अवधी अर्धमागधी अपभ्रंश से निःसृत पूर्वी हिंदी परिवार की उपभाषा है | यह अवध प्रदेश में बोली जाने वाली बोली है | यह अवध प्रान्त के लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोंडा, बाराबंकी, लखनऊ, सीतापुर, उन्नाव, फैज़ाबाद, सुल्तानपुर और रायबरेली जिलों में बोली जाती है | वर्तमान समय में अवधी बोलने वालों की संख्या 4 करोड़ के आसपास है |
एक साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी का इतिहास काफी पुराना है | भाषा के रूप में ‘अवधी’ का प्रथम स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की ‘खालिकबारी’ में मिलता है | इससे स्पष्ट है कि अवधी का अस्तित्व पहले से रहा होगा | इस दृष्टि से अवधी का प्रथम प्राचीन साहित्यिक प्रयोग रोडा कृत ‘राउलवेल’ में मिलता है, जो 1001-1025 ई. से बीच की रचना मानी जाती है | इस भाषा के प्रयोग का दूसरा उदाहरण दामोदर पंडित द्वारा रचित ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ में मिलता है | इसमें अवधी के बोलचाल रूप का प्रयोग हुआ है | इस दौर की भाषा पर निःसंदेह अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है | लेकिन अवधी अपभ्रंश के प्रभावों से मुक्त होने की कोशिश करती दिखाई पड़ती है | फिर भी अवधी में किसी संपूर्ण काव्य-रचना का उदाहरण 1379 ई. में मुल्ला दाऊद की ‘चंदायन’ या ‘लोरकहा’ है | इसलिए मुल्ला दाऊद को केंद्र में रखकर अवधी के साहित्यिक विकास को हम तीन चरणों में विभाजित कर सकते है-
1.
1379 ई से पूर्व की अवधी-जब अवधी
अपभ्रंश के प्रभावों से मुक्त होने का प्रयास करती है और रचनाओं में अवधी भाषा के
प्रयोग मिलते हैं | लेकिन अवधी में रचित कोई साहित्यिक रचना नहीं मिलती है |
2. 1379
ई से तुलसीदास के अविर्भाव तक की अवधी
3. तुलसीदास और उसके बाद की अवधी
1379 ई में रचित चंदायन में ठेठ अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है | चंदायन में उपलब्ध आवहिं, चढ़ावहिं, बहिराहिं, कहहिं, आवइ, भावइ आदि क्रिया रूप जायसी कृत ‘पद्मावत’ और तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ में भी मिलते हैं | साथ ही अरबी-फ़ारसी के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है | इसलिए साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी की नींव रखने का श्रेय मुल्ला दाऊद को है | चंदायन के 124 वर्ष बाद कुतुबन कृत मृगावती भी ठेठ अवधी में रचित काव्य है | लेकिन मृगावती की अवधी पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है |
अवधी भाषा को साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध करने का श्रेय मलिक मुहम्मद
जायसी को है | जायसी ने ‘पद्मावत’ और ‘अखरावट’ में अवध क्षेत्र में प्रचलित बोलचाल
की भाषा को उसकी स्वाभाविक मिठास के साथ काव्य की भाषा बना दिया | इन्होने बोलचाल
की भाषा में कोई भारी परिवर्तन किए बिना उसे सर्जनात्मक बनाने वाले समस्त शैलीय
उपकरणों, अलंकारों, शब्द-शक्तियों, अर्थगुणों, वक्रताओं, ध्वन्यात्मक प्रभाव पैदा
करने वाली शब्द-योजना द्वारा अवधी को कलात्मक ऊंचाई प्रदान की | अवधी में बोलचाल
के रूप में प्रयुक्त हो रहे अपभ्रंश के शब्दों का प्रयोग जायसी ने किया है, लेकिन
तत्सम शब्दों का प्रयोग काफी कम है |
जायसी के समकालीन मंझन ने अपभ्रंश के प्रचलित रूपों के प्रति रूचि
नहीं दिखाई| उनकी ‘मधुमालती’ में अधिक से अधिक द्वित्व या व्यंजन लोप वाले कुछ
शब्दों के प्रयोग दिखाई पड़ते हैं | जैसे-खप्प, तत्त, दिब्ब, दुग्गम, पुब्ब आदि | जायसी
के बाद ‘चित्रावली’ के रचयिता उसमान, ‘इंद्रावती’ और ‘अनुराग बाँसुरी’ के रचयिता
नूर मोहम्मद और ‘युसूफ-जुलेखा’ के रचयिता निसार ने ठेठ अवधी की भाषा को व्यापकता
प्रदान की | इन सूफी रचनाकारों ने जिस अवधी भाषा में रचना की, उसकी व्याकरणिक
विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. संज्ञा
रूपों में कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं आ पायी थी |
2.
