नयी कविता का भावबोध और शिल्प
दरअसल छायावादोत्तर हिंदी कविता में विकसित होने वाली
काव्यधाराओं में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के बाद नयी कविता का सूत्रपात हुआ।
प्रामाणिक जीवन की अनुपस्थिति के कारण प्रगतिवाद एक नारे में तब्दील हो गयी थी तथा
प्रयोगवादियों ने प्रयोग को ही कविता का साध्य मान लिया। नयी कविता स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद विकसित होने वाली एक ऊर्जावान काव्यधारा है, जिसमें
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जीवन और व्यक्ति की संश्लिष्ट जीवन परिस्थितियों का
रचनात्मक साक्षात्कार किया है। डॉ. जगदीशचंद्र गुप्त ने नयी कविता को अपने युग की
वास्तविकता के अनुरूप बताया है, जबकि धर्मवीर भारती ने इसे पुराने और नए मानव
मूल्यों के टकराव से उत्पन्न तनाव की कविता माना है। मुक्तिबोध के अनुसार-“नयी कविता मूलतः
एक परिस्थिति के भीतर पलते हुए मानव हृदय के पर्सनल सिचुएशन की कविता है”। नयी कविता
रचनाकार एवं समाज के नए संबंधों को धारण करने वाली है। इसके काव्यभूमि
के निर्माण में समकालीन पत्रिकाएँ जैसे नए पत्ते, निकष, प्रतिमान, क,ख,ग, इत्यादि का
महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
नयी कविता के उदय में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न अस्तित्ववादी दर्शन, पश्चिमी संस्कृति, राजनीति से उत्पन्न मोहभंग एवं नगरीकरण की प्रक्रिया में मध्यवर्गीय जीवन के सपने एवं दु:स्वप्न की निर्णायक भूमिका रही है। नयी कविता का विश्वास आधुनिकता में है। आधुनिक दृष्टिकोण का अर्थ – नए मूल्यों के लिए विकलता और संवेदना से है। इसी दृष्टिकोण के तहत नया कवि आज के तनावों, सार्वभौम संकट, मनुष्य की पीड़ा एवं उसकी नगण्यता तथा गरिमा से जुड़ता है है और इस सम्पृक्ति के दबाव में अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेषण के माध्यमों को पुनराविष्कृत करता है। जिस आधुनिकता को यह स्वीकारती है, उसमें वर्जनाओं और कुंठाओं के बदले अत्यंत मुक्त यथार्थ का समर्थन है। यह दृष्टिकोण अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, श्रीकांत वर्मा, धूमिल, कुंवर नारायण, राजकमल चौधरी, विजयदेव नारायण साही, लीलाधर जगूड़ी जैसे नए कवियों के पास थी।
नई
कविता की दृष्टि मानवतावादी है, किंतु
यह मानवतावाद मिथ्या-आदर्शों की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। नई कविता ने लोकजीवन की अनुभूति, सौंदर्यबोध, प्रकृति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार
मानवीय भूमि पर ग्रहण किया है | नई कविता की लोक संपृक्ति का वास्तविक प्रतिनिधि
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को कह सकते हैं। प्रजातंत्र तथा व्यापक मानवतावाद, लोकसंपृक्ति तथा नई कविता आज एक दूसरे
को अनिवार्य रूप से संबद्ध हैं। नई कविता स्वातंत्र्योतर भारतीय राजनीतिक जीवन से
संबद्ध है। नई कविता की राजनीतिक चेतना रचनाकार के स्वतंत्र विवेक और मानवीय
प्रतिबद्धता से प्रेरित है, जिसका प्रमुख स्वर गंदी राजनीति का पर्दाफ़ाश करना है।
यथार्थ
के प्रति उन्मुक्त दृष्टि नई कविता की आधारभूत विशेषता है। यथार्थ की तीखी चेतना, परिवेश से जुड़ाव, चिंतन एवं संवेदना के उलझे हुए अनेक
