Monday, 24 November 2014

केदारनाथ सिंह : सहजता और लोक आख्यान के जादूगर

केदारनाथ सिंह : सहजता और लोक आख्यान के जादूगर
हिंदी के वरिष्ठतम कवि केदारनाथ सिंह को सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा जाना महज उनके काव्य की उत्कृष्टता का सम्मान नहीं है अपितु उन्हें यह पुरस्कार दिये जाने से स्वयं में ज्ञानपीठ पुरस्कार ही अधिक गौरवान्वित हुआ है | उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव के किसान परिवार से शुरू हुई जीवन यात्रा ८० वर्ष पूरी कर चुकी है और उनकी सर्जनात्मकता अपनी सम्पूर्ण प्रखरता और उर्जा के साथ अभी भी अक्षुण्ण है| अभी बिलकुल अभी, बाघ, अकाल में सारस, जमीन पक रही है, कब्रिस्तान में पंचायत, उत्तर कबीर और अन्य कवितायेँ, टॉलस्टॉय और साइकिल, सृष्टि पर पहरा केदारजी की कालजयी रचनाएं हैं जिसमें युग-बोध और भाव बोध जीवन की सहज लय में रच-बस कर अभिव्यक्त हुआ है | ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने अपने बयान में कहा है कि केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में जनपदीय चेतना के लिए जाने जाते हैं| वे कविता में आधुनिकता के साथ-साथ गीतात्मकता, प्रकृति और मनुष्य के बहुआयामी संबंधों को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करने के लिए चर्चित हैं।
मै अपने को उन सौभाग्यशाली लोगों में मानता हूँ जिन्हें केदार जी से पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ| वे अद्भुत शिक्षक हैं और निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ और मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ जैसी जटिल संवेदना वाली कविताओं को इतने सरल और सहज रूप से व्याख्यायित करते हुए अपने छात्रों के लिए बोधगम्य बना देना और उनके मन मष्तिष्क में कविता के प्रति रूचि पैदा कर देना उनकी अद्भुत खूबी रही है | मेरी जानकारी में किसी भी छात्र को उनसे कभी भी कोई परेशानी नहीं हुई या शिकायत नहीं रही| व्यक्तित्व में विनम्रता इतनी कि उनके अध्यापन और सर्जनात्मकता में भी झलकती रहती है |
केदारनाथ सिंह ‘तीसरे सप्तक’ के एक प्रमुख कवि थे | इस नाते वे नयी कविता आन्दोलन के अग्रणी कवियों में से एक थे | लेकिन वे कभी भी नयी कविता आन्दोलन की रूढ़ियों और साथ ही साथ यों कहा जाय कि समकालीनता की रूढ़ियों के गुलाम नहीं रहे | समय और परिवेश के साथ हिंदी कविता की बदलती धाराओं, फूटते नए स्वरों और उभरते मूल्य बोधों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने अपनी कविताई को नया आयाम प्रदान किया लेकिन कथ्य, भाषा और बिम्ब की सहजता को लेकर कभी समझौता नहीं किया | वे अपने आसपास के दैनिक जीवन से विश्व मानव की ओर अग्रसर होते है | ६० से अधिक वर्षों में काव्य रचना उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रही बल्कि उनके व्यक्तित्व का अंग बन गयी है|
निःसंदेह केदारनाथ सिंह समकालीन हिंदी में जनपदीय चेतना और गीतात्मकता के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं| यह लोकजीवन से उनके गहरे रिश्ते का प्रमाण है | वे खेत, खलिहान, कृषि और ग्रामीण संस्कृति से जुड़े ठेठ देशी मुहावरों, जुमलों और शब्दों का इस्तेमाल करते हुए गहन, गंभीर संदेश देने वाली कविताएं रचते हैं, जिसमें इंसानियत, संस्कृति, प्रकृति, पर्यावरण, नव उदारवाद, भूमंडलीकरण सहित देश और दुनिया के एक व्यापक परिवेश को समेट लेते है| उनकी कविताओं की ताकत भी यही है कि वे सहज-सरल शब्दों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं- उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए| भाषा और कथ्य की सहजता उनकी कविताओं का प्राणतत्व है और यही उनकी खूबी है। केदारजी अपने विचारों और संवेदनाओं को अधिकाधिक लोगों तक संप्रेषित करने के लिए बेहद सीधे-सादे ज़ुबान में अभिव्यक्त करते है और इस प्रक्रिया में वे कुछ ऐसा कह जाते हैं जिसका दायरा धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश और देश से ऊपर उठते हुए विश्व समुदाय तक फैल जाता है। वे अक्सर साधारण सी दिखने वाली घटनाओं के माध्यम से असाधारण बात कह जाते है | लेकिन साठ के दशक में कुशीनगर में बुद्ध की निर्वाण स्थली पर स्थित स्तूप के साथ खड़े विशाल वट-वृक्ष को काट दिये जाने की घटना उनके लिए सामान्य और असाधारण घटना नही थी | मंच और मचान में उस असाधारण घटना को केदार जी समकालीन नैतिक संकट और सांस्कृतिक संकट के रूप देखते है क्योंकि वट-वृक्ष पर पड़ने वाली कुल्हाड़ियों की ठक के नीचे जाने कितनी चहचह/कितने पर/कितनी गाथाएँ/कितने जातक/दब जाते थे और प्रत्येक ‘ठक’ आधुनिकता के समक्ष विकट सवाल खड़े करता है, जो अभी भी उसी तरह से टंगा है जैसे चीना बाबा का घर|
