.भारतीय नवजागरण और भारतेंदु
नवजागरण
का आशय है वह दृष्टिकोण जिसके लिए मानवता, इहलौकिकता, तार्किकता, वैज्ञानिकता, समानता, आत्मान्वेषण, राष्ट्रीयता, स्वाधीनता आदि मूल्य अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारत में अंग्रेजी
राज की स्थापना से भारतीय जन-मानस प्रभावित हुआ | इसका सीधा सा प्रमाण यह है कि
देश के जिस भाग में अंग्रेजों का प्रभुत्व पहले स्थापित हुआ, उस भाग में ही
नवजागरण की चेतना का प्रारंभ पहले हुआ | इसका कारण यह था कि यूरोपीय संस्कृति नयी
वैज्ञानिक सभ्यता और चिंतन धारा पर आधारित थी और भारतीय संस्कृति पारम्परिक धर्म
और अध्यात्म पर आधारित थी| अतः जिस क्रम से और जिन स्थानों से भारत पर अंग्रेजी
शासन स्थापित होता गया उसी क्रम से अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा संस्थाएं,
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन और समाज-सुधार के आन्दोलन का प्रारंभ होता गया | बंगाल,
जो तत्कालीन अंग्रेजी सरकार की राजधानी हुआ करती थी, में नवजागरण का प्रारंभ
भारतीय और यूरोपीय संस्कृतियों की टकराहट के साथ हुआ| बंगाल में नवजागरण की चेतना
राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घुमती है | उन्होंने ‘ब्रह्म समाज’
की स्थापना की और मूर्तिपूजा, जाति प्रथा, सती प्रथा आदि का विरोध किया और विधवा
विवाह, स्त्री शिक्षा, स्त्री-पुरुष की समानता आदि का समर्थन किया | 1856 में अवध
के अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन हो जाने के कारण सम्पूर्ण हिंदी प्रदेश भी अंग्रेजी
सत्ता के अधीन हो गया | इस क्षेत्र में टकराहट की प्रक्रिया की शुरुआत 1857 के
विद्रोह से हुई | किन्तु भारतीय नवजागरण अंग्रेजों की देन नहीं वरन्
भारतीय सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों की उपज है। इस नए बने वातावरण ने भारतीय समाज की मध्यकालीन
जड़ता, अंधविश्वासों और रुढियों से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया | भारतवर्ष के इतिहास में इस काल को नवजागरण
काल इसीलिए माना जाता है क्योंकि इसी समय देशवासी मध्ययुगीन पौराणिकता से बाहर निकल
कर देश के गौरव के अनुभव के साथ-साथ भविष्य के आशापूर्ण स्वप्न देखने लगे थे। इस
नवचेतना के फलस्वरूप गद्य और काव्य साहित्य में नवीन भावों एवं विचारों का
आविर्भाव और सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में
गतिशीलता का जन्म हुआ | इसकाल में देश के जनमानस में नर्इ चेतना का उदय हुआ। यह
चेतना अपने समय की परिसिथतियों से उपजी थी, और राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों में विभिन्न
रूपों में अभिव्यक्त हुर्इ| इस नवजागरणकालीन परिवेश में हिंदी साहित्य में सबसे
प्रभावशाली व्यक्तित्व भारतेंदु हरिश्चंद्र का ही था |
नवजागरण काल में वैज्ञानिक सोच का विकास एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में विकसित होती दिखाई देती है। जहाँ पुरानी रूढ़ियों, परंपराओं, मान्यताओं का वैज्ञानिक परीक्षण हुआ। वैज्ञानिकता के साथ-साथ प्रयोगधर्मिता इस नये समाज की पहचान बनकर सामने आयी, साथ ही सामंतवादी प्रवृत्तियों का ह्रास हुआ।
भारतेंदु
इस नवजागरण की वाणी बनकर आए, और उनके समकालीन कवियों और लेखकों