स्तर उसके आधार हैं। नई कविता यह मानती है कि यथार्थ का कोई निर्दिष्ट ढाँचा नहीं
है।इसी कारण नई कविता यथार्थ को उसकी संपूर्णता में ग्रहण करती है। मुक्तिबोध
लिखते हैं :-
“जिंदगी में जो कुछ, जो भी, है, सहर्ष
स्वीकारा है,
इसलिए की जो कुछ भी मेरा है, वह तुम्हें प्यारा है।”
सच
कहा जाए तो नई कविता रचनाकार एवं समाज के नए संबंधों को धारण करने वाली है।
नई
कविता की जीवन में गहरी आस्था है। जीवन के प्रति आस्था का तात्पर्य है–जीवन के सम्पूर्ण उपभोग में विश्वास।
यह लघुमानव की अवधारणा का सूत्रपात करती है और इस लघुता को लेकर उसके भीतर हीनता
की कोई ग्रंथि नहीं है। धर्मवीर भारती लिखते है-
“मैं रथ का टूटा पहिया, लेकिन मुझे फेंको मत
क्योंकि
इतिहासों की सामूहिक गति सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या
जाने, सच्चाई टूटे पहियों का आश्रय ले।
लघुमानव
कोई क्षुद्र मानव नहीं है। वह तो प्रजातंत्र में शहरों के विकास और अंधाधुंध मशीनीकरण के कारण मानव के महत्व में
कमी आने से पैदा हुआ है | यह साधारण मनुष्य है जो अपनी सारी संवेदना, भूख-प्यास और मानसिक गठन को लिए हुए
उपेक्षित है। लघुमानव किसी राजनैतिक पार्टी या विचारधारा, किसी दर्शन, सम्प्रदाय के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। वह केवल
सहज मानवीय संवेदनाओं के प्रति प्रतिबद्ध है। लघुमानव द्वारा एक-एक क्षण को जीने
और भोगने की मजबूरी ही उसके लिए द्वंद्व और तनाव का संसार रचती है। नई कविता
द्वंद्व और तनाव को भी काव्य-मूल्य की तरह उपस्थित करती है। शमशेर की ‘एक अटका हुआ आँसू’, ‘पतझड़ का अटका हुआ पत्ता’, उनकी काव्यानुभूति के तनाव का ही
प्रतिफलन हैं। इस लिहाज से श्रीकांतवर्मा ‘मायादर्पण’ में और रघुवीर सहाय ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में अपने इसी रचनात्मक और सामाजिक तनाव का
उल्लेख करते है। ‘माया दर्पण’ की पंक्तियाँ हैं-
“तुम जाओ अपने बहिश्त में
मैं
जाता हूँ
अपने
जहन्नुम में”
नयी
कविता अनुभूति की जटिलता और प्रमाणिकता की कविता है | अनुभूति की जटिलता का संबंध
संदर्भ से उत्पन्न होने वाले भावबोध की प्रकृति से है। नई कविता का कवि उस अनुभव
को कविता में पिरोता है,
जिसे
उसने जीने के दौरान प्राप्त किया है। क्षणयोग से उभरने वाला उसका निजी सुख-दुःख
चाहे कितना ही लघु एवं उपेक्षणीय हो, किंतु
प्रामाणिक तो है । ये कविताएँ आकार में छोटी होती हैं, किंतु अनुभव की प्रामाणिकता के कारण प्रभाव में
बहुत ही तीव्र होती हैं।
आधुनिक
भाव-बोध मूल्यों के संकट की बात बार-बार कहता है। आधुनिक जीवन संरचना में परंपरागत
मूल्य निरर्थक हो गए हैं और नए मूल्यों की सृष्टि नहीं हो पायी है। अतः मनुष्य
मूल्यहीनता और अनास्था के अँधकार में जीने के लिए अभिशप्त हैं। धर्मवीर भारती के ‘अँधा युग’ में मूल्यों के संकट की बात बार-बार कही गयी
है। यथा –
“जिसको तुम कहते हो प्रभु
उसने
जब जब चाहा
मर्यादा
को अपने ही हित में बदल लिया
वंचक
है वो”
दरअसल
नयी कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार
सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है| कुँवर नारायण के ‘आत्मजयी’ का नचिकेता बाप द्वारा सौंपे हुए मूल्यों को