उनकी कविताओं में गाँव की स्मृतियाँ ही सहज रूप में ही नहीं कौंधती हैं बल्कि गाँव के खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, गली चौपाल और पशु पक्षी भी पूरी जीवन्तता के साथ उपस्थित होते हैं और पूरे ग्रामीण सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में मानव सबंधों के बनते बिगड़ते स्वरुप को उजागर कर जाते है जो पाठक के मन-मष्तिष्क पर लम्बे समय तक छा जाती हैं। उनमें ठेठ गंवई किसान का जीवन मुखर हुआ है और वे कुदाल जैसे ठेठ ग्रामीण किसानी उपकरण के माध्यम से शहर की विसंगतियों पर अंगुली उठाते है | ‘जाड़ों के शुरू में आलू’ कविता में केदार जी आलू के माध्यम से लूट खसोट वाली व्यापारिक संस्कृति को उजागर करते है-वह जमीन से निकलता है और सीधे/बाजार में चला जाता है|’ किसान की पैदावार बाजारों में बिक जाती है जहाँ दलाली, सट्टेबाजी और लूट खसोट का माहौल इस कदर है कि किसान इन सबके कुचक्र में पीस जाता है | जिस आलू को किसान अपनी मेहनत से उपजाता है वही आलू व्यापारियों के बीच जाकर दहशत पैदा कर देता है| `दानेकविता की पंक्तियाँ- नहीं हम मंडी नहीं जाएंगे/खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने/जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे/जाते-जाते कहते जाते हैं दाने के माध्यम से केदार जी बहुत सहजता से गाँवो से शहरों की ओर प्रवास और फिर लौटकर नहीं आने की विडंबना को बयां कर जाते है| वे सड़क पार करने को भी सड़क के पार बेहतर दुनिया की और टूटे हुए खड़े ट्रक पर चढ़ती घास को एक बदलाव की उम्मीद के रूप में देखते है| लेकिन शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की अंधाधुंध दौड़ में जिस तरह से कृत्रिम खूबसूरती के लिए कंक्रीट और सड़कों का विस्तार किया जा रहा है उसमें घास के लिए जगह नहीं बची है और वही घास दुनिया के तमाम शहरों से /खदेड़ी हुई जिप्सी है वह/  तुम्हारे शहर की धूल में / अपना खोया हुआ नाम और पता खोजती हुई तमाम दरवाज़े पीट रही है पर विडम्बना यह है कि प्राकृतिक सौन्दर्य से महरूम होते जा रहे शहरों में घास के लिए कोई जगह नहीं बची है | इसलिए पर्यावरण की सुरक्षा के सवाल को वे अपने सीधे सादे अंदाज से उठाते है और कहते हैं कि आदमी के जनतंत्र में / घास के सवाल पर / होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस / पर जब तक वह न हो / शुरुआत के तौर पर मैं घोषित करता हूं / कि अगले चुनाव में / मैं घास के पक्ष में / मतदान करूंगा और इस तरह वे पर्यावरण और प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते है | विकास और जीडीपी की अंधी दौड़ में जिस तरह से धरती और उसके संसाधनों का दोहन और विनाश किया जा रहा है, इसके बावजूद यह पृथ्वी रहेगी में कवि को भरोसा है कि जैसे दाने में रह लेता है घुन/ यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर“” भले ही ‘मेरी जबान’ में रहे या ‘मेरी नश्वरता’ में रहे | इसलिए वे फूल को, लहरों को, बादलों को, माटी को हक़ देने की मांग करते है, ताकि नए मानव की पताका ऊपर उठती जाय |
महत्वपूर्ण यह है कि बाजार पर आधारित उपभोक्ता वादी संस्कृति जैसे जैसे हावी होती गई, वैसे वैसे केदारनाथ सिंह का जीवन की सहजता की ओर उन्मुख होता गया है | ‘कुछ सूत्र जो किसान बाप ने बेटे को दिए’ इसका सशक्त प्रमाण है | यह नॉस्टैल्जिया नहीं है, बल्कि बहुप्रचारित आधुनिकता के नाम पर परोसी जा रही अपसंस्कृति से अपनी सभ्यता को अक्षुण्ण रखने की एक संवेदनशील कवि की कवायद है और जटिल होते जा रहे समय में परिवेश में मानवीय संबंधों की सहजता का सुकून हैं | जब वे पेड़ों में दबी कहानियां, पत्थरों में हड़प्पा के बसे होने की संभावना, एक दमदार आवाज वाली बुढ़िया का घर, जिसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने का प्रस्ताव करते है, तो क्या यह निरी नॉस्टैल्जिया है?