(प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भटट, प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, बालमुकुंद गुप्त आदि) ने इसमें योग
दिया। अंग्रेजी राज्य द्वारा प्राप्त सुविधाओं के कारण इनकी प्रारंभिक रचनाओं में
राजभक्ति का स्वर सुनार्इ पड़ता है, पर इनका मुख्य स्वर राष्ट्रीय चेतना का
ही है। अपनी कविताओं में भारतेंदु ने राजभक्ति के आवरण में अंग्रेजों का घोर विरोध
किया| वे अंग्रेजों के दमन से अपरिचित नहीं थे-
“कठिन सिपाही द्रोह–अनल जा जन बल नासी।
जिन
भय सिर ना हिलाये सकत कहुँ भारतवासी|”
कविता
की दूसरी पंक्ति में अंग्रेजों की क्रूर दमनकारी नीति का सच उजागर हो जाता है। नवशिक्षित
कवियों को देश का अध:पतन, देश की रूढि़-प्रियता, पाश्चात्य
सभ्यता का अंधानुकरण, पुलिस और अदालती लोगों की लूट-खसोट, भारत
की निर्धनता, पारस्परिक कलह आदि बातें देखकर मर्मांतक पीड़ा
होती थी। भारतेंदु ने अपनी भाषा में अभिव्यक्ति को नवजागरण पहली शर्त्त घोषित
की-“निज भाषा उन्नत अहै, निज उन्नत को मूल |” स्वभाषा के आग्रह
की परिणति ही 'स्वत्व निज भारत गहै'
में होती है | नामवर सिंह के अनुसार “ यह 'स्वत्व' वही
है जिसे आजकल 'अस्मिता' कहते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता इस ‘स्वत्व’ की पहली शर्त है।” साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा इस नवजागरण
की प्रमुख प्रवृति है | भारतेंदु ने स्वदेशी का नारा देते हुए 23 मार्च 1874 को
कवि वचन सुधा में एक प्रतिज्ञा पत्र प्रकाशित किया जिसके अंतर्गत व्यापारियों, शिक्षितों तथा आम जनता से स्वदेशी
अपनाने की अपील की गयी। उन्होंने इस प्रतिज्ञा पत्र में लिखा कि –‘‘हम लोग सर्वांतर्यामी सब स्थल में
वर्तमान समदृष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर एक नियम बनाते हैं और
लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहनेगें।...हिंदुस्तान
ही का बना कपड़ा पहिनेंगे|”
ब्रिटिश शासन की
दमनकारी नीति के कारण राजनीतिक
मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध था, फिर भी नवजागरण के उन्नायक हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ नहीं
गए, बल्कि उन्होंने स्वत्व-रक्षा के अन्य
मोर्चों पर संघर्ष जारी रखा। यह संघर्ष था सांस्कृतिक मोर्चे का-सांस्कृतिक
मोर्च पर औपनिवेशक मानसिकता और दिमागी गुलामी के खिलाफ संघर्ष। कहना न होगा कि यह
संघर्ष राजनीतिक संघर्ष से कम कठिन न था। उपनिवेशवाद की छाया में भारतीय संस्कृति
के लोप का खतरा था। इसलिए अपनी संस्कृति की रक्षा का प्रश्न स्वत्व-रक्षा का
प्रश्न बन गया था। इस दौर के अधिकांश रचनाकार पत्रकार भी थे और देश की जनता के
बीच राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने के लिए तथा साथ ही औपनिवेशिक शासन के
दुश्चक्र को बेनकाब करने का लिए इन्होंने पत्रों का सहारा लिया। भारतेंदु राजाओं, बुद्धिजीवियों, रईसों, पंडितों और विद्वानों के स्वत्वहीन स्थिति पर
दुःख प्रकट करते हैं। वे देश के विशाल जन समुदाय की ओर आशा भरी नज़रों से देखते
हैं।
भारतीय
नवजागरण काल में राष्ट्रवादी नेताओं ने अंग्रेजों द्वारा भारत की आर्थिक लूट की
नीति को जनता के सामने रखना शुरू किया। आर. सी. मजूमदार ने भारत का आर्थिक इतिहास, दादा भाई नौरोजी ने धन के बहिर्गमन
