Wednesday, 5 February 2025

पृथ्वी पर मानवता का अद्वितीय समागम है महाकुंभ

 


प्रयागराज महाकुंभ में अब तक 35 करोड़ से अधिक श्रद्धालु स्नान कर चुके है और मौनी अमावस्या के दिन हुई भगदड़ और कुछेक आगजनी की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को छोड़कर कुलमिलाकर मेला शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा है, जो प्रशासन की तैयारियों और सुरक्षा उपायों का अच्छा संकेत है। मौनी अमावस्या की रात को हुई दुखद घटना निश्चित रूप से सभी के लिए एक गहरी पीड़ा का कारण बनी| लेकिन ऐसे समय में श्रद्धालुओं की भक्ति और अध्यात्मिक शक्ति किसी भी विपरीत परिस्थिति से उबरने में मदद करती है। इस त्रासदी से उबरकर श्रद्धालुओं ने श्रद्धा और भक्ति के साथ अपने धार्मिक और अध्यात्मिक अनुष्ठानों को पूरा किया | जिस तरह से संतों, श्रद्धालुओं, प्रशासन और राज्य सरकार ने मिलकर स्थिति को संभाला, वह काबिलेतारीफ है। अखाड़ों ने अपने धार्मिक अनुष्ठान की प्राथमिकता को दरकिनार कर श्रद्धालुओं की सुरक्षा सर्वोपरि मानते हुए स्थिति सामान्य होने तक अमृत स्नान करने से इनकार कर दिया था | यह हमारी महान संत परंपरा की मानवीयता, संवेदनशीलता और सहनशीलता का उदाहरण है | यह कदम न सिर्फ एक परंपरा के प्रति सम्मान को दिखाता है, बल्कि समाज के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी को भी उजागर करता है। संतों का धैर्य और संयम, श्रद्धालुओं द्वारा सहनशीलता, और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा तत्परता दिखाना एक आदर्श उदाहरण है कि कठिन परिस्थितियों में भी एकजुटता और समर्पण से समाधान निकाला जा सकता है। राज्य सरकार द्वारा की गई व्यवस्थाएँ, जैसे चिकित्सा सेवाएँ, सुरक्षा प्रबंध और यातायात सुविधाएँ, वास्तव में लोगों की सुविधा के लिए महत्वपूर्ण थीं।

प्रयागराज में महाकुंभ का अयोजन पृथ्वी पर मानवता का सबसे बड़ा और अद्वितीय समागम है, जिसका न केवल धार्मिक महत्व है, बल्कि यह विज्ञान, ज्योतिष, और आध्यात्मिकता का एक दुर्लभ संगम है। यह हमारे समाज की अस्मिता, संस्कृति और सनातन धर्म का भी महाकुंभ है। यह केवल नदियों का समागम नहीं, यह विविध संस्कृतियों, संस्कारों, विभिन्न आश्रमों, और अखाड़ों का समागम है, यह धर्म, अर्थ और मोक्ष का समागम है, देश और विदेश का समागम है। यह हमारे सांस्कृतिक धरोहर की गहरी जड़ों से जुड़ा हुआ है, जो सदियों से हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है। कुम्भ मेला उस महान परंपरा का प्रतीक है, जिसमें हम अपने जीवन के उच्चतम आदर्शों, आध्यात्मिक जागरण और सामाजिक सद्भावना को अपनाते हैं।

महाकुंभ धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना की यात्रा से लेकर यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा से जुड़ा एक विराट आयोजन है। यह तीर्थयात्रा नहीं, बल्कि आत्मयात्रा है। यह याद दिलाता है कि हम केवल शरीर नहीं, बल्कि अनंत चेतना हैं। जो इस सत्य को समझ लेता है, वही सच्चे अर्थों में महाकुंभ के उद्देश्य को पूर्ण करता है। यहां साधु-संत, विद्वान और भक्त आत्मबोध, विचार-विमर्श और सत्संग के मंथन के लिए जुटते हैं। इस मंथन से जो भी निकले, वह सबके लिए होता है।

