हिन्दी
साहित्य में नाटक का विकास आधुनिक युग में ही हुआ है। इससे पूर्व हिन्दी के जो
नाटक मिलते हैं, वे या तो नाटकीय काव्य हैं अथवा संस्कृत के
अनुवाद मात्र या नाम के ही नाटक हैं, क्योंकि उनमें नाट्यकला के तत्वों का
सर्वथा अभाव है| रीवां नरेश विश्वनाथ सिंह का ‘आनन्द
रघुनन्दन’ नाटक हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है,
जो लगभग 1700 ई. में लिखा गया था, किन्तु उसमें ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ
है |
आधुनिक
काल की अन्य गद्य-विधाओं के ही समान हिन्दी नाटक का भी आरम्भ पश्चिम के संपर्क का
फल माना जाता है। सन् 1859 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता बाबू गोपालचन्द्र ने
‘नहुष’ नाटक लिखा और उसको रंगमंच पर प्रस्तुत
किया। इधर पारसी नाटक कम्पनियां नृत्य-संगीत प्रधान नाटकों को बड़े धूम-धड़ाके से प्रस्तुत कर रही
थी जिससे सुरुचि सम्पन्न तथा साहित्यिक गुणों के खोजी हिन्दी साहित्यकार क्षुब्ध
थे। इस सबसे प्रेरित होकर भारतेन्दु बाबू ने जनता की रुचि का परिष्कार करने के लिए
स्वयं अनेक नाटक लिखे और अन्य लेखकों को नाट्य साहित्य की रचना के लिए प्रोत्साहित
किया।
अध्ययन
की सुविधा की दृष्टि से हिन्दी-नाट्यकला के विकास को चार कालों में बाँटा जा सकता
है |
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भारतेन्दुयुगीन नाटक : 1850 से 1900 ई.
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द्विवेदी युगीन नाटक : 1901 से 1920 ई.
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प्रसाद युगीन नाटक : 1921 से 1936 ई.
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प्रसादोत्तर युगीन नाटक : 1937 से 1950 तक
·
स्वातंत्र्योतर नाटक : 1950 से अब तक
भारतेन्दु-युगीन
नाटक
हिन्दी
में नाट्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्त्तन भारतेन्दु द्वारा होता है। भारतेन्दु
देश की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक दुर्दशा से आहत थे।
अतः साहित्य के माध्यम से उन्होंने समाज को जाग्रत करने का संकल्प लिया। नाटक अपनी
प्रकृति में सामूहिक प्रभाव छोड़ता है इसलिए समाज को जगाने में नाटक सबसे प्रबल
सिद्ध होता है। युग-प्रवर्त्तक भारतेन्दु ने इस तथ्य को पहचाना और नैराश्य के
अन्धकार दूर करने के लिए अनूदित/मौलिक सब
मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की जिनमे विद्यासुन्दर (1868), पाखण्ड
विखंडन (1872), वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873), कर्पूर मंजरी (1876), विषस्य विषमोषधम् (1876), ( (12)
भारत-दुर्दशा (1876), नीलदेवी (1880), दुर्लभ-बन्धु
(1880), अन्धेर नगरी (1881), प्रमुख नाटक है | इसमें से वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेमयोगिनी, विषस्य
विषमोषधम्, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा,
नीलदेवी, अंधेर
नगरी तथा सती प्रताप मौलिक नाटक है | इनमे धार्मिक रूढ़ियों और विडम्बनाओं से
ग्रस्त समाज के पाखण्ड, आडम्बर, भ्रष्टाचार आदि का नाटकीय आख्यान हुआ
है। देशोद्धार की भावना का संघर्ष भारतेन्दु जी के ‘भारत जननी’ और ‘भारत दुर्दशा’