सिद्धांत तथा महादेव गोविंद रानाडे ने अंग्रेजों के आर्थिक शोषण का आलोचनात्मक
अध्ययन सामने रखा। हिंदी गद्य साहित्य के जनक भारतेंदु अपने
गद्य साहित्य में ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवादी शोषण का यथार्थवादी चित्रण किया
। इन्होने साम्राज्यवादी शक्ति के आर्थिक शोषण और धन का विदेश जाना, अकाल, टैक्स आदि पर प्रभावशाली साहित्य की रचना की।
भारत दुर्दशा नाटक में वे लिखते हैं-
‘अंग्रेज राज सुख सज सजे सब भारी
पै धन विदेश चली जात इहै अति ख्वारी’
विशेषकर नाटक विधा के माध्यम से
इन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को नयी दिशा प्रदान की। उस समय में देश के अर्थतंत्र
का जो चित्रण किया है वह साहित्य और जीवन के आपसी संबंधों को नये ढंग से परिभाषित
करता है। भारतेंदु ने भारत की विडंबनापूर्ण स्थिति का चित्रण करते हुए भारत
दुर्दशा नाटक में अंग्रेजी राज को भारत दुर्दैव कहा है। इस क्रम में भारतेंदु भारत
की दुरावस्था का समाधान स्वदेश की भावना, स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग तथा स्वदेशी उद्योग- धंधों के विकास में
खोजते हैं। भारतेंदु बार- बार प्रजा से अधिक टैक्स वसूलने, विदेशी वस्तुओं के आयात के कारण देश की
बढ़ती निर्धनता पर क्षोभ प्रकट करते हैं।
1.4.भारतेंदु युगीन कविता
राम स्वरूप चतुर्वेदी ने भारतेंदु के कृतित्व के बारे में लिखा है कि “कविता में उनका संस्कार है, गद्य में विचार| एक के लिए वे ब्रजभाषा को पकड़े हुए है, और दूसरे के लिए वे खड़ी बोली को अपनाते है |” इसका कारण यह था कि भक्तिकाल और रीतिकाल की समृद्ध काव्य-परम्परा को अचानक छोड़कर एकदम नए कविता मार्ग पर चल पड़ना भारतेंदु युग के कवियों के लिए संभव नहीं था | इसलिए इस काल में भक्ति, श्रृंगार और नीतिपरक रचनाएँ प्रमुखतः ब्रजभाषा में लिखी गई | लेकिन ये कवि काव्य परम्परा का कोरा अनुवाद नहीं कर रहे थे, बल्कि परंपरा से हटकर नये विषयों को लेकर नयी भाववस्तु वाली कवितायेँ प्रभूत मात्रा में लिखी है| उन्होंने निर्धनता, भूख, देश की दुर्दशा, धार्मिक मतान्तर, छुआछूत, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, व्याभिचार, अशिक्षा, अंग्रेजी भाषा और शिक्षा, समुद्र-यात्रा, कूपमंडूकता, न्याय व्यवस्था, पुलिस-प्रशासन, फैशन, रिश्वतखोरी, बेकारी, सुरा-सेवन आदि समकालीन जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं है, जिसपर भारतेंदु युग के कवियों ने कविताएँ नहीं लिखी हों | भारतेंदु मंडल ने भक्तिकाल की पारलौकिक जीवन दृष्टि को अपदस्थ करके लौकिक जीवन दृष्टि और रीतिवादी दृष्टि को अपदस्थ करके जनवादी दृष्टि को स्थापित किया |
भारतेंदु युग के कवियों की दृष्टि यथार्थवादी थी | ये कवि जब वर्तमान की दुर्दशा पर दृष्टिपात करते है तो पाते है कि अपने अतीत के गौरव से सापेक्ष उसका समाज कितना जड़ और रुढ़िग्रस्त है | तत्कालीन समाज में बाल विवाह और विधवा विवाह जैसी बुराइयों से ग्रस्त था | भारतेंदु देश की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए लिखते है-
रोवहु सब मिलकै आवहु भारत भाई
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखि जाई ||
देश का धन विदेश चला जा रहा है, उसकी चिंता व्यक्त करते हुए भारतेंदु पुनः लिखते है-
अंग्रेज राज सुख सज सजे सब भारी