यह आयोजन एक समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है, जो भारतीय समाज की विविधता और एकता को दर्शाता है। लाखों लोग अपनी सारी असुविधाओं, कष्टों और थकान के बावजूद केवल एक लक्ष्य को लेकर आते हैंअपनी आस्था और विश्वास को जीवित रखना। हर किसी की यात्रा, उसकी आस्था और उसके संघर्ष में कुछ ऐसा होता है जो भारत के धर्मनिष्ठा के असली रूप को बयान करता है। यह वो भारतीय धर्म है जो मौन रूप से, बिना किसी दिखावे के, बिना किसी भव्यता के, निःस्वार्थ भाव से अपनी श्रद्धा व्यक्त करता है। महाकुंभ बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक यात्रा है। यदि व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति के साथ यहां आता है, तो यह एक यात्रा नहीं, बल्कि जीवन को बदलने वाली यात्रा हो सकती है।

इस कुम्भ में किसी भी तरह की ऊंच-नीच या भेदभाव से परे संतों और श्रद्धालुओं का जो सैलाब उमड़ पड़ा, वह सनातन का ऐसा महासागर है जो उनलोगों समाजद्रोहियों, जो जाति-जाति से लेकर जातिगत जनगणना तक गलाफाड़ रोदन करते है, के लिए एक मुखर संदेश है कि हमें अपनी पहचान को किसी संकीर्ण दायरे में नहीं बांधना चाहिए। कोई किसी से यह नहीं पूछता कि कौन किस प्रदेश या जाति से है। इस महाकुंभ में समूचे भारत की रीति-रिवाज, खानपान, रहन-सहन और वेशभूषा मिलकर भारतीय संस्कृति का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं। महंगाई और आवागमन की चुनौतियों के बावजूद, श्रद्धालुओं का उत्साह बिल्कुल भी कम नहीं हुआ है।

यह किसी एक जगह पर भारत की संपूर्णता का प्रतिनिधित्व करता है। महाकुंभ एक ऐसा अवसर है, जहां दुनियावी वैभव और आत्मिक वैराग्य दोनों का मिलन होता है। वैभव के साथ वैराग्य का यह संगम न केवल भारतीय संस्कृति की विशेषता है, बल्कि यह बताता है कि किसी भी जीवन में शांति और संतुलन को बनाए रखना जरूरी है। एक ओर जहां हमारे पास सांसारिक संपत्ति और सुख-सुविधाएं हो सकती हैं, वहीं दूसरी ओर हमें आत्मिक शांति और संतुलन की ओर भी ध्यान देना चाहिए। यह मेला सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अर्थ और उद्देश्य को खोजने की यात्रा भी है। यहां तक कि विदेशी लोग भी इस महान आयोजन का हिस्सा बनते हैं और भारतीय संस्कृति का अनुभव करते हैं।

यद्यपि उत्तर प्रदेश सरकार ने महाकुंभ मेले के आयोजन के लिए तमाम सुविधाजनक प्रबंधों और डिजिटल तैयारियों करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए महाकुंभ के अनुभव को यादगार बनाने की पुरजोर कोशिश की है | फिर भी जब किसी बड़े आयोजन में कोई त्रासदी होती है, तो यह केवल एक घटना नहीं होती, बल्कि पूरे आयोजन के दौरान की गई व्यवस्थाओं और निर्णयों की भी परख होती है और यह समझा जाए कि किस स्तर पर चूक हुई। महाकुंभ की सफलता या विफलता न केवल श्रद्धालुओं के अनुभव पर, बल्कि आयोजकों की योजना, प्रबंधन, और सुरक्षा व्यवस्थाओं पर भी निर्भर करती है। महाकुंभ जैसे बड़े धार्मिक आयोजन में, जहां लाखों लोग आते हैं, वहां वीआईपी कल्चर एक बड़ी विसंगति बन जाती है। यह वीआईपी कल्चर आम लोगों के लिए परेशानी का कारण बन जाता है | आम श्रद्धालुओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, क्योंकि वे ही आयोजन की असल ताकत होते हैं। संत-महंतों और अखाड़ों के महत्व को समझते हुए, आम श्रद्धालुओं के लिए भी सुलभता और सुरक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद यह महाकुंभ एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करता है जिसके तहत धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों को आर्थिक वृद्धि से जोड़कर समग्र विकास को बढ़ावा दिया जा सकता है। महाकुंभ जैसे विशाल धार्मिक आयोजन ने न केवल सनातन की जड़ों को मजबूत किया है, बल्कि यह एक शक्तिशाली आर्थिक इंजन बनकर पर्यटन, होटल व्यवसाय, परिवहन, स्थानीय विपणन, और कृषि जैसे क्षेत्रों में भी अर्थव्यवस्था को गति प्रदान किया है साथ ही वैश्विक स्तर पर हमारे देश की साख और पहचान को भी बढ़ा रहा है |