भोजपुरी से नाभिनाल बद्ध केदार जी भाषा में भोजपुरी के शब्द अनायास ही आ जाते है और भावो और विचारों को सहज और रोचक बना जाते है| भोजपुरी भाषा क्षेत्र से आने के कारण इस प्रदेश की सांस्कृतिक परंपरा और  विरासत से गहरे जुड़े हुए है और यही उनकी लेखकीय ऊर्जा का स्रोत भी है। यहां के जीवन के सुख-दुख और राग-रंग के बीच मैं पला बढ़ा हूं।  वे स्वीकार करते है कि ‘पुरबिया दुनिया’ उनकी आत्मा में बसी है लेकिन उनकी कविता में सम्पूर्ण मानवता समायी हुई है । उनकी भोजपुरी की क्रियाएं  खेतों से आई है और संज्ञाएं पगडंडियों से चलकर | इसी क्रम में भोजपुरी को लोकतंत्र से पहले का ‘ध्वनि- लोकतंत्र’ घोषित करते है जिसकी सबसे बड़ी लाइब्रेरी जबान है | लेकिन उनकी भोजपुरी हिंदी से अलग नहीं है | वे लिखते है, ‘हिंदी मेरा देश है / भोजपुरी मेरा घर / ....मैं दोनों को प्यार करता हूं / और देखिए न मेरी मुश्किल / पिछले साठ बरसों से /दोनों को दोनों में / खोज रहा हूं। परंपरा का यही धरातल है जिस पर कविता का सम्पूर्ण ताना बाना बुना जाता है | फिर वे जन जीवन के बीच हिंदी की वर्णमाला को रचित होते देखते हैं- यह मेरे लोगों का उल्लास है / जो ढल गया है मात्राओं में, / अनुस्वार में उतर आया है कोई कंठावरोध...............बिना कहे भी जानती है मेरी जिह्वा /........ कि आती नहीं नींद उसकी कई क्रियाओं को / रात-रात भर / दुखते हैं अक्सर कई विशेषण|

हाल में देश के भीतर भाषा की सियासत को लेकर जो विवाद का माहौल बना है और भाषा को राजनीति का मोहरा बनाकर शाह और मात का खेल खेलने वालों से वे विनम्रता पूर्वक ‘करबद्ध’ अनुरोध करते है कि राज नहीं–भाषा/भाषा-भाषा-सिर्फ भाषा रहने दो क्योंकि वे मानते है इसमें भरा है/पास-पड़ोस और दूर-दराज की/इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क/कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ/तो कहीं गहरे/अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु/यहाँ तक कि एक पत्ती के/हिलने की आवाज भी| इसप्रकार किसी देश की भाषा का उस देश की परंपरा और संस्कृति से अभिन्न एवं हिंदी भाषा की अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ से परस्पर अन्योन्याश्रित सबंध का भी बयान करते है|

केदारनाथ की कविताओं में संकीर्णताओं के लिए कोई जगह नहीं है | जितनी सहजता और सरलता उनकी भाषा में है उतनी ही उदारता उनके भाव-बोध में भी | उनके लिए कुम्भनदास और तुलसीदास से लेकर निराला, त्रिलोचन, शमशेर और राजेंद्र यादव सभी समान रूप से आदर प्राप्त करते है| यहाँ तक कि ज्यॉ पाल सार्त्र भी उनकी कविताओं में पूरे सम्मान के साथ अपनी जगह बना जाते है और भोजपुरी के लोकप्रिय नाट्यकर्मी भिखारी ठाकुर भी बदलते सांस्कृतिक परिवेश में अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते हैं। उनके यहाँ झपट्टा मारते हुए स्वामीनाथन आते है तो नामवर सिंह, निर्मल वर्मा से कुछ कहते नजर आते है |
सहजता, संवेदना और आख्यान के इस महान जादूगर को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना स्वागत योग्य है, वे निःसंदेह इसके हक़दार है |

शिवानन्द उपाध्याय



Monday, 28 April 2014

हिन्दी में गज़ल: रूमानी बोध से सामाजिक बोध का सफ़र



हिन्दी में गज़ल लिखने की परम्परा काफी पुरानी है | अमीर खुसरो को यदि हिन्दी का पहला रचनाकार माना जाता हैं तो हिन्दी के पहले गजलकार भी अमीर खुसरो ही हैं। अमीर खुसरो ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी काव्य रचना की अंगभूत विधा के रूप में ग़ज़ल रचना का भी सूत्रपात किया| ख़ुसरो ने अपने समय की प्रचलित खड़ी बोली अर्थात् हिन्दवी में काव्य रचना की प्रक्रिया में फारसी साहित्य की इस प्रमुख विधा के कलेवर को अपनाकर नए प्रयोग के साथ उसे नया मुकाम देने की कोशिश की | ग़ज़ल का रदीफ़ फ़ारसी में है और क़ाफ़िया हिन्दवी में है| खुसरो के बाद कबीर और मीरा ने भी अपनी भक्ति भावना को व्यक्त करने के लिए इस विधा को अपनाया | इसलिए यह कहना कि हिंदी में ग़ज़ल लेखन की परम्परा नयी है, इन महान रचनाकारों के साथ न केवल अन्याय होगा, बल्कि एक अमूल्य निधि को झुठलाने का पापकर्म भी होगा |   