पै धन विदेश चली जात इहै अति ख्वारी
लेकिन तत्कालीन कवि केवल अंग्रेजी राज को ही भारत की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं थे, हम भारतीय भी उतने ही उत्तरदायी थे | इसलिए भारतेंदु युगीन सभी कवियों ने एक ओर जालिम शासन के प्रति आक्रोश व्यक्त किया वही समाज में जाग्रति लाकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरणा भी दी | भारतेंदु के अतिरिक्त प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बाल मुकुंद गुप्त, श्रीधर पाठक, राधाचरण गोस्वामी आदि सभी कवि राष्ट्रीयता की भावना से भरे हुए थे | इसलिए इन कवियों ने अतीत गौरव और भारत की प्राकृतिक सुषमा का चित्रण करने के साथ-साथ उन उपायों का भी निर्देश किया जिनसे भारत अपनी दुर्दशा से मुक्त हो सकता है| इनमें से एक उपाय था-
निज भाषा उन्नत अहै, निज उन्नत को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल
अपनी मातृभाषा ही सभी उन्नति का मूल-मन्त्र है | दूसरा और अंतिम उपाय था अंग्रेजी पराधीनता से मुक्ति अर्थात् भारतेंदु के शब्दों में ‘स्वत्व निज भारत गाहे’| और यह आजादी हमें तभी मिल सकती है जब हम सब भारतियों में एकता हो-
हिन्दू, मुस्लिम जैन पारसी ईसाई सब जात
सुखी होंय हिय भरे ‘प्रेमघन’ सकल भारती भ्रात
इस प्रकार भारतेंदु युगीन कवियों में मध्यकालीन संस्कार और नयी युगीन चेतना में काफी कशमकश होती है | राजभक्ति, देशभक्ति पद्य की भाषा आस्तिकता-नास्तिकता का अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है | फिर भी विषय की नवीनता और तत्कालीन परिस्थितियों ने तत्कालीन कविता को परंपरा से हटकर आधुनिकता बोध को अपनाने के लिए बाध्य किया | ब्रजभाषा में रचित होने के बावजूद इस युग की कविता अपनी विषय वस्तु के आधार पर हिंदी कविता के लिए खड़ी बोली का मार्ग प्रशस्त करती है |
1.5.द्विवेदी युगीन कविता
भारतेंदु युग में कविता की भाषा को लेकर विवाद होने लगा था फिरभी ब्रजभाषा ही काव्यभाषा रही | भारतेंदु ने प्रतीक रूप में ही सही, कुछ कविताएँ खड़ी बोली में लिखी थी | किन्तु द्विवेदी युग में हिंदी कविता को सबसे बड़ी देन खड़ी बोली को कविता की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना है | इस युग में श्रीधर पाठक, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, गया प्रसाद शुक्ल, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, नाथूराम शंकर शर्मा, आदि कुछ ऐसे कवि रहे है जो ब्रजभाषा में तो श्रृंगार, वीर और भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता लिखते रहे लेकिन नूतन विषयों पर खड़ी बोली में कविताई करना पसंद किया | रामचरित उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, मुकुटधर पाण्डेय और रामनरेश त्रिपाठी ने केवल खड़ी बोली में ही कविता लिखी |
राष्ट्रीयता की भावना : राष्ट्रीयता की भावना द्विवेदी युगीन कविता की मुख्य प्रवृति है जो अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ समेटे हुए है | इस युग का कवि जब अपने अतीत को देखता है तो उसे गर्व महसूस होता है | वह अनुभव करता है कि एक समय भारत दुनिया का सिरमौर था | इसलिए मैथिलीशरण गुप्त कहते है-
हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी |
भारतेंदु युग में जागृत राष्ट्रीय चेतना अब क्रियात्मक रूप धारण करने लगी। उसका व्यापक प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा और कवि समाज राष्ट्र-प्रेम का वैतालिक बनकर राष्ट्र-प्रेम के गीत गाने लगा।
‘जय जय प्यारा भारत देश’ ... श्रीधर पाठक
नाथूराम
शंकर शर्मा जागरण का आह्वान करते है-
देशभक्त
वीरों मरने से नहीं डरना होगा
प्राणों
का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा
लोक-प्रचलित पौराणिक आख्यानों, इतिहास वृत्तों और देश की राजनीतिक घटनाओं से इन्होंने अपने काव्य की विषय वस्तु को सजाया। इन आख्यानों, वृत्तों और घटनाओं के चयन में उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति, देशानुराग और सत्ता के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर है।
रुढ़ि-विद्रोह एवं समाज सुधार: पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव एवं जन
जागृति के कारण इस काल के कवि में बौद्धिक जागरण हुआ और वह सास्कृतिक भावनाओं के
मूल सिद्धांतों को प्रकाशित कर बाहरी आडम्बरों का विरोध करने लगा । स्त्री-शिक्षा, बालविवाह, अनमेल विवाह, विधवा-विवाह, दहेज-प्रथा, अंधविश्वास आदि विषयों पर द्विवेदी युग के
कवियों ने रचनाएं लिखी हैं। बाल-विधवाओं पर श्रीधर पाठक लिखते है-
‘दुखी
बाल विधवाओं की है जो गती
कौन
सके बतला, किसकी इतनी मती’
कवियों
ने समाज की सर्वांग उन्नति को लक्ष्य बनाकर इन सभी विषयों पर अपने विचार व्यक्त
किए हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने “भारत-भारती” समाज के प्रत्येक पक्ष पर लिखा-
‘हिन्दू
समाज कुरीतियों का केंद्र जा सकता कदा |
ध्रुव धर्म पथ में कुप्रथा का जाल सा है बिछा रहा ||
इसप्रकार तत्कालीन कवियों ने समाज को एक नए राह पर लाने के लिए महान कार्य किया |
मानवतावादी दृष्टिकोण : इस काल का कवि संकीर्णताओं से ऊपर
उठ गया है। वह मानव-मानव में भ्रातृ-भाव की स्थापना करने के लिए कटिबद्ध है। साहित्य
में मानवीय भावना किस रूप स्थान प्राप्त कर रही थी उसका प्रमाण मैथिलीशरण गुप्त के
“भारत-भारती” की यह पंक्ति है-
‘पानी
बनकर रक्त का कृषि कृषक करते है यहाँ
फिर
भी अभागे भूख से दिन-रात मरते है यहाँ |’
मानवता का मूल्यांकन इस युग के कवियों की प्रखर बुद्धि ने ही किया। उनकी दृष्टि में-
‘मैं मानवता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूं
नर
को ईश्वरता प्राप्त कराने आया|’
इसप्रकार द्विवेदी युग में मानवता को धर्मं और ईश्वर से बड़ा माना गया |
श्रृंगार की जगह आदर्शवादिता : इस युग की कविता प्राचीन प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों से युक्त आदर्शवादी कविता है। इस युग के कवि की चेतना नैतिक आदर्शों को विशेष मान्यता दे रही थी,क्योंकि उन्होंने वीरगाथा काल तथा रीतिकाल की शृंगारिकता के दुष्परिणाम देखे थे। अत: वह इस प्रवृत्ति का उन्मूलन कर देश को वीर-धीर बनाना चाहता है-
रति के पति! तू प्रेतों से बढ़कर है संदेह नहीं,
जिसके सिर पर तू चढ़ता है उसको रुचता गेह नहीं।
मरघट उसको नंदन वन है,सुखद अंधेरी रात उसे
कुश कंटक हैं फूल सेज से,उत्सव है बरसात उसे॥ (रामचरित उपाध्याय)
इस काल का कवि सौंदर्य के प्रति उतना आकृष्ट नहीं,जितना कि वह शिव की ओर आकृष्ट है।
नारी का उत्थान: यह इस काल के स्वच्छंदतावादी कवियों