अस्वीकारता हुआ यातनाएँ सहता है और उन यातनाओं से ही उसे सही जीवन-दृष्टि और शक्ति
प्राप्त होती है। अतः आधुनिक भावबोध का महत्वपूर्ण तत्व वेदना है, जो स्वतंत्रता और दायित्वबोध के
अकेलेपन की टकराहट से उत्पन्न मनुष्य को नियति के रूप में चित्रित करता है। जैसे –
“दुःख सबको माँजता
और
चाहे स्वयं
सबको
यह मुक्त करना न जाने,
किंतु
जिन्हें यह माँजता है।
उन्हें
यह सीख देता है कि
दूसरों
को मुक्त रखे।”
आधुनिक
भावबोध की एक स्थिति निरर्थकताबोध भी है। यांत्रिक जीवन, अराजकतावादी राजनीति और पूँजीवादी संस्कृति के
कारण उत्पन्न निरर्थकता का बोध नई कविता में बहुत गहरा है, जो अप्रमाणिकता की मानसिक चेतना के रूप में
अभिव्यक्त होता है। केदारनाथ सिंह के शब्दों में-
“तुमने जहाँ लिखा प्यार,
वहाँ
लिख दो सड़क।
फर्क
नहीं पड़ता
मेरे
युग का मुहावरा है
फर्क
नहीं पड़ता।”
नयी कविता का शिल्प
नई
कविता आधुनिक संवेदना के साथ मानवीय परिवेश के सम्पूर्ण वैविध्य को नए शिल्प में
अभिव्यक्त करने वाली काव्यधारा है। नई कविता में परंपरागत कविता से आगे नए भावबोध
की अभिव्यक्ति के साठ-साठ नए शिल्प-विधानों का भी अन्वेषण किया गया है। नयी कविता
भाषा को परिवेश का बोधक मानती है। इसमें भाषा के बोलचाल रूप पर बल दिया गया है।
नया कवि कविता में बातचीत नहीं बल्कि बातचीत में कविता की शैली में कविता करता है।
“जिस तरह हम बोलते है, उस तरह तू लिख/फिर भी हमसे बड़ा तू दीख।” नयी कविता में तत्सम तद्भव के साथ-साथ
अंग्रेजी, उर्दू और लोकभाषा के शब्दों का
नि:संकोच प्रयोग किया गया है।
काव्य-शैली
के स्तर पर नयी कविता लंबी कविता के विन्यास को स्वीकार करती है। यह इतिहास और
पुराण को अपदस्थ कर स्वयं नए कथानक का विन्यास करती है। इस दृष्टि से मुक्तिबोध का
‘अँधेरे में’, धूमिल की ‘पटकथा’, राजकमल चौधरी का ‘मुक्ति प्रसंग’ तथा अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ प्रमुख हैं। छोटी कविताएँ जहाँ प्रगीतात्मक हैं, वहीं लंबी कविताओं की संरचना नाटकीय
है। लेकिन यह जरुरी नहीं कि हर लंबी नयी कविता की संरचना नाटकीय ही हो। मसलन, अज्ञेय की लंबी कविता ‘असाध्य वीणा’ अपने आकार में लंबी है, इसके बावजूद यह कविता प्रगीतात्मक है और
कहीं-कहीं उसमें नाटकोचित संवाद भी है। नयी कविता में छंद की समूची अवधारणा का
निषेध करते हुए ‘स्वाधीन लय पर जोर दिया गया और इसका
संबंध अर्थ-लय की स्थापना से है।
नयी
कविता में बिंब विधान का आधार अनुभूत जीवन की ठोस प्राकृतिक घटनाएं हैं, जिसमें प्रस्तुत-अप्रस्तुत का द्वैत
ख़त्म हो गया है। जैसे –
“जिंदगी दो अँगुलियों में दबी,
सस्ती
सिगरेट के जलते टुकड़े की तरह है
जिसे
कुछ लम्हों में पीकर नाली में फेंक दूँगा।”
3.6. प्रगतिवादी नयी कविता
नयी
कविता आन्दोलन के अंतर्गत प्रगतिशील एवं जनवादी चेतना की धारा को प्रगतिवादी नयी
कविता कहा गया है| नयी कविता वाद-मुक्ति की कविता है| लेकिन प्रगतिवादी नयी कविता अपने
विचारधारात्मक आग्रह को छुपाती नहीं है | इस
दौर में त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, यथार्थवादी– जनवादी चेतना के प्रतिनिधि हैं। जबकि मुक्तिबोध, शमशेर, भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह और रघुवीर सहाय नयी कविता के