ग़ज़ल की पैदाइश भले ही हिंदी में न होकर फ़ारसी भाषा और साहित्य में रही हो लेकिन उसकी अभिव्यक्ति क्षमता की ताक़त को देखते हुये हिंदी के रचनाकारों ने भी उसे अपनाया और हिंदी की प्रकृति के अनुरूप उपमा-उपमानों, प्रतीकों और बिम्बों से युक्त करते हुए फारसी की आत्मा से मुक्त कर दिया | इसप्रकार हिंदी को एक नयी विधा मिली, वही ग़ज़ल को एक नयी भाषिक और सांस्कृतिक परम्परा की विशाल थाती | लेकिन विडम्बना यह रही है कि शुद्धतावादी हिंदी रचनाकारों और आलोचकों ने ग़ज़ल को एक घुसपैठिये विधा के रूप में देखा और हिंदी की  साहित्यिक विधा के रूप में स्वीकार नहीं किया | ग़ज़ल की अपनी पृष्ठभूमि और हिंदी साहित्य की सामंती एवं दरबारी मानसिकता विरोधी प्रकृति इसका प्रमुख कारण रहा है | फ़ारसी साहित्य में विलासी राजाओं के विलास और मनोरंजन के लिए गज़लकार आशिक और माशूका की रोमैंटिक कथाओं को अभिव्यक्त करते थे | इसमें आम जनता के दुःख दर्द या प्रगतिशील चेतना की अभिव्यक्ति की कोई संभावना नहीं थी | आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने हिंदी की साहित्य परंपरा में इसे सामंती एवं दरबारी चेतना मानते हुए ऐसे विषयों को साहित्य के लिए वर्जित घोषित किया है | यही कारण है कि जब शमशेर ने पारंपरिक रूमानी संस्कार के दायरे से बाहर आकर ग़ज़ल को लोक जीवन की सच्चाई और समग्रता से जोड़ने का ‘दुस्साहस’ किया तो डॉक्टर राम विलास शर्मा ने यह कहकर खारिज कर दिया कि" ग़ज़ल तो दरबारों से निकली हुई विधा है, जो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में अक्षम है !" फिर भी भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि अमीर खुसरो के ग़ज़ल हिंदी रचनाकारों के लिए इस विधा को आजमाने की संभावना के संकेत के रूप में अवश्य विद्यमान थे | गालिब ने भी अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिये गज़ल को ही माध्यम चुना| इसलिए हिंदी में ग़ज़ल रचना की चाह रखनेवाले रचनाकार ग़ज़ल को प्रेम और लौकिक प्रेम जैसी किसी विशिष्ट भावाभिव्यक्ति तक ही सीमित काव्यरूप मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि वे अपनी साहित्य परंपरा में देखते है कि रीतिकालीन साहित्य में दैहिक सौन्दर्य और लौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति किसी एक या खास काव्यरूप में न होकर अनेक काव्यरूपों में हुई है और उन काव्यरूपों में अन्य कई भावों की भी अभिव्यक्ति हुई है | इसप्रकार किसी खास काव्यरूप में अनेक भावों को अभिव्यक्त करने की साहित्यिक पृष्ठभूमि ने हिंदी रचनाकारों को गजल रूप में काव्य रचना के लिए प्रेरित किया | भले ही यह शुरुआत थोड़ी हिचकिचाहट और थोड़े विरोधों के साये में हुई, लेकिन हिंदी रचनाकारों ने ग़ज़ल में केवल रोमैंटिक भावों या जीवन के एकांगी रूप को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा जीवन की अनेक छोटी-बड़ी और युगीन पर्तों को उघाड़कर देखा | हिंदी ग़ज़लकारों ने उर्दू या फारसी गज़लकारी इस धारणा को अव्यावहारिक साबित कर दिया कि अच्छी ग़ज़ल वही हो सकती है, जिसमें केवल प्रेम भावनाओ का चित्रण हो और जिसके कोई सामाजिक सरोकार नहीं होते | यहाँ तक कि हिंदी की जनवादी प्रकृति को लक्षित करते हुए मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ ने इतना तक कह डाला कि "ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही जिन्दा रखेंगे, उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !" इसकी वजह यह है कि हिंदी की प्रत्येक ग़ज़ल में आम जीवन उसी तरह से अभिव्यक्त होता है जिस तरह से भारतेंदु, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर और हिंदी के अन्य कवियों की कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है |
हिन्दी में गज़ल लिखने की परम्परा के विभिन्न आयाम और पड़ाव हैं। हिन्दी में गजल रचना करने में सूफी कवियों और amiamiiअमीर खुसरो rrकी प्रारंभिक लेकिन महत्त्वपूर्ण भूमिका के बाद हिंदी ग़ज़ल की परंपरा को  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीधर पाठक , राम नरेश त्रिपाठी, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद और निराला ने उसे सिंचित किया तो शमशेर और त्रिलोचन ने हाशिये पर पड़ी इस विधा को गति और नयी दिशा प्रदान की | यहाँ उल्लेख करना आवश्यक होगा कि फ़िराक गोरखपुरी इस कड़ी में अन्यतम थे, जो हिंदी और उर्दू के विभेद से परे जाकर ग़ज़लों की दुनिया रच रहे थे, जिनके यहाँ अतीत की गूंज और वर्तमान की बेचैनी दोनों मौजूद है | ‘फॉर्म’ के स्तर पर वे समकालीनों के बीच सम्पूर्ण गज़लकार थे | फिर भी उनका झुकाव उर्दू साहित्य की ओर की ओर अधिक था|