 

 

 

 

 

 


Tuesday, 4 February 2025

वसंत पंचमी......... सृजनात्मक चेतना का उत्सव

 वसंत पंचमी नाम सुनते ही पर सबसे पहले वर दे वीणा वादिनीपंक्ति स्मृति में कौंधती है। माँ सरस्वती के अनन्य उपासक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने जब 'वर दे वीणा-वादिनी वर दे' की रचना की थी तब देश गुलाम था । निराला महज अज्ञान और अंधकार से मुक्ति को लेकर चिंतित नहीं थे बल्कि वे तत्कालीन मनुष्य की चेतना को, उसकी चिंतन शक्ति को या आत्मा को ग्रसित करने वाली गुलामी से मुक्ति भी चाहते थे | इसलिए उन्होंने अपनी वंदना में ज्ञान रूपी आलोक पूरे देश में फ़ैलाने के साथ ही पूरे विश्व को जगमग करने की आकांक्षा रखते है | वे माँ सरस्वती से स्वयं के लिए ज्ञान के वरदान की कामना नहीं करते है बल्कि वे पूरे देश में स्वतंत्रता के अमृत मंत्र को गुंजित होने का वरदान मांगते है | वे जानते थे कि स्वतंत्रता रूपी अमृत मंत्र तभी गुंजायमान हो सकता है जब अज्ञान रूपी अंधकार, क्लेश और भेदभाव के बंधन समाप्त हो जाय | यह "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' है| मनुष्य की महायात्रा महज भौतिक अंधकार को दूर करने की यात्रा नहीं है, यह मनुष्य की विषमताओं से जूझने की दृढ़ इच्छा शक्ति और अदम्य जिजीविषा का भी परिचायक है | इस तरह देश को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए शक्ति की मौलिक कल्पना करने वाले निराला माँ सरस्वती से नयी गति, नयी वाणी, नया स्वर और नया आकाश देने की कामना करते है ताकि देश एक नयी ऊर्जा के साथ सृजन और विश्व कल्याण के पथ पर अग्रसर हो सके| आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि जिसे अपने देश से प्रेम है, उसे देश की प्रकृति और संस्कृति से भी प्रेम होगा | अन्यथा देश प्रेम महज दिखावटी होगा या आज के परिप्रेक्ष्य में कहें तो संविधान और तिरंगे की आड़ में किसी अन्य मंशा से प्रेरित होगा | निराला को अपने देश से प्रेम था, इसलिए वे सरस्वती को धार्मिक और पौराणिक प्रतीकों से निकालकर पूरे देश में प्रतिष्ठित करते हैं| वसंतपंचमी के अवसर पर हम 'वर दे वीणा-वादिनी वर दे' के आह्वान द्वारा कुपढों, कुपाठियों और कुमार्गियों को सांस्कृतिक चेतना के साथ साथ भारतीयता की अनन्य चेतना से जोड़ने की उम्मीद कर सकते है|

|

ऋग्वैदिक काल में सरस्वती एक नदी के रूप में प्रवाहमान थी | तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़ और नगर, शिक्षण संस्थाएं, ऋषियों की तपोभूमि और आश्रम सरस्वती नदी के तट पर बसे थे। वेदों और उपनिषदों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। कालान्तर में ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों ने सरस्वती नदी को देवी का दर्जा दिया और तभी से सरस्वती सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। ऋग्वेद में सरस्वती के प्रति श्रद्धा में कहा गया है कि ये परम चेतना हैं, ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। वसंतपंचमी के दिन सरस्वती की अर्चना वस्तुतः आर्य सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की भी अभिव्यक्ति है और हमारी अवरुद्ध मानसिकता के द्वारों को खोलने का उत्सव है।