पुलिंग संज्ञा की पहचान उकारांत शब्दों
से और स्त्रीलिंग संज्ञा की इकारांत शब्दों से होती है |
3.
बहुबचन के अंत में न, नि, न्हि मिलता है |
4.
सर्वनाम-
महँ, मैं, हौं, हम्ह, हम्हार, तूँ तुइँ, तुम्ह, वह ओइ, ते, जो, जेइँ जेहिं
5.
संज्ञा और सर्वनाम-ऐ( ने के लिए), क,
कहँ काँ, काँह( को के लिए), सों, सौं, तें सेंती( से के लिए)
6. क्रिया—वर्तमान
काल—करत, सूझ; भूतकाल—आव, छूट, कइल,
केन्हसि, दीन्हि; भविष्यत
काल—हुत, अहा, अछिलो, आहि, आहै
अब तक अवधी में काव्य रचना करने वाले अधिकांश कवि सूफी थे, जिन्हें
अपभ्रंश और फ़ारसी काव्य-परंपरा का ज्ञान तो था लेकिन कदाचित् संस्कृत परंपरा से
अनभिज्ञ थे |
अवधी के विकास के तृतीय दौर में गोस्वामी तुलसीदास ‘रामचरितमानस’ लेकर
आए, जिसके माध्यम से अबतक काव्यरूप में प्रचलित बोलचाल की अवधी एकबारगी परिनिष्ठित
साहित्यिक अवधी के रूप में प्रतिष्ठित हो गई | सूफी कवियों की भाषा की तुलना में
अब तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग होने से अवधी की सर्जनात्मक संभावनाओं में
अपरिमित वृद्धि हुई | गोस्वामी तुलसीदास ने ठेठ अवधी की मधुरता को बनाए रखते हुए
उसे परिमार्जित कर संस्कृत की कोमल-कांत पदावली से समृद्ध किया |
जैसे- नाम राम लछिमन दोउ भाई, संग नारि
सुकुमारि सुहाई |
इहाँ हरि निसिचर बैदेही, विप्र फिरहिं हम खोजत
तेहीं |
इन पंक्तियों में तत्सम शब्दों का अद्भुत प्रयोग हुआ है | गोस्वामी
जी की विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को बिल्कुल ही तत्सम रूप में रहने नहीं
देते हैं| जैसे-करुणा, गुण, अमृत और वल्कल का करुना, गुन, अमिय और बलकल में अवधीकरण
हो जाता है |
अमिय मूरि मय चूरन चारू | समन सकल भवरुज
परिवारू ||
अपनी समन्वयवादी प्रकृति के कारण उन्होंने भोजपुरी, राजस्थानी, खड़ी
बोली और अरबी-फ़ारसी प्रयोगों को भी उचित स्थान दिया और उन्हें अवधी बाना पहनाने
में पर्याप्त सफलता मिली है | जैसे-खलक, खसम, गरूर, गुमान, रहम, सबील, सरकार,
साहेब | तुलसी के पारस-स्पर्श से अवधी जिस साहित्यिक और परिनिष्ठित काव्य-भाषा के
पद पर प्रतिष्ठित हुई, उसकी व्याकरणिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1.
परिनिष्ठित अवधी में सूफियों के बहुत
से प्रयोग समाप्त हो गए, लेकिन भाषा प्राचीन रूपों से पूर्णतया अलग नहीं हुई |
2. क्रिया
रूप सरल हो गए-आटै, बाटै का प्रयोग बहुत ही कम हो गया है | सहायक क्रिया में अछ्
धातु नहीं रही |
3. सर्वनाम-
मैं-हम, तु-तुम्ह, जो, को कौन
4.
संज्ञा-सर्वनाम के परसर्ग- का, कहँ(को)
लागि, हित(के लिए), सईं, सैं तैं(से) कै, केर, केरा की
तुलसी की काव्य भाषा का अनुसरण बाद के प्रायः सभी रचनाकार करते रहे,
परन्तु तुलसी ने अवधी को काव्य-भाषा के जिस शिखर पर पहुँचाया, बाद के रचनाकारों के
लिए कुछ नवीन प्रयोग संभव नहीं हुआ | परन्तु मुल्ला दाऊद से लेकर जायसी और
तुलसीदास जैसे महान कवियों के योगदान से अवधी जिस काव्यात्मक उत्कर्ष पर पहुंची,
वह संसार की किसी भी अन्य भाषा के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है |