भले ही हिन्दी में गजल को अलग पहचान देने का श्रेय दुष्यंत कुमार को दिया जाता है | लेकिन इसके पहले शमशेर ने गजल की विषयगत संकीर्णता से बाहर आकर उसे व्यापक भावभूमि देने की कोशिश कर चुके थे | दुष्यंत कुमार ने हिंदी में ग़ज़ल लेखन के विरोधों और आलोचनाओ के खिलाफ़ बागी तेवर अपनाया, जो लोगों को काफी पसंद आया और उनके पीछे एक पूरी पीढ़ी ग़ज़ल लेखन में उतर आई | उन्होंने ग़ज़ल को हिन्दी कविता की स्वतन्त्र विधा के रूप में स्थापित भी किया |
यहाँ यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिंदी के रचनाकारों ने ग़ज़ल को अगर उर्दू साहित्य से अपनाया तो उसकी मुख्य विशिष्टता प्रभावोत्पादकता, मौलिकता और अन्दाजे-बयां के साथ अपनाया और आम आदमी की तकलीफों और युगीन हलचलों को बड़ी संजीदगी और साहित्यिक मुद्रा के साथ ग़ज़लों में अभिव्यक्त किया | हिंदी गज़लकारों ने प्रेम भावनाओं को भी नहीं नकारा बल्कि उसे काल्पनिक दुनिया से निकालकर एक व्यापक सामाजिक भावभूमि प्रदान की | हिन्दी में गज़लकारी को सम्प्रेषण के एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया, जो बिल्कुल सहज, सरल होते हुए भी प्रभावोत्पादक और आम आदमी की चेतना को झकझोरती है| इसके लिए रचनाकारों ने उस भाषा को अपनाया,  जो आम-आदमी की भाषा है और जिसे आम-आदमी समझता है, बोलता है, सुनता है,  पढ़ता है, जीता है और पसंद भी करता है । दुष्यन्त कुमार स्पष्ट शब्दों में कहते है कि
"जिसको मैं ओढ़ता बिछाता हूँ
वह गज़ल आपको सुनाता हूँ।"
तो बदलती परिस्थितियों में, जब हिंदी कविता अभिव्यक्ति की समस्या से जूझ रही थी, तब ग़ज़ल की जरुरत को हरेराम ‘समीप’ इन शब्दों में व्यक्त करते है-
‘बदलते हालात बतलाना ज़रूरी हो गया।
इसलिए मुझको ग़ज़ल गाना ज़रूरी हो गया|’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता हैं । मुक्त चेतना वाले भारतेन्दु ने हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं का सूत्रपात करने के साथ ही ग़ज़ल को भी हिंदी काव्य रचना के लिए एक काव्य रूप में केवल स्वीकार किया बल्कि आगामी रचनाकारों के मार्गदर्शन और उन्हें बेहिचक ग़ज़ल रचना को प्रेरित करने के उद्देश्य से स्वयं भी गज़ल लिखी । गज़ल  गायक के रूप में अपना उपनाम  उन्होंने ' रसा ' , रखा था । उनकी  गज़ल  के कुछ शेर देखिए --
‘दिल मेरा  ले  गया दगा करके
बेवफा  हो  गया वफा  करके ।
क्यूं  न दावा करे मसीहा का
मुर्दे  ठोकर  से  वो जिला  करके ।
क्या हुआ यार छिप गया किस तर्फ
इक  झलक  सी  मुझे दिखा करके ।
दोस्तों कौन मेरी तुरबत पर
रो  रहा है  ' रसा'  ' रसा करके |’

आगे चलकर अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध” जयशंकर प्रसाद, निराला, देवी प्रसाद पूर्ण, राम नरेश त्रिपाठी आदि कवियों ने भी ग़ज़ल की रचना की | सूर्यकान्त त्रिपाठी  ' निराला ' में सामाजिक और राजनीतिक चेतना गहरी थी, जो उनकी कविताओं के साथ-साथ उनकी गजलों में दृष्टगत होता है --
किनारा वो हमसे किए जा रहे हैं
दिखाने को दर्शन  दिए जा रहे हैं ।
खुला  भेद  विजयी कहाए  हुए जो
लहू  दूसरों  का  पिए  जा रहे  हैं |’
भारत की स्वतंत्रता संग्राम की चेतना से हिन्दी गज़ल भला अछूती कैसे रह सकती है ?  जगदम्बा प्रसाद मिश्र  ' हितैषी ' की गज़ल में देशभक्ति का तेवर है--
‘शहीदों  की  चिताओं  पर लगेंगे हर  बरस  मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी  निशां होगा ।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना  राज्य  देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा |’