भारत की सनातन परंपरा में किसी भी पर्व, त्यौहार या उत्सव का प्रकृति से अनन्य रूप से जुड़ा है | आज की जरूरतों के हिसाब से कहें तो सनातन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण का एक दीर्घकालिक और प्रभावी प्रबंध किए गए हैं | समस्त भारतीय समाज आदिकाल से भी प्रकृति के साथ रस-भाव या सम-भाव से सराबोर रहा है | वसन्त पंचमी का उत्सव भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है | भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट करते हुए कहा है कि ऋतुओं में मैं बसंत हूं। वसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है क्योंकि इस समय ठण्ड का मौसम उतार पर होता है और गर्मी का मौसम अभी शुरू नहीं हुआ होता है | इस कारण ऐसा माना जाता है कि पंचतत्त्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंचतत्त्व-जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपने मोहक रूप में होते हैं। जिस प्रकार मनुष्य जीवन में यौवन आता है उसी प्रकार बसंत इस प्रकृति का यौवन है। यह अनायास नहीं है कि कवियों और कलाकारों को वसन्त ऋतु सहज ही आकर्षित करती है | केदार नाथ अग्रवाल की कविता बसंती हवाएक साथ महुआ और आम से लेकर अरहर, अलसी और सरसों की फसलों के मिले-जुले नैसर्गिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है| पन्त को प्रकृति क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता, मोद, मधुरिमा, हास, विलास, लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय, स्नेह, पुलक, सुख, और सरल-हुलास से भारी दिखाई देती है | इसलिए पंचमी में वसंत पंचमी को सर्वश्रेष्ठ पंचमी माना जाता है और इसे श्री पंचमी भी कहा जाता है | यह दिन प्रकृति के नवीनीकरण और समृद्धि का उत्सव होता है, जिसमें ज्ञान, कला और संस्कृति का सम्मान किया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति को देवी के रूप में पूजा जाता है, और उसे उपभोग करने की बजाय संरक्षण और सम्मान की भावना के साथ जीने का आह्वान किया जाता है। यह उस विदेशी संस्कृति से बिल्कुल अलग है जिसमें वलेन्टाइन डे से लेकर बर्थ डे, वाथ डे तक न जाने क्या क्या डे मनाया जाता है जहाँ प्रकृति के सरंक्षण के बजाय उसका उपभोग और दोहन होता है जबकि भारतीय सनातन परंपरा में मनुष्य और पर्यावरण में उपभोक्ता और उपभोग का संबंध नहीं है | भारतीय सनातन परंपरा में चर और अचर, भौतिक और अभौतिक सत्ताओं में एक ही चेतना उद्भासित होती है | यह दृष्टिकोण जीवन के हर पहलू में संतुलन और आंतरिक शांति की ओर मार्गदर्शन करता है, जहां हर तत्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ होता है और प्रकृति का सम्मान किया जाता है।

 

Wednesday, 29 January 2025

कुंभ मेला त्रासदी: संवेदनशीलता का वक्त, राजनीति स्वार्थ का नहीं

 कुंभ मेला भारतीय संस्कृति और आस्था का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है, जो न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सामूहिक एकता और मानवता के प्रतीक के रूप में भी प्रसिद्ध है। तीर्थराज प्रयाग के पवित्र संगम में लाखों श्रद्धालु पवित्र गंगा में स्नान कर अपने पापों से मुक्ति की कामना करते हैं। लेकिन इस वर्ष के कुंभ मेले में एक दुखद घटना घटित हुई, जिसमें लगभग 30 लोगों की मृत्यु और कई लोग घायल हो गए। उन परिवारों के लिए यह हृदयविदारक क्षण है जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया। यह त्रासदी केवल शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी गहरे घाव छोड़ जाती हैं, जो कभी नहीं भर सकते।