की प्रमुख प्रवृति है | लेकिन इस काल के कवियों ने नारी के महत्त्व को समझा, उस पर होने वाले अत्याचारों का विरोध
किया और उसको जागृत करते हुए श्रीधर पाठक लिखते है-
‘आर्य जगत में पुन: जननि निज जीवन ज्योति जगाओ|’
अब नारी भी लोक-हित की आराधना करने वाली बन गई। अत: प्रिय-प्रवास की राधा कहती है-
‘प्यारे जीवें जग-हित करें,गेह चाहे न आवै|’
जहां कवियों ने नारी के दयनीय रूप देखें, वहां उसके दु:ख पर आंसू बहाते हुए “यशोधरा” में मैथिलीशरण कहते हैं-
‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आचल में है दूध और आंखों में पानी ||’
इतिवृतात्मकता और गद्यात्मकता: इतिवृत्तात्मकता का अर्थ है -वस्तु वर्णन की
प्रधानता | आदर्शवाद और बौद्धिकता की प्रधानता के कारण द्विवेदी युग के कवियों ने
वर्णन-प्रधान इतिवृत्तात्मकता को अपनाया | सौन्दर्य चाहे स्त्री का हो या प्रकृति का हो
अथवा किसी भाव का हो कवि कुछ चीजों का नाम देने या कुछ तथ्यों का उल्लेख कर देने
मात्र में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है | इतिवृत्तात्मकता के कारण इस काव्य में
नीरसता और शुष्कता है, कल्पना और अनुभूति की गहराई कम है, रसात्मकता
एवं कोमल कांत पदावली का उसमें अभाव है|
काव्यभाषा और काव्य रूप : द्विवेदी जी के प्रयासों के परिणामस्वरूप इस समय में साहित्य के समस्त रूपों में खड़ी बोली का एकछत्र राज्य स्थापित हो गया। उसका रूखापन जाता रहा, उसमें एकरूपता स्थापित हो गई और वह अपने शुद्ध रूप में प्रकट हुई | फिर भी खड़ी बोली में कविता की कोई समृद्ध परंपरा नहीं होने के कारण व्याकरणिक रूप धीरे धीरे स्थिर हुआ है और शब्दावली भी | भाषा के स्तर पर हिंदी कविता ब्रजभाषा से मुक्त होते ही रीतिवादी विषयों और मान्यताओं से भी मुक्त होने लगी | महावीर प्रसाद द्विवेदी जी मार्गदर्शक का काम किया | फिर कवियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा के सहारे भाषा के स्वरुप को स्थिर करने में योगदान किया |
श्री
हरदेव बाहरी के शब्दों में - "मैथिलीशरण गुप्त ने भाषा को लाक्षणिकता प्रदान
की, ठाकुर गोपालशरण सिंह ने प्रवाह दिया, स्नेही
ने उसे प्रभावशालिनी बनाया और रूपनारायण पांडेय, मनन द्विवेदी,
रामचरित
उपाध्याय आदि ने उसका परिष्कार तथा प्रचार करके आधुनिक हिंदी काव्य को सुदृढ़
किया।"
इस युग में प्रबंध और मुक्तक, दोनों ही रूपों में काव्य रचनाएं हुई। प्रबंध रचना के क्षेत्र में इस युग के कवियों को अति सफलता मिली। ‘प्रिय-प्रवास’, ‘वैदही-बनवास’, ‘साकेत’, इस काल के प्रसिद्ध महा काव्य हैं। 'जयद्रथ-वध', 'पंचवटी', 'पथिक','स्वप्न' आदि प्रमुख खंडकाव्य हैं। मुक्तक और गीत भी लिखे गए, परंतु अधिक सफलता प्रबंध काव्य प्रणयन में ही मिली|
1.6. स्वच्छंदतावादी प्रवृतियाँ और उनका विकास
द्विवेदी युग में काव्य प्रवाह जिन दो
दिशाओं में हुआ, उसमें से एक का प्रतिनिधित्व श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डेय,
रामनरेश त्रिपाठी आदि कर रहे थे | इन्हें स्वच्छंदतावादी कवि भी कहा गया | कविता
में बिना हिचक और व्यापक रूप से खड़ी बोली प्रयोग करने एवं प्रकृति-चित्रण और नए
विषयों को अपनाने के कारण रामचंद्र शुक्ल ने श्रीधर पाठक को हिंदी का पहला
स्वच्छंदतावादी कवि कहा है। आचार्य शुक्ल के अनुसार “प्रकृति प्रांगण के चर–अचर प्राणियों
का रागपूर्ण परिचय, उनकी
गतिविधि पर आत्मीयता व्यंजक दृष्टिपात , सुख-दुख में उनके सहाचर्य की भावना ये सब स्वाभाविक स्वच्छंदता के
पदचिन्ह हैं।” प्राचीन रुढ़ियों को तोड़कर नई शैलियों
में नए काव्य विषयों को लेकर साहित्य-सर्जना की प्रवृत्ति को स्वच्छंदता कहा जाता
है। हिंदी में स्वच्छंदतावादी काव्य प्रवृति का पूर्ण विकास छायावादी युग में हुआ।
स्वच्छंदतावाद की प्रमुख विशेषताएँ है-वैयक्तिकता
प्रधान अनुभूति, वन का महत्त्व, प्रकृति का अन्वेषण, प्रेम की स्वच्छंद भंगिमाओं
का चित्रण, नारी के प्रति सम्मान की दृष्टि, बैलेड या कथा-गीतों का उपयोग और
काव्यभाषा के रूप में खड़ी बोली प्रयोग| इसने जीवन और जगत से सहज लगाव की जो भूमिका
तैयार की वह छायावाद में और गहरी होती जाती है | स्वच्छंदतावादी प्रकृति वर्णनों
में यदि जीवन से लगाव की ओर संकेत है तो वहाँ ऐहिकता का भाव भी फूटता दिखाई देता
है | प्रकृति को यहाँ रीतिकालीन उद्दीपन की भूमिका से मुक्त किया गया है | स्वच्छंदतावादी
कवियों ने प्रकृति को अपने जीवन का एक सजीव पक्ष मानकर चित्रित किया | स्वच्छंदतावादी
काव्य-संवेदना में वैयक्तिकता प्रधान अनुभूति से आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा प्रबल
हुई । नई संवेदना ने ज्ञान-विज्ञान के नए संसार में एक नया लोक खोल दिया और कवि का
ध्यान भारत की प्रकृति की विराटता पर गया। नई शिक्षा ने नए ज्ञान-नेत्र खोल दिए थे
और युवक-युवतियों में स्वच्छंदता से जीवन जीने की चाह या लगन पैदा कर दी थी।
श्रीधर पाठक के बाद स्वच्छंदतावादी
धारा को आगे बढ़ाने का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय, रूपनारायण पाण्डेय और रामनरेश
त्रिपाठी को है| मुकुटधर पाण्डेय ने स्वच्छंदतावादी वृतियों को विस्तार देते हुए
उसके छायावाद में परिणति को लेकर जो लेखमाला प्रकाशित की, उसके बाद से छायावाद
प्रचलित हो गया| राम नरेश त्रिपाठी के ‘मिलन’, ‘पथिक’ और ‘स्वप्न’ में स्वच्छंदतावाद
का सहज उल्लास है जो छायावाद पूर्व कविता की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं| इन तीनों
खंडकाव्यों में इनकी कल्पना ऐसे मर्मपथ पर चली है, जिस पर मनुष्य मात्र का हृदय स्वभावत:
ढलता आया है। ऐतिहासिक या पौराणिक कथाओं के भीतर न बँधकर अपनी भावना के अनुकूल
स्वच्छंद संचरण के लिए कवि ने नूतन कथाओं की उद्भावना की है। कल्पित आख्यानों की
ओर यह विशेष झुकाव स्वच्छंद मार्ग का अभिलक्ष्य सूचित करता है| स्वच्छंदतावादी
काव्य धारा में साम्राज्यवाद विरोधी चेतना का प्रखर रूप रामनरेश त्रिपाठी की
कविताओं में मिलता है | रामनरेश त्रिपाठी ने ‘मैं खोजता तुझे था, जब कुंज और पक्ष
में’ कविता
में जोरदार ढंग से कहा है—‘आखिर दमक पड़ा तू गांधी की हड्डियों में’। उन्होंने ने अंग्रेजी राज्य की
आर्थिक औद्योगिक नीति के विरुद्ध स्वदेशी उद्योग-धंधों के विकास की आवाज उठाई|
इस युग की समस्त नूतन स्वच्छंद
प्रवृत्तियों की झलक श्रीधर पाठक, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, रामनरेश त्रिपाठी और लोचन
प्रसाद पाण्डेय आदि के यहाँ मिलती है और यही वह मार्ग है, जिसका विकास पंत, निराला, प्रसाद एवं
महादेवी वर्मा के कवि-कर्म से होता है। स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह इसी
इतिहास का साक्षी है।