में
घोर निराशा के भाव के साथ प्रस्तुत होता है। भारतेन्दु ने राजनीतिक संघर्ष की
पृष्ठभूमि पर नौकरशाही की अच्छी आलोचना करते हुए ‘अंधेर नगरी’ प्रहसन लिखा है।
भारतेन्दु
ने अंग्रेजी, बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के हिंदी अनुवाद
भी किए, जिनमें रत्नावली नाटिका, पाखण्ड
विखंडन, प्रबोध-चंद्रोदय, धनंजय-विजय, कर्पूर मंजरी,
मुद्रा
राक्षस तथा दुर्लभ बन्धु आदि हैं। अंग्रेजी से किए गए अनुवादों में भारतेन्दु की
एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने उसमें भारतीय वातावरण एवं पात्रों का समावेश किया
है। सभी नाटकों में मानव-हृदय के भावों की अभिव्यक्ति के लिए गीतों की योजना की
है।
नाट्य-शास्त्र
के गम्भीर अध्ययन के उपरान्त भारतेन्दु ने ‘नाटक’ नामक निबन्ध लिख कर नाटक का सैद्धान्तिक विवेचन भी
किया है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर-अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक
एवं मौलिक नाटकों की रचना ही नहीं की, अपितु उन्हें रंगमंच पर खेलकर भी
दिखाया है। उनके नाटकों में जीवन और कला, सुन्दर और शिव,
मनोरंजन
और लोक-सेवा का सुन्दर समन्वय मिलता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वे अद्भुत
नेतृत्व-शक्ति से युक्त थे। फलतः अपने युग के साहित्यकारों और नाटक तथा रंगमंच की
गतिविधियों को प्रभावित करने में सफल रहे। इसके परिणामस्वरूप प्रतापनारायण मिश्र, राधाकृष्ण दास,
लाला
श्रीनिवास, देवकी नन्दन खत्री आदि नाटककारों ने उनके
प्रभाव में नाट्य रचना की। यह भी विचारणीय है कि भारतेन्दु मण्डल के नाटककारों ने
पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, चरित्रप्रधान राजनैतिक आदि सभी कोटियों
के नाटक लिखे। इस युग में लिखे गये नाटक परिमाण और वैविध्य की दृष्टि से विपुल
हैं।
देवकीनन्दन
खत्री कृत ‘सीताहरण’ (1876) और ‘रामलीला’ (1879), शीतलाप्रसाद त्रिपाठी-कृत ‘रामचरित्र
नाटक’ (1891), अयोध्यासिंह उपाध्याय कृत ‘प्रद्युम्न-विजय’ (1893)
तथा ‘रुक्मणी परिणय’ (1894), बालकृष्ण भट्ट कृत ‘नल दमयन्ती
स्वयंवर’ (1895) आदि पौराणिक नाटक है | ऐतिहासिक नाटकों
में श्रीनिवासदास-कृत ‘संयोगिता स्वयंवर’ (1886), राधाचरण
गोस्वामी कृत ‘अमर सिंह राठौर’ (1895) और राधाकृष्ण दास कृत ‘महाराणा
प्रताप’ (1896) ने विशेष ख्याति प्राप्त की। श्री राधाचरणदास कृत ‘दुःखिनी बाला’
(1880), प्रतापनारायण
मिश्र कृत ‘कलाकौतुक’ (1886), काशी नाथ खत्री-कृत ‘विधवा
विवाह’ (1899) बाबू गोपालराम गहमरी कृत ‘विद्या
विनोद’ आदि नाटक नारी-समस्याओं को केन्द्र-बिन्दु
मानकर लिखे गये। इन समस्या-प्रधान नाटकों का मूलस्वर समाज-सुधार है।
राष्ट्रीय
और व्यंग्यात्मक नाटकों की परम्परा ‘नीलदेवी’, ‘भारत दुर्दशा’
आदि
द्वारा चलायी गयी थी। खड्गबहादुर मल्ल कृत ‘भारत आरत’ (1885), अम्बिका दास व्यास कृत ‘भारत-सौभाग्य’ (1887), गोपाल
राम गहमरी-कृत ‘देश-दशा’ (1892), देवकीनन्दन त्रिपाठी-कृत ‘भारत
हरण’ (1899) आदि नाटक विशेष उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों
में देश की तत्कालीन दुर्दशा का चित्र खींचा गया है। राधाचरण गोस्वामी कृत ‘बूढ़े
मुंह मुहासे’ (1886), राधाकृष्ण दास कृत ‘देशी
कुतिया विलायती बोल’ आदि प्रहसनों को विशेष प्रसिद्ध
प्राप्त हुई।
कुलमिलाकर
इस संक्रांति काल में अनेक युग प्रश्नों जैसे-कर, आलस्य, पारस्परिक फूट,
मद्यपान, पाश्चात्य-सभ्यता
का अन्धानुकरण, धार्मिक अंधविश्वास, पाखंड, छुआ-छूत, आर्थिक शोषण, बाल विवाह, विधवा-विवाह, वेश्या गमन आदि को नाटकों का विषय
बनाया गया।
शास्त्रीय
दृष्टि से भारतेन्दु-कालीन नाटक संस्कृत-नाट्यशास्त्र की मर्यादा की रक्षा करते
हुए लिखे गये। साथ ही पाश्चात्य नाट्य शास्त्र का प्रभाव भी इन पर लक्षित होता है।
पाश्चात्य ट्रेजडी की पद्धति पर दुःखान्त नाटक लिखने की परम्परा भारतेन्दु के ‘नीलदेवी’ नाटक
से प्रारम्भ हुई। इस युग के नाटक एक ओर पारसी कम्पनियों की अश्लीलता और फूहड़पन की
प्रतिक्रिया थे, तो दूसरी ओर पाश्चात्य और पूर्व की
सभ्यता की टकराहट के परिणाम। अभिनेयता की दृष्टि से ये नाटक अत्यधिक सफल हैं।
भारतेन्दु और उनके सहयोगी स्वयं नाटकों में भाग लेते थे और हिन्दी रंगमंच को
स्थापित करने के लिए उत्सुक थे। नाटकों के माध्यम से जनता को वे जागरण का और आने
वाले युग का सन्देश देना चाहते थे। इसी कारण भारतेन्दु-काल में विरचित ये नाटक
सुदृढ़ सामाजिक पृष्ठभूमि पर अवस्थित थे।
द्विवेदीयुगीन
नाटक
भारतेन्दु
युग नाट्य लेखन की शुरुआत जिस उत्साह से हुई थी वह द्विवेदी युग में मंद पद गई |
इसका एक प्रमुख कारण गद्य की अन्य विधाओं उपन्यास और कहानी के तेजी से विकास था और
दूसरा प्रमुख कारण नाटको के मंचन की गतिविधियाँ भी मंद हो गई | भारतेन्दु युगीन प्रहसनों
की प्रवृत्ति ने साहित्यिक एवं कलात्मक अभिनयपूर्ण नाटकों की रचना में व्याघात
उपस्थित किया।
द्विवेदी
युग में साहित्यिक नाट्य धारा को विकसित करने के उद्देश्य से अनेक नाटक मंडलियों
की स्थापना की गई जेसे प्रयाग की ‘हिन्दी नाटक मण्डली’, कलकत्ते
की ‘नागरी नाटक मंडल’, मुजफ्रफरनगर की ‘नवयुवक
समिति’ आदि। हिन्दी रंगमंच समुचित साधन और संरक्षण के
अभाव में तथा जनता की सस्ती रुचि के कारण अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया।
पौराणिक
नाटकों में राधाचरण गोस्वामी कृत ‘श्रीदामा’
(1904), बालकृष्ण
भट्ट का ‘बेणुसंहार’ (1909), जयशंकर प्रसाद का ‘करुणालय
(1912) माखन लाल चतुर्वेदी का ‘कृष्णार्जुन-युद्ध
(1918) कुछ ठीक ठिकाने का नाटक है | इन नाटकों का विषय पौराणिक होते हुए भी पारसी
रंगमंच के अनुरूप मनोरंजन करने के लिए हास-परिहास, शोखी और छेड़छाड़ के वातावरण का ही
आधार ग्रहण किया गया है। ऐतिहासिक नाटकों में प्रसाद के ‘राज्यश्री’ नाटक
को छोड़कर और किसी भी नाटक में इतिहास-तत्त्व की रक्षा नहीं हो सकी। इसके अतिरिक्त
सामाजिक-राजनैतिक समस्यापरक नाटक भी लिखे गए लेकिन इनका नाट्यकला की दृष्टि से
विशेष महत्व नहीं है |
इस
काल में कुछ अच्छे प्रहसन अवश्य लिखे गये। प्रहसनकारों में बदरीनाथ भट्ट एवं जी.
पी. श्रीवास्तव के नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। भट्ट जी के ‘मिस
अमेरिका’ और ‘विवाह विज्ञापन’ आदि शिष्ट-हास्यपूर्ण प्रहसन हैं। जी.पी.