यह दुर्घटना वाकई बहुत ही दुःखद है, और इसने हम सभी को गहरे आघात पहुँचाया है। जिन श्रद्धालुओं ने अपनी जान गंवाई, उनके परिवारों के प्रति हमारी गहरी संवेदनाएँ और सहानुभूति हैं। इस कठिन समय में हमें उनके साथ खड़ा होना चाहिए और हर संभव मदद प्रदान करनी चाहिए। यह घटना अपूरणीय क्षति है, लेकिन हम उनकी आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके परिजनों को इस दुख को सहने की शक्ति मिले। ईश्वर उन दिवंगत आत्माओं को शांति दे और उनके परिवारों को इस मुश्किल घड़ी में संबल प्रदान करें।

इस त्रासदी से कहीं अधिक दुखद और शर्मनाक यह है कि कुछ राजनीतिज्ञ इस दर्दनाक घटना का राजनीतिक लाभ उठाने में लगे हुए हैं। वे वीआईपी सुविधाओं का लाभ उठाकर कुंभ स्नान में भाग लेते हैं और उसके बाद अब इस दुर्घटना पर बयानबाजी कर रहे हैं, ताकि अपनी राजनीति चमका सकें। यह व्यवहार न केवल उनकी संवेदनहीनता को उजागर करता है, बल्कि उनके स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण को भी सामने लाता है। वे इस हादसे पर अपनी टिप्पणियाँ और बयान देकर यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे ही सबसे बड़े हमदर्द हैं, लेकिन असल में उनका एकमात्र उद्देश्य अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस दुखद घटना को इस्तेमाल करना है। यह न केवल पीड़ित परिवारों के लिए पीड़ादायक है, बल्कि यह पूरे देश की संवेदनाओं का अपमान भी है।

 




इन नेताओं के लिए कुंभ मेला अब एक धार्मिक पर्व या जनसेवा का अवसर नहीं, बल्कि बस एक फोटो खिंचवाने का मंच बनकर रह गया है। उनके बयान न केवल पीड़ितों के परिवारों के लिए अत्यंत पीड़ादायक हैं, बल्कि ये पूरे देश की संवेदनाओं और मानवीय भावनाओं का घोर अपमान भी करते हैं। क्या इन नेताओं को यह नहीं समझ में आता कि उनके शब्दों से उन परिवारों का दर्द और बढ़ जाता है, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया? क्या उन्हें यह अहसास नहीं कि इस समय हमें केवल वास्तविक मदद की जरूरत है, न कि दिखावे और राजनीति का? यह भी समझना चाहिए कि राजनीति को इस प्रकार के दुखद अवसरों पर अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना समाज के लिए खतरनाक हो सकता है।

इस समय, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम मानवता की रक्षा करें और एकजुट होकर उन लोगों की मदद करें जो संकट में हैं। राजनीति की जगह, हमें पीड़ितों के साथ खड़ा होना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए। यह समय आरोप-प्रत्यारोप का नहीं, बल्कि एकजुट होकर पीड़ितों के साथ खड़े होने और उन्हें सहायता पहुंचाने का है।

कुंभ मेला हमारी सांस्कृतिक धरोहर और सामूहिकता का प्रतीक है, जो सदियों से एक साथ आने, तात्त्विक चिंतन और सामाजिक मेलजोल का अवसर रहा है। इसे धार्मिक विश्वासों से परे, एक संस्कृति और परंपरा के रूप में देखा जाता है। जब इसे राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा बनाया जाता है, तो इससे न सिर्फ इसका आध्यात्मिक महत्व कम होता है, बल्कि समाज का विश्वास भी कमजोर पड़ता है। नेताओं को यह समझना चाहिए कि राजनीति की अपनी जगह है, लेकिन जब वह इस तरह के पवित्र और सांस्कृतिक आयोजनों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं, तो इससे उनके प्रति लोगों का विश्वास घटता है। ऐसे आयोजनों को अपने वास्तविक उद्देश्य के लिए ही संरक्षित और सम्मानित किया जाना चाहिए।