भीतर से प्रगतिवादी चेतना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे| इनके काव्य को ही प्रगतिवादी नयी कविता कहा गया
है| यथार्थ का सकारात्मक साक्षात्कार
प्रगतिवादी नयी कविता की प्रमुख प्रवृति है | यह जीवन की अनास्था, निराशा, व्यक्तिवादी कुंठा और मरणधर्मिता को महत्व नहीं
देती है| प्रगतिवादी नयी कविता के कवियों की
अनुभूतियाँ और संवेदना गाँव से जुडी हुई है | लोक-सम्पृक्ति कविता की एक खास विशेषता है। वह सहज
लोक-जीवन के करीब पहुँचने का प्रयत्न कर रही है।
प्रगतिवादी
नयी कविता का सामाजिक यथार्थ से गहरा संबंध है। कविता का स्वर अपने परिवेश की
जीवनानुभूति से फूटा है। यह कविता जीवन का मूल्य, उसका सौंदर्य, उसका प्रकाश जीवन में ही खोजती है, उसे जीवन की सच्ची व्यथा के भीतर पाना
चाहती है। इसलिए प्रगतिवादी नयी कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार
सभी प्रकार के मूल्यों को पूरी तरह से नकारती नहीं बल्कि उसके प्रति एक सकारात्मक
दृष्टिकोण है | केदारनाथ अग्रवाल ने मानव के प्रति
प्रकृत राग को नया अर्थ दिया है | उन्हें
‘आँख मूंद’ पेट पर सिर टेके बैठा आदमी तकलीफ देता है | उनकी काव्यानुभूति में यथार्थ का नया
संसार जन्म लेता है |
प्रगतिशील
धारा के सभी कवियों की काव्य संवेदना एक दूसरे के काफी निकट है और समय एवं समाज के
जटिल यथार्थ को कविता में सामने लाती है | व्यापक अर्थ में प्रगतिवादी नयी कविता में
जीवनधर्मी लगाव है |
वह
प्रेम करुणा, उत्साह,कर्म, सौन्दर्य, साहस, प्रकृति से लगाव, इतिहास बोध, वर्ग चेतना, प्रतिबद्धता के साथ विश्वास की कविता है |
प्रगतिवादी
नयी कविता का कवि जीवन में कर्म-सौन्दर्य और संघर्ष-सौन्दर्य को महत्त्व देता है | परम्परा के स्तर पर यह कविता निराला की
काव्य परंपरा का प्रकृत सौन्दर्य लिए हुए है | यहाँ कवि प्रार्थना की मुद्रा में आने के
बावजूद यही कहता है कि उसे शक्ति और कर्म का सौन्दर्य चाहिए | इसलिए विजयदेव नारायण साही लिखते है-
परम
गुरु
दो
तो ऐसी विनम्रता दो
कि
अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और
यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड
न लगे |
प्रगतिशील
कवियों ने परंपरा की जड़ता का विरोध इसलिए किया है कि वह लोगों को शोषण का शिकार
बनाती है | लेकिन प्रगतिशील नया कवि उसका विरोध
इसलिए करता है कि उसके कारण लोगों को शोषण होता है साथ ही मानव-विवेक भी कुंठित हो
जाता है|
प्रगतिवादी
नयी कविता अपने समय-सन्दर्भों में मानवीय उपस्थिति और लगाव की कविता है। वह
बहुआयामी जीवन की सच्चाईयों को बिना लाग-लपेट के रूपायित करती है। वह जीवन की
बहुपक्षी अनुभूतियों को कलमबद्ध करने की एक जटिल यथार्थवादी प्रक्रिया है। इस
कविता का सारा दृष्टिकोण आधुनिक है|
प्रगतिवादी
नयी कविता में परिवेश के प्रति गहरे लगाव का भाव बढ़ा है | अपनी संवेदनात्मक ऐन्द्रियता में कवियों ने
विचारों और उनके टकरावों को उनके मूल में पकड़ने की कोशिश की है | केदारनाथ सिंह “अकाल में सारस’ और सर्वेश्वरदयाल ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ में परिवेश को ही कविता बनाते नजर आते है|
3.7.