श्रीवास्तव ने छोटे-बड़े अनेक प्रहसन लिखे हैं।
मौलिक
नाटकों की कमी द्विवेदी-युग में अनूदित नाटकों द्वारा पूरी की गई। संस्कृत से लाला सीताराम ने ‘नागानन्द’, ‘मृच्छकटिक’, ‘महावीरचरित’, ‘उत्तररामचरित’, मालती
माधव’ और ‘मालविकाग्निमित्र’ और
सत्यनारायण कविरत्न ने ‘उत्तररामचरित’
का
अनुवाद किया। अंग्रेजी से शेक्सपीयर के नाटकों ‘हेमलेट’, ‘रिचर्ड’ द्वितीय’, ‘मैकवेथ’ आदि का हिन्दी में अनुवाद भी लाला
सीताराम ने किया। बंगला नाटकों का अनुवाद प्रस्तुत करने वालों में गोपालराम गहमरी
स्मरणीय हैं। इसी प्रकार भारतेन्दु-युग तथा प्रसाद-युग को जोड़ने वाले बीच के लगभग
25-30 वर्षों में कोई उल्लेखनीय नाटक नहीं मिलता।
प्रसाद-युगीन
नाटक
जयशंकर
प्रसाद युग प्रवर्तक रचनाकार थे | हिंदी नाटकों के विकास में आयी जड़ता को
तोड़ने का काम किया और नाटकों के विकास को गति प्रदान की | प्रसाद की आरम्भिक नाट्य
कृतियां : सज्जन (1910), ‘कल्याणी परिणय (1912), प्रायश्चित
(1912), करुणालय (1913) और राज्यश्री (1918), द्विवेदी-युग
की सीमा के अंतर्गत आती हैं। लेकिन उनकी नाट्यकला का उत्कृष्ट रूप विशाख (1921), अजातशत्रु
(1922), कामना (1927), जनमेजय का नागयज्ञ (1926) स्कन्दगुप्त
(1928), एक घूँट (1930), चन्द्रगुप्त (1931)
और
ध्रुवस्वामिनी (1933) में प्राप्त होता है | प्रसाद के
प्रायः सभी नाटक ऐतिहासिक कथावस्तु को आधार बनाकर लिखे गये हैं| भारतीय इतिहास के
विलुप्त होते हुए स्वर्णिम अतीत को प्रसाद अपने इन नाटकों द्वारा तलाशने और तराशने
का कार्य करते हैं | नाट्य-रचना के संदर्भ में प्रसाद न तो प्राचीन भारतीय पद्धति
का सहारा लेते हैं और न ही पाश्चात्य शैली का. वस्तुतः भारतीय मानसिकता से मेल
खाती एक नई शैली का प्रयोग उन्होंने अपने नाटकों में किया है जो युगीन चेतना से
साम्य रखती है और यही कारण है कि अतीत को आधार बनाकर रचे गये उनके नाटकों में अपने
समय की चिंताएं सघन रूप में मौजूद हैं| उनके नाटक जीवन जगत को पहचानने, मनुष्य को अपने अंतस को ढूंढने के माध्यम बने |
अंतर्द्वन्द्व और संघर्ष उनके चरित्रों को ऐतिहासिक बना देते हैं | हिंदी नाट्य
जगत में उनके प्रयोग आज भी मील का पत्थर सिद्ध हो रहे हैं | प्रसाद ने साहित्यिक
नाटकों की रचना रंगमंच को ध्यान में रखकर नहीं किया बल्कि रंगमंचों को अपने नाटकों
के अनुकूल बदलने के लिए बाध्य किया |
आधुनिक
हिन्दी नाटक साहित्य के विकास में जयशंकर प्रसाद के बाद हरिकृष्ण प्रेमी को
गौरवपूर्ण स्थान दिया जाता है। प्रसाद-युग में ‘प्रेमी’ ने ‘स्वर्ण-विहान’
(1930), ‘रक्षाबन्धन’ (1934), ‘पाताल
विजय’ (1936), ‘प्रतिशोध’ (1937), ‘शिवासाधना’
(1937) आदि
नाटक लिखे हैं। अन्य नाटककारों में हरिऔध (प्रद्युम्न
विजय व्यायोग 1939), सेठ
गोविन्ददास (कर्त्तव्य’ 1936) प्रमुख हैं | ऐतिहासिक अन्य नाटकों में चतुरसेन
शास्त्री कृत ‘उपसर्ग’ (1929) और ‘अमर राठौर’
(1933), उदयशंकर भट्ट कृत ‘विक्रमादित्य’ (1929) को
विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। ये नाट्य-कृतियां हिन्दी नाट्य-कला विकास का एक
महत्त्वपूर्ण चरण पूरा करती हैं।
सामाजिक
नाटकों में गोविन्दवल्लभ पन्त कृत ‘कंजूस की खोपड़ी’ (1923) और ‘अंगूर
की बेटी’ (1929), सुमित्रानन्दन पन्त-कृत ज्योत्स्ना’ (1934)
प्रमुख हैं। हास्य-व्यंग्य प्रधान नाटकों में जी.पी. श्रीवास्तव का ‘दुमदार
आदमी’ (1919) गड़बड़ झाला (1919), नाक में दम उपर्फ जवानी बनाम बुढ़ापा
उपर्फ मियां का जूता मियां के सर (1926) आदि प्रसिद्ध हैं। इस युग में कतिपय
गीति-नाटकों की भी रचना हुई। मैथिलीशरण गुप्त का ‘अनघ’ (1928) हरिकृष्ण प्रेमी कृत ‘स्वर्ण
विहान’ (1937) भगवतीचरण वर्माकृत ‘तारा’, उदयशंकर भट्ट का मत्स्यगंधा (1937) आदि उल्लेखनीय गीति-नाटक है।
इस
प्रकार प्रसाद-युग हिन्दी नाटकों के क्षेत्र में नवीन क्रांति लेकर आया। इस युग के
नाटकों में राष्ट्रीय जागरण एवं सांस्कृतिक चेतना का सजीव चित्रण हुआ है किन्तु
रंगमंच से लोगों की दृष्टि हट गयी थी। जो नाटक इस युग में रचे गये उनमें इतिहास
तत्व प्रमुख था और रंगमंच से कट जाने के कारण वे मात्र पाठ्य नाटक बनकर रह गए।
कथ्य के स्तर पर वे देश की तत्कालीन समस्याओं की ओर अवश्य लिखे गये किन्तु उनमें
आदर्श का स्वर ही प्रमुख रहा। फिर भी इतिहास के माध्यम से अपने युग की यथार्थ
समस्याओं को अंकित करने में वे पीछे नहीं रहे।
प्रसादोत्तर-युगीन
नाटक
प्रसादोत्तर-युगीन
नाटक अधिकाधिक यथार्थ की ओर उन्मुख दिखाई पड़ते हैं। इस युग के नाटकों में प्राचीन
सांस्कृतिक मूल्यों और नयी यथार्थवादी चेतना में समन्वय और सन्तुलन परिलक्षित होता
है। लक्ष्मीनारायण मिश्र नयी चेतना के प्रयोग के अग्रदूत माने जाते हैं। उनके अशोक
(1927), संन्यासी (1829), ‘मुक्ति का रहस्य’ (1932), राक्षस का मन्दिर (1932), ‘राजयोग’ (1934), सिन्दूर की होली (1934), ‘आधी रात’ (1934) आदि नाटकों में भारतेन्दु और प्रसाद की
नाट्यधारा से भिन्न प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती हैं। इस काल में दूसरे प्रतिनिधि
नाटककार उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ है | ‘जय-पराजय’ (1937), स्वर्ग की झलक’ (1938, ‘छठा
बेटा’ (1940), ‘कैद’ (1943-45), ‘उड़ान’ (1943-45), ‘भंवर’ (1943), ‘अलग-अलग रास्ते’ (1944-53), ‘अंजो दीदी’ (1953-54), आदि उनके प्रमुख नाटक है | अश्क के प्रायः सभी
नाटकों में विकसित नाट्य-कला के दर्शन होते हैं। अन्य नाटककारों में हरिकृष्ण
प्रेमी ने ‘छाया’ (1941) और बन्धक (1940, उदयशंकर भट्ट ने ‘राधा’ (1961), ‘अन्तहीन-अन्त’ (1942) ‘मुक्तिपथ’ (1944) ‘शक विजय’ (1949), कालीदास (1950) ‘मेघदूत’ (1950), विक्रमोर्वशी (1950) नाटको की रचना की |
स्वातंत्र्योत्तर
नाटक
स्वतंत्रता
के बाद सामाजिक यथार्थ और समस्या के प्रति जागरूकता के साथ-साथ नाटक के क्षेत्र
में कथ्य और शिल्प के कई नए आयाम उभरे। इसके अतिरिक्त स्थूल यथार्थ के प्रति
नाटककार के दृष्टिकोण में भी अन्तर आया।
युगीन
परिवेश के ऐतिहासिक संदर्भों में पाँचवें दशक तक आम जनता की स्थिति में सुधार और