इस तरह की घटनाओं से हमें न केवल प्रशासनिक सुधारों की जरूरत है| यह बहुत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग ऐसे धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजनों को किसी नकारात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं। जो लोग ऐसे समय में जहर फैलाने की कोशिश करते हैं, उनका काम सिर्फ नफरत और विभाजन फैलाना होता है। खासकर कुछ दलाल मीडिया कर्मी, छिछोरे रीलबाज और यूट्यूबर,  जो केवल सनसनी फैलाने और अपने फायदे के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। इस तरह के लोग न केवल पीड़ितों और उनके परिवारों के दुख को नकारते हैं, बल्कि समाज की संवेदनाओं से भी खिलवाड़ करते हैं। यह समय न तो विवादों और झूठे आंकड़ों के लिए है, बल्कि यह समय संवेदनशीलता, सहानुभूति और मानवता के साथ खड़े होने का है। ऐसे लोग जो इस दुख की घड़ी में भी अपना स्वार्थ देख रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि उनके शब्द और क्रियाएं केवल समाज में और अधिक घबराहट और विभाजन पैदा करेंगी। ऐसे लोग समाज में आग में घी डालने का काम करते हैं, लेकिन हमें अपनी आस्था और विश्वास पर कायम रहना चाहिए और उनकी बातों से विचलित नहीं होना चाहिए। यही सबसे उपयुक्त और सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन लोगों के प्रति जिन्होंने इस त्रासदी का सामना किया।

Wednesday, 27 November 2024

भारत की शास्त्रीय भाषाएँ


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बंगाली भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने को मंजूरी दे दी है। शास्त्रीय भाषाएँ भारत की गहन और प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के संरक्षक के रूप में काम करती हैं, जो प्रत्येक समुदाय के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मील के पत्थर पत्थरों को संजोए रखती हैं। 

भारत उन अनूठे देशों में से एक है जहाँ भाषाओं की विविधता की समृद्ध विरासत है। बहुभाषावाद भारत में जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा है, क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में लोग जन्म से ही एक से अधिक भाषाएँ बोलते हैं और अपने जीवनकाल में अतिरिक्त भाषाएँ भी सीखते हैं। यह विविधता न केवल सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि समाज में आपसी संवाद और समझ को भी बढ़ावा देती है।

 शास्त्रीय भाषाओं का महत्व

·         भारत की शास्त्रीय भाषाएँ न केवल देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं, बल्कि वे प्राचीन बौद्धिक और साहित्यिक परंपराओं का भी परिचायक हैं।

·         भारत की शास्त्रीय भाषाएँ (Classical Languages in india in Hindi) भारत के प्राचीन अतीत के लिए एक खिड़की के रूप में काम करती हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करती हैं।

·         शास्त्रीय भाषाओं में लिखे गए ग्रंथों और धर्मग्रंथों के विशाल भंडार में अमूल्य ज्ञान, वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि और दार्शनिक विचार शामिल हैं। जो देश की ऐतिहासिक, सामाजिक और धार्मिक परंपराओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

·         वे क्षेत्रीय पहचान के अभिन्न अंग हैं, क्षेत्रीय गौरव और निरंतरता की भावना को बढ़ावा देते हैं।

·         इन शास्त्रीय भाषाओं का महत्व केवल संचार तक सीमित नहीं है; वे सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने, बौद्धिक विकास को बढ़ावा देने और सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उनका अध्ययन और प्रचार भारत की विविध पहचान को समझने में मदद करता है और वैश्विक सभ्यता में इसकी सार्थक योगदान को बढ़ावा देता है।

 

भारत सरकार ने 12 अक्टूबर 2004 को तमिल को शास्त्रीय भाषा घोषित करते हुए "शास्त्रीय भाषाओं" के रूप में भाषाओं की एक नई श्रेणी बनाने का निर्णय लिया और शास्त्रीय भाषा की स्थिति के लिए कुछ मानदंड निर्धारित किए| इन मानदंडों के आधार पर शास्त्रीय भाषा की स्थिति के लिए प्रस्तावित भाषाओं की जांच करने के लिए नवंबर 2004 में साहित्य अकादमी के तहत संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक भाषाई विशेषज्ञ समिति (एलईसी) का गठन किया गया ।