इनकी गज़लों में जिस खूबसूरती के साथ युगीन संवेदना और समाज का दुःखदर्द मौजूद है, उससे यह कहना गैर मुनासिब होगा कि इन रचनाकारों ने केवल प्रयोग के लिए ग़ज़ल की रचना की | किन्तु ये रचनाकर उर्दू की परंपरागत ग़ज़ल की रूढ़ शैली, शब्दावली, संवेदना, लय, प्रतीक, छंद आदि को तोड़ नहीं पाए | दूसरी बात यह है कि ग़ज़ल के लिए जिस धारदार एवं प्रभावोत्पादक कंटेंट की जरुरत थी, वह ये रचनाकार रच नहीं पाए | इसकारण उनकी गजलों को जनमानस में महत्त्वपूर्ण स्थान नही मिला और ग़ज़ल हिंदी काव्य धारा के हाशिए पर या ‘फुटकल रचनाओं’ के खाते में भी स्थान नहीं पा सकी | 
शमशेर बहादुर सिंह ने संभवत: इस दिशा में पहल की जब उन्होंने उर्दू ग़ज़ल के परंपरागत ढाँचे को तोड़े बिना ही उससे बाहर निकलने का साहस दिखाया और ग़ज़ल की आवश्यकताओं को भी सफलतापूर्वक पूरा किया | शमशेर को अच्छी तरह से एहसास था कि हर नयी परम्परा अपनी पूर्व स्थापित परम्परा की नीव पर खड़ी होती है और उससे जीवन रस ग्रहण करती है, फिर भी रचनाकार की अनुभव सम्पन्नता और युगीन बोध उसे नवीन रूप ग्रहण करने को प्रेरित करती है ताकि जीवन सत्य की सार्थक अभिव्यक्ति संभव हो सके | शमशेर ने 'गज़ल' जैसी रोमेंटिक विधा को यथार्थ के धरातल पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ग़ज़ल को सामंती 'फार्म' मानने वाले डॉ रामविलास शर्मा का प्रतिवाद करते हुए 'फार्म' के सामन्तीपन से बचने को महत्वपूर्ण माना और स्पष्ट किया कि अगर कोई रचनाकार प्रगतिशील है तो वह कुछ भी लिखेगा तो वह सामंती नहीं होगा | निःसंदेह शमशेर के यहाँ ग़ज़ल सामाजिक सरोकारों के व्यापक कैनवास से जुड़कर जीवन के कमाए हुए सत्य को अभिव्यक्त करने लगती है |
‘जमाने भर का कोई इस कदर अपना न हो जाये
कि अपनी ज़िन्दगी खुद आपको बेगाना हो जाये।
सहर होगी ये रात बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे देश का पैमाना हो जाये|’ 
गज़ल के विकास और तेवर का प्रमाण त्रिलोचन के ग़ज़ल संग्रह 'गुलाब और बुलबुल'  में भी मिलता है जहाँ तत्कालीन समाज का जद्दोजहद मुस्तैदी से मौजूद मिलता है-
‘ठोकरें दरदर की थीं हम थें
कम नहीं हमने मुँह की खाई हैं|’
यदि शमशेर ने हिंदी में गज़लकारी को अपनी स्वतंत्र अस्मिता से पहचान कराया तो दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को अंगद पाँव की तरह पैर जमाने और वामन की तरह पैर फ़ैलाने की ताकत प्रदान की | गज़लकारी की दुनिया में दुष्यंत कुमार के पाँव रखते ही हिंदी में ग़ज़ल की क्षमता में अभूतपूर्व बदलाव हुआ | दुष्यंत कुमार ने ग़ज़लों के रूप-शिल्प और कथ्य से जुड़े सारे सवालों और आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए उसकी ऐसा पुख़्ता और विराट रचना संसार निर्मित किया की कि ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त करने और कहने में असमर्थ और हिंदी से इत्तर और बाहरी घोषित करने का सवाल ही बेमानी हो गया | दुष्यंत कुमार ने हिंदी की विशाल शब्द-संपदा के साथ ही भारतीय सामाजिक और साहित्यिक परम्परा के मिथकों, प्रतीकों, ऐतिहासिक तथ्यों और नए बिम्बों को साधते हुए ग़ज़ल का एक नया सौन्दर्य शास्त्र निर्मित कर दिया | आगे चलकर हंसराज रहवर, अदम गोंडवी, जानकी बल्लभ शास्त्री, जहीर कुरैसी, मधुर नज्मी, मुनव्वर राणा, प्रियदर्शी ठाकुर, शहाय अशरफ आदि ग़ज़लकारों ने इस नए सौन्दर्य शास्त्र का ही अनुसरण किया | दुष्यंत के साहस की दाद देनी होगी कि परंपरावादी ग़ज़लकारों की तमाम आलोचनाओ और विरोधों के बावजूद आम बोलचाल के शब्दों का धड़ल्ले से एवं प्रभावी इस्तेमाल कर ग़ज़ल की पारंपरिक भाषा की रूढ़ियों को नकार दिया और जनमानस में गहरी पैठ बना ली|
दुष्यंत कुमार का स्वर सड़क से संसद तक गूंजता है | 'लोक की चिंता और देश की चिंता' उनkikiiकी गजलों का केंद्रबिंदु है जो आज की खोखली राजनीति की दुनिया में बस दिखावे की चीज़ रह गई है। आम आदमी की तकलीफ की नुमाइश अब जलसों-जुलूसों में केवल खोखले नारों के रूप व्यक्त की जाती है। आम जनता के प्रति अन्याय और उनकी पीड़ा का प्रतिकार उन्ही की भाषा में करने की बेचैनी के कारण ही वे ग़ज़ल कहने की ओर अग्रसर हुए | ‘साये में धूप’ में वे लिखते है कि “अगर गज़ल के माध्यम से गालिब अपनी निजी तकलीफ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तकलीफ (जो व्यक्तिगत भी है और सार्वजनिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती?
