिहास में जगह बनाने के लिए जिस मात्रा की आवश्यकता होती है, वह मात्रा न तो प्रपद्यवाद के पास है, न नलिन जी के पास | लेकिन अल्पमात्रा के बावजूद अपनी विशिष्ट भंगिमा के कारण प्रपद्यवादी कविताओं ने 1960 के दशक में हिंदी कविता को नई चमक से भर दिया था | यह कविता की नई भंगिमा थी और नई जमीन थी | अज्ञेय ने नलिन विलोचन शर्मा और केसरी कुमार की काव्य-नवीनता को रेखांकित करते हुए लिखा है- वैसी कविताएँ जैसी केसरी कुमार की साँझअथवा नलिन विलोचन शर्मा की सागर संध्याहै, ऐसे बिम्ब उपस्थित करती हैं, जिनके लिए परंपरा ने हमें तैयार नहीं किया है और जो उस अनुभव के सत्य को उपस्थित करना चाहते हैं, जो उसी अर्थ में अनन्य है, जिस अर्थ में एक व्यक्ति अनन्य होता है |”