 I. 1500-2000 वर्षों की अवधि में इसके प्रारंभिक ग्रंथों/अभिलिखित इतिहास की उच्च प्राचीनता।

2. प्राचीन साहित्य/ग्रंथों का एक संग्रह, जिसे वक्ताओं की पीढ़ियों द्वारा एक मूल्यवान विरासत माना जाता है।

3. साहित्यिक परंपरा मौलिक होनी चाहिए और किसी अन्य भाषण समुदाय से उधार नहीं ली जानी चाहिए।

4. शास्त्रीय भाषा और साहित्य आधुनिक से भिन्न होने के कारण, शास्त्रीय भाषा और उसके बाद के रूपों या उसकी शाखाओं के बीच एक विसंगति से भी उत्पन्न हो सकता है।

इन मानदंडों के आधार पर तमिल के अलावा संस्कृत( 2005), तेलुगु( 2008), कन्नड़( 2008), मलयालम(2013 और ओड़िया( 2014)

इन भाषाओं को शास्त्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता केवल मानद नहीं है; यह उन्हें उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए एक विशेष दर्जा और समर्थन प्रदान करता है। यह भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत में उनके योगदान को स्वीकार करता है।

भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने से लाभ

·         भाषाओं को शास्त्रीय भाषा के रूप में शामिल करने से विशेष रूप से शैक्षणिक और अनुसंधान क्षेत्रों में रोजगार के महत्वपूर्ण अवसर पैदा होंगे।

·         इसके अतिरिक्त, इन भाषाओं के प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण, दस्तावेज़ीकरण और डिजिटलीकरण से संग्रह, अनुवाद, प्रकाशन और डिजिटल मीडिया में नौकरियां पैदा होंगी।

·         शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन को प्रोत्साहित करने से कम ज्ञात भाषाओं और बोलियों को पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने के प्रयासों का समर्थन किया जा सकता है

·         इन ग्रंथों का अध्ययन और व्याख्या करके, विद्वान और शोधकर्ता प्राचीन ज्ञान को खोल सकते हैं और चिकित्सा, खगोल विज्ञान, गणित और आध्यात्मिकता जैसे विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

·         शास्त्रीय भाषाओं को समझने से भाषाई विविधता और बहुभाषावाद को बढ़ावा मिलता है, जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए आवश्यक है। बहुभाषावाद न केवल संचार को बढ़ाता है बल्कि सामाजिक बंधनों को भी मजबूत करता है और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है।

·         यह लोगों के बीच भाषाई विविधता और सद्भाव की भावना को बढ़ावा देता है।

·         शास्त्रीय भाषाओं को संरक्षित करके, यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि इसकी समृद्ध विरासत भावी पीढ़ियों तक पहुंचे योग्य और समझी जाती रहे।

·         शास्त्रीय भाषाएँ सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करती हैं, क्योंकि दुनिया भर से विद्वान और उत्साही लोग इन भाषाओं का अध्ययन और अन्वेषण करने के लिए आकर्षित होते हैं।

शास्त्रीय भाषाएँ न केवल अपनी प्राचीनता के कारण अद्वितीय हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न तत्वों पर उनके प्रभाव के कारण भी अद्वितीय हैं। साहित्य, दर्शन, धर्म, कला और विज्ञान पर उनका प्रभाव महत्वपूर्ण रहा है और उन्होंने देश के सांस्कृतिक वातावरण पर अपनी छाप छोड़ी है। प्राचीन ग्रंथों, धर्मग्रंथों और साहित्यिक कृतियों को इन भाषाओं के माध्यम से संरक्षित और प्रचारित किया गया है। उनकी मान्यता और संरक्षण से हमारी विरासत भावी पीढ़ियों तक पहुंचेगी।।