परिवर्तन आने की अभी धुँधली सी आशा दिखाई दे रही थी परन्तु छठे दशक के बाद से मीठे
मोहक सपने बालू की भीत की भांति ढह गए, परिवेश
का दबाव बढ़ा, मोहासक्ति भंग हुई | यथार्थ बोध का सही
अभिप्राय मोहभंग की इस प्रक्रिया से ही जोड़ा जा सकता है। जगदीश चन्द्र माथुर
ने ‘कोणार्क’ (1954), ‘पहला राजा’ (1969), शारदीया तथा ‘दशरथनन्दन’ और लक्ष्मी नारायण लाल ने अन्धा कुआँ’ (1955), ‘मादा कैक्टस’ (1959), ‘तीन आँखों वाली मछली’ (1960), रक्त कमल (1961), ‘मिस्टर अभिमन्यु’ (1971), ‘कर्फ्यू
(1972)आदि
नाटकों में यथार्थ दृष्टि का परिचय दिया। स्वतंत्रता के बाद हिन्दी नाटक के माध्यम
से आधुनिक भाव-बोध को उजागर करने में धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि नाटककारों ने उसमें महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। डॉ. धर्मवीर भारती के ‘अन्धा
युग’ (1955) गीति-नाटक ने हिन्दी गीत
नाट्य-परम्परा को एक नया मोड़ दिया | इसमें नाटककार ने महाभारत के युद्ध को अनीति, अमर्यादा और अद्धर्-सत्य से युक्त माना
है। आधुनिक भाव-बोध की दृष्टि से दुष्यन्तकुमार के गीतिनाटक ‘एक कण्ठ विषपायी’ (1963) भी विशेष उल्लेखनीय हैं। हिन्दी
नाटकों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले ‘मोहन राकेश’ का ‘आषाढ़
का एक दिन’ (1956), ‘लहरों के राजहंस (1963) तथा ‘आधे-अधूरे’ (1969) ऐसी नाटक हैं जो हिन्दी-नाटक को एक नवीन
गति-दिशा प्रदान करते रहेंगे। मानवीय सम्बन्धों में विघटन के कारण टूटते हुए
व्यक्ति के आभ्यंतर यथार्थ का चित्रण करना इन नाटकों का केन्द्रीय कथ्य एवं मूल
स्वर है। ‘सुरेन्द्र वर्मा’ ने ‘द्रोपदी’, ‘सूर्य की अन्तिम किरण से पहली किरण तक’, ‘आठवां सर्ग’ में सामाजिक समस्याओं को आधुनिक भाव-बोध के साथ
उठाने का प्रयास किया है। ज्ञानदेव अग्निहोत्री के ‘शुतुरमुर्ग’, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘बकरी’ आदि नाटकों में तथा अधुनातन नाटककार
मुद्राराक्षस, लक्ष्मीकांत वर्मा, मणि मधुकर, शंकर शेष और भीष्म साहनी ने भी क्रमशः अपने
नाटकों ‘योअर्स-फेथ-फुल्ली’, ‘तेंदुआ’, ‘मरजीवा’, ‘रोशनी एक नयी है’, ‘रसगन्धर्व’, ‘एक और द्रोणाचार्य’ तथा ‘हानूश’ के माध्यम से सत्ता के छद्म और पाखंडो
का ही पर्दाफाश किया है। प्रभात कुमार भट्टाचार्य का ‘काठ महल’, गंगाप्रसाद विमल का ‘आज नहीं कल’, प्रियदर्शी प्रकाश का ‘सभ्य सांप’, रमेश बख्षी का ‘वामाचरण’, शिवप्रसाद सिंह का ‘घाटियां गूंजती हैं’, नरेश मेहता का ‘सुबह के घण्टे’, ज्ञानदेव
अग्निहोत्री का ‘नेफा की एक शाम’, गोविन्द चातक का’ अपने अपने खूंटे’, विपिन कुमार अग्रवाल का ‘लोटन’, भीष्म साहनी का ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, राजेन्द्र प्रसाद का ‘प्रतीतियों के बाहर’ और ‘चेहरों
का जंगल’ आदि नाटकों में जीवन और समाज की
विसंगतियों को उभारा गया हैं, पीड़ा
संत्रास और अजनबीपन के बीच आज के मानव की दयनीय नियति को रेखांकित किया गया हैं।