स्वातंत्र्योतर
हिंदी कविता की अन्य प्रवृतियाँ
स्वातंत्र्योतर
परिवेश में हिंदी कविता के कथ्य और शिल्प में बहुआयामी बदलाव हुआ | नयी कविता स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
विकसित होने वाली एक ऊर्जावान काव्यधारा है, जिसमें स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जीवन और
व्यक्ति की संश्लिष्ट जीवन परिस्थितियों का रचनात्मक साक्षात्कार किया है। लेकिन नयी
कविता की यह धारा 60 के दशक के बाद हिंदी कविता धाराओं में बंटती गई और
काव्यान्दोलनों का ज्वार सा आ गया | आलोचकों ने इन काव्यान्दोलनों को सामूहिक रूप
से साठोतरी कविता नाम दिया है| साठोतरी कविता आन्दोलनों में अकविता, बीट कविता,
युयुत्सावादी कविता, प्रतिबद्ध कविता, विचार कविता, नवगीत और समकालीन कविता आदि
प्रमुख है| इनमें सा अधिकांश नारेबाजी के परिणाम है जिसे काव्यान्दोलन नहीं माना
जा सकता है| अभिव्यंजना और संवेदना के स्तर पर केवल अकविता और नवगीत आन्दोलन ने
मौलिक रचनात्मक आयाम प्रस्तुत किए हैं|
नवगीत आन्दोलन-नवगीत आन्दोलन नयी कविता के भीतर ही
गीतों का आन्दोलन है जो 1958 में ‘गीतांगिनी’ संकलन के प्रकाशन के साथ प्रचलित हुआ
| ‘गीतांगिनी’ की भूमिका में संपादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नयी कविता के
सामानांतर लिखे जा रहे गीतों को ‘नवगीत’ नाम दिया और नवगीत को नयी कविता के
पार्श्व में रखकर व्याख्यायित किया| नवगीत नामकरण के पीछे किसी आन्दोलन का भाव
नहीं था। बल्कि ऐतिहासिक और समकालीन रचनात्मकता के दबाव महत्वपूर्ण रहे हैं। परम्परावादी
गीत जब नितान्त व्यक्तिगत आत्मरुदन की क्षयशीलता से ग्रस्त होकर असफल प्रेमी की
एकान्तिक प्रलाप बना हुआ था, तब
आने वाले गीत कवियों के लिए एक चुनौती थी कि वे गीत को इस एकान्तिकता की खोह से
निकाल कर उसे अपने समय के मनुष्य एवं उसकी दैनन्दिनी से जोड़े | प्रगति और विकास
की दृष्टि से इन रचनाओं का व्यापक महत्त्व है, जिनमें नयी कविता के प्रगीत का पूरक
बनकर ‘नवगीत’ आन्दोलन विकसित हो रहा था | नवगीत आधुनिक काव्यबोध, जिसमें काव्यमूल्यों के साथ-साथ
ज्ञानात्मक संवेदन भी है, का छंदोबद्ध अनुगायन है। यह बड़बोलेपन से मुक्त आत्मीय
संवाद है। इसमें कविता की अपनी शर्तों के साथ जनपक्षधरता, आमजन के संघर्ष, उसके सौन्दर्यबोध आदि जीवन के विविध
पक्षों को अभिव्यक्ति का विषय बनाया गया है । नयी कविता की सभी काव्य प्रवृतियाँ नवगीत
में दृष्टिगत होती हैं| रचाव के क्षेत्र में भाषा, बिंब, प्रतीक तथा सोच की दृष्टि
से यह नयी कविता और लोकगीतों से प्रभावित है | केदारनाथ सिंह, रवीन्द्र ‘भ्रमर’,
रामदरश मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, रमानाथ अवस्थी, रमेश रंजक, परमानन्द श्रीवास्तव
नवगीत आन्दोलन के प्रमुख कवि रहे है |
प्रतिबद्ध
कविता
प्रतिबद्ध
कविता आन्दोलन मार्क्सवादी चेतना से संपृक्त होकर (गुटनिरपेक्षता का दावा करते
हुए)मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, चंद्रकांत देवताले, पारसनाथ सिंह, राजीव सक्सेना
आदि के माध्यम से आगे बढ़ा किन्तु संकीर्णता के कारण आगे चलकर नयी कविता की
प्रगतिवादी धारा में विलीन हो गया |
अकविता
आन्दोलन
अकविता
का आंदोलन नई कविता के खिलाफ चला। ‘अकविता’ पत्रिका के माध्यम से इसके प्रवर्तन का
प्रयास किया गया | अकविता आक्रोश की कविता तो थी लेकिन वह जनाक्रोश की कविता नहीं