दुष्यंत कुमार सियासती पैतरेबाजी और व्यवस्था की जड़ता के कारण  आजादी के सपनों एवं उम्मीदों के टूट जाने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते है-
‘कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए|’
क्योंकि राजनीतिक सत्ता पर आदर्शहीन, भष्ट, सामन्ती और अवसरवादी प्रवृति वाले लोग कुंडली मारकर बैठ गए थे, जिनके पास केवल आश्वासनों के सब्जबाग थे, उन्हें पूरा करने और जनता के जीवन में रोशनी फ़ैलाने की नियति कभी नहीं रही| वे मोहभंग की स्थिति को इन शब्दों व्यक्त करते है-
‘खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को,
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए|’
आजादी के बाद से जिस तरह से मूल्यों का पतन हुआ है, चाहे वे राजनीतिक मूल्य हों या नैतिक धार्मिक या सामाजिक, उससे आम आदमी का जीवन काफी त्रासद हो गया है | आजादी के बाद हमने अपने सर्वागीण विकास के लिए जिस लोकतंsarvangiinaत्र को बड़ी उम्मीद के साथ स्वीकार किया, वह हमारे राजनेताओं के सियासती फरेब के साए में लोभ, अहंकार, भ्रष्टाचार और बेईमानी का पर्याय बनता गया है और आम आदमी का जीवन दुश्वार होता गया है-
‘अब नयी तहजीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं ।‘
‘भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दा’
दुष्यंत अपने समय और समाज को, उसकी चुनौतियों को बहुत खुली और पैनी नज़र से देखते हैं। उनका स्वर सदा मानवताविरोधी ताकतों के खिलाफ़ रहा है| राजनीति की आदर्शहीन, भष्ट और अवसरवादी प्रवृत्तियों को लेकर वे अपने मन में उत्पन्न होने वाले क्षोभ, निराशा, हताशा और विवशता को ग़ज़लों में कह जाते है-
‘जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं|’
लेकिन लोकतंत्र को लेकर वे निराश नहीं नहीं है| उनकी शायरी में निराशा से निकलकर उम्मीद और उमंग का भाव मौजूद है | वे अपने भरोसे को इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त करते हैं-
‘जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए,’
वे जीवन, समाज और देश को पतन के गर्त में ले जाने वाली ताकतों के खिलाफ़ आम जनता के सीने में आग जलने की बात भी करते है और पत्थरों को भी पिघला देनेवाली आवाज भी देते है-
‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए|’
‘वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए |’
लेकिन उनका इरादा नेक है, वे अराजकतावाद के पक्षधर नहीं है | वे जनता के प्रति होने वाले अन्याय और उनके बीच असमानता और सांप्रदायिक भेदभाव वाली व्यवस्था से मुक्ति मात्र चाहते है | इसलिए कहते है कि
‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए’
ग़ज़ल कहने वाले हिंदी के अधिकांश रचनाकारों की नजर युगीन विषम और त्रासद परिस्थितियों के खिलाफ़ गुस्से और नाराजगी से बनी है, जो अन्याय और राजनीति छलों के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है |

दुष्यंत कुमार मध्यवर्गीय दुःख-दर्दों से अधिक जुड़े हुए थे तो  समकालीन हिन्दी ग़ज़लों के सशक्त हस्ताक्षर अदम गोंडवी की गज़लें सत्ता के शोषण से दबी कुचली निम्नवर्गीय जनता, गरीब किसान, जिनके हाथों में छाले और पैरों में फटी विवाई है, और भूख की पीड़ा से संतप्त लोगों का महाख्यान है| वे ग्रामीण जीवन के ताने-बाने के प्रति संवेदनशील रचनाकार है | इसलिए वे ग़ज़ल को गाँवों के बीच ले जाकर वहां की हक़ीकत को ग़ज़ल का विषय बनाना चाहते थे और बनाया भी | वे स्पष्ट शब्दों में आग्रह कहते है –
‘ग़ज़ल को ले चलो अब गाँवों के दिलकश नज़ारों में’
और गाँवों की ‘धरती की सतह’ परा खड़े होकर मानवता का दुःख-दर्द लिखते है और माटी की खुशबू को अभिव्यक्त करते है-
‘मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे ।
हम अपने इस कालखण्ड का एक नया इतिहास लिखेंगे |’
और उनकी पीड़ा या भावनाओं को ग़ज़ल के जरिए कह जाते है-
‘शबनमी होठों की गर्मी दे ना पायेगी sukuसुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इन्सान को”
“घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है ।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है|”’
उनकी गज़लों में जन प्रतिरोध का स्वर दुष्यंत कुमार की तुलना में काफी सशक्त है, जिसके निशाने पर संसदीय सियासत के साथ साथ, दलाली को प्रश्रय देती व्यवस्था, अफसरशाही और साम्प्रदायिक फरेब है |
अदम गोंड़वी ने अपनी एक गज़ल में एक ऐसे ही सत्य को उजागर किया है, जिसका आमनासामना हम निरंतर करते हैं-
‘काजू की भुनी प्लेट, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में|’
एक ओर महंगाई से त्रस्त आम जनता और दूसरी ओर दिल्ली की तथाकथित आधुनिकता की बहसों और बयारों को आमने सामने रखकर तल्ख़ व्यंग्य भी करते है जो आज की कड़वी सच्चाई को अभिव्यक्त करती है-
‘हीरामन बेज़ार है उफ़्! किस कदर महँगाई से
आपकी दिल्ली में उत्तर-आधुनिकता आई है |’
शहरों की चकाचौंध से आकर्षित होकर या रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की पलायन करने वाले लोगों के जीवन की त्रासदी को कुंअर बेचैन इसप्रकार व्यक्त करते है –
‘हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते’
ज्ञान प्रकाश विवेक उनके वजूद को महज इश्तहार से अधिक नहीं मानते हैं
‘सियासी शहर में तू आ गया है तो सुन ले
वजूद तेरा यहाँ इश्तहारसा होगा।’
हिन्दी गज़ल की विकास की धारा जैसे जैसे सूक्ष्म होती जा रही है वैसे वैसे ग़ज़ल के नूतन स्वर उभर रहे हैं जिसके कई रंग हैं और कई मिज़ाज़ हैं और कई तासीरें हैं। इससे पता चलता है कि गज़ल अब हमारे ज़माने और समय के साथ हैं |
आम जनता के वोटों से चुने गए राजनीतिक प्रतिनिधियों के छल और भरोसा तोड़ने की करतूतों को ज्ञान प्रकाश विवेक कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं
‘सूरज से हम बचे तो जुगनू से जल गये हैं
जिन पर किया भरोसा वो लोग छल गये हैं’
सम्प्रदाय आधारित घिनौने चक्रव्यूह में एक दूसरे कि खून के प्यासे बने आम आदमी की बेज़ार होती जिंदगी के कड़वे सच को नरेंद्र कुमार व्यक्त करते हुए लिखते है कि
‘एक ने मंदिर उछाला एक ने मस्ज़िद का नाम
खूब खायी पत्थरों की मार अपनी ज़िन्दगी|’
वर्तमान समय में उटपटांग ख़बरों को परोसने की आज की भारतीय मीडिया की कारगुजारियों पर मुनव्वर राणा इस तरह से व्यंग्य करते है-
“’दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी
मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया”’

आज हिंदी में गजल कहने की भाषा और शिल्प के हर धरातल पर बहुत ही सहजता और स्वतःस्फूर्तता है। उनका अंदाजे बयाँ बिल्कुल स्पष्ट और सीधा है। अभिव्यक्ति की यह सहजता जिन्दगी के गहन और सहज बोध से आती है और यही हिंदी में ग़ज़ल की वास्तविक पहचान बन जाती है | सबसे बड़ी बात जो ग़ज़ल विधा की क्षमता और व्यापक स्वीकार्यता की पहचान बनती है कि इसने हिंदी और उर्दू के भाषाई फ़र्क को समाप्त कर दिया है जो गज़ल की विधा को शमशेर और दुष्यंत और उसके बाद के हिंदी रचनाकारों के अपनाने से पहले हुआ करता था | जो गज़लकार उर्दू और फ़ारसी के जबरन ठूस कर भरे गए शब्दों से रचित या कही गयी गजलों को ही श्रेष्ठ ग़ज़ल की कोटि में रखते थे, जिसके कारण ग़ज़ल आम जनता से दूर हो गयी थी, उनके इस पूर्वाग्रह को स्वयं ग़ज़ल विधा ने ही झूठा साबित कर दिया| इस पूरी विकास परम्परा में भाव-भंगिमा और अंदाजे-बयां पहले की तुलना में बहुत सशक्त और प्रखर हुआ है | आज अपनी व्यापक समावेशी क्षमता के कारण हिन्दी ग़ज़ल रूमानी परम्परा से निकलकर युगीन भाव बोध के साथ जुड़ती गयी है और इसकी प्रवृति विकासोन्मुख है| फॉर्म या शिल्प विन्यास के स्तर पर अपनी तमाम कमियों के बावजूद हिन्दी साहित्य की विकास परंपरा को एक नया मुकाम देने की दिशा में अग्रसर हैं|