बन सकी फिर भी अकविता ने नयी कविता के प्रति मोहभंग को उभारने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। अकविता
की सकारात्मक भूमिका यह रही है कि उसने शिक्षित मध्य वर्ग को प्रतिक्रिया करने तथा
विरोध जताने का साहस प्रदान किया| अकविता में कुत्सित, अश्लील, और वीभत्स कुछ भी
वर्जित नहीं है | परिवेशजन्य प्रतिक्रियाओं को चलती भाषा में निरपेक्ष चित्रण
अकविता का लक्ष्य रहा है | वस्तुत: अकविता ने माहौल में मौजूद प्रश्नाकुलता को
उभारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परंतु अकविता में मौजूद दिशाहीन विरोध एवं
समस्त का नकार उसे ले डूबा। अकविता द्वारा उठाए गए प्रश्न मुख्यत: समाज संस्कृति
एवं राजनीति के मूल प्रश्न थे जो निश्चित रूप से व्यवस्थाजन्य थे। सत्तर के दशक के
कवियों ने इन प्रश्नों को सुसंगत राजनीतिक दृष्टिकोण के साथ एक बार फिर उठाने का
प्रयत्न किया और बुर्जुआ माहौल में जनांदोलन को अनिवार्य माना। नागार्जुन की इस
दौर की कविताओं में जो तीव्र जनाक्रोश दिखता है उसके मूल में सत्तर के दशक का
माहौल था इस व्यापक जनाक्रोश का ज्वलंत दस्तावेज बना उनका काव्य “खिचड़ी विप्लव देखा हमने” | जगदीश चतुर्वेदी, चंद्रकांत
देवताले, सौमित्र मोहन, सतीश जमाली, मुद्राराक्षस, राजकमल चौधरी और श्याम परमार
अकविता आन्दोलन के उल्लेखनीय कवि हैं |
समकालीन कविता
1970
के बाद की कविता को समकालीन कविता के नाम से जाना जाता है। आरम्भ में इसमें अपने
काल विशेष में होने वाली घटनाओं के खुलासे की प्रवृति निहित थी। डॉ.विश्वम्भर नाथ
उपाध्याय ने इसी आधार पर उस काल के अनेक अलग-अलग आन्दोलनों के समर्थक रचनाकारों का
समवेत संकलन भी प्रकाशित किया था। समकालीनता एक ही समय में एक साथ होने, जीने, काम
करने की द्योतक है। अतः एक काव्य प्रवृति के रूप में समकालीनता बोध कों स्वीकार
करना चाहें तो यह कह सकते हैं कि समकालीन कविता ऐसी कविता है जो अपने समय के साथ
चलती है, होती है, जीती है। इसे आधुनिकता बोध का अगला चरण
भी कहा जा सकता है। अंतर केवल इतना है कि आधुनिकता बोध के केंद्र में आधुनिक
मनुष्य है और समकालीनता बोध के केंद्र में समकाल। इससे यह समझ में आ जाता है कि
समकालीन कविता अपने समय की विसंगति, विडम्बना और तनाव से जुड़े सवालों से
टकराती एक विशेष रूप और गुणधर्म वाली कविता है, जिसके लिए अपने समय में सटीक होना
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। रघुवीर सहाय, केदारनाथ
सिंह, गगन गिल, अनामिका, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, विवेक शुक्ल, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, कात्यायनी, राजीव सबरवाल आदि समकालीन कवियों में इन
मुद्दों के समाधान ढूँढने की बड़ी छटपटाहट देखी जा सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं
कि ये कवि केवल समकालीन कविता के प्रतिनिधि कवि ही नहीं बल्कि समकालीन कविता के
प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध कवि भी हैं।
विचार कविता
यह आन्दोलन भी नयी कविता की रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष के फलस्वरूप सन 70 के बाद अस्तित्व में आया | नरेंद्र मोहन, वेणुगोपाल, अलोकधन्वा, कुमार विमल, ज्ञानेंद्र पति, ऋतुराज और धूमिल आदि इस आन्दोलन के प्रमुख कवि रहे है | लेकिन रचाव और सोच के स्तर पर नयी कविता से भिन्न नहीं जान पड़ती है बल्कि उसी का एक आयाम प्रतीत